Monday 15 December, 2008

एक बार ग़लतफ़हमी में भी पिट गया!

मेरे एक दोस्त ने कुछ रोज़ पहले मुझे एक फ़ोन किया। मेरे हैलो कहते ही वो शुरू हो गया। एक सांस में कह गया, "यार! आज हमारे मोहल्ले में एक बड़ी बात हो गई... मेरे घर के ठीक सामने एक लड़के को उस बाप ने सरेआम दो चांटे रसीद डाले। लड़का काफ़ी देर से गली में मोटरसाइकिल पर स्टंट दिखा रहा था। और उसके बाप को ग़ुस्सा आ गया।"
मैंने पूछा, "इसमें बड़ी बात क्या है?"
तो उसने कहा, "क्या बात करते हो, तुमने सुना नहीं! उसके फ़ादर ने उसे सरेआम दो थप्पड़ मारे।"
'बड़ी बात' तो मेरे समझ में नहीं आई, लेकिन मुझे अपना बचपन ज़रूर याद आ गया... वो बचपन, जिसमें ना तो हमारी शैतानियों का कोई हिसाब था और ना ही पिटने-पिटाने का... कई बार तो गलतफ़हमी में ही पीट दिए जाते थे और बात आई-गई हो जाती थी... आज मेरे दोस्त के बहाने एक किस्सा मेरे बचपन के दिनों का...

तभी मेरी उम्र कोई छह-सात साल रही होगी। शाम को अपने दोस्तों के साथ गली में खेल रहा था... खेल क्या था, किसी भी नई चीज़ को देख कर उसे अपना बताने की होड़ चल रही थी... मसलन, जैसे ही कोई कार गुज़री, तो मैंने झट से कह दिया, "ये मेरी कार है।" फिर कोई बाइक सवार गुज़रा तो किसी दोस्त ने कह दिया कि ये उसकी बाइक है... बस, कुछ ऐसा ही खेल था। सीधा-साधा... बिल्कुल बचपन जैसा। खेल अभी चल ही रहा था कि मोहल्ले में रहनेवाले एक अंकल वहां से गुज़रे। आंखों में मोटी काली ऐनक, गंजा सिर, सफ़ेद धोती-कुर्ता और मोटी काली मूंछों वाले वैद्यनाथ अंकल।
अंकल जैसे ही साइकिल से पास आए, मैंने चिल्ला कर कहा, "हमारा साइकिल", और खुशी के मारे उछल पड़ा। ख़ुशी इस बात की कि वैद्यनाथ अंकल के साइकिल पर इससे पहले कि किसी और दोस्त की नज़र पड़ती, मैंने उसे अपना कह दिया। बस इसी क़ामयाबी से कुछ इतना ख़ुश था, जैसे साइकिल सचमुच अपनी हो गई हो। लेकिन मेरी ये ख़ुशी तब काफ़ूर हो गई, जब गुस्से से तमतमाए अंकल अपनी साइकिल से उतर आए और मेरी कान उमेठ कर मुझसे पूछा, "बताओ तुमने कहा ये?" मैं बुरी तरह सहम गया। समझ में नहीं आया कि आख़िर मेरी गलती क्या है? फिर भी अंकल ने पूछा था, तो जवाब देना ही था। मैंने भी घबराते हुए 'हां' में सिर हिला दिया। अब अंकल आगबबूला हो गए। उनका गुस्सा सातवें आसमान पर जा पहुंचा... कहा, "ठीक है। अभी दफ़्तर जाकर तुम्हारे पिताजी को बताता हूं कि तुम यहां क्या कर रहे हो?" इसके बाद कुछ देर तक तो अंकल का ख़ौफ़ दिलो-दिमाग़ पर छाया रहा, लेकिन फिर बचपन की मस्ती ने सबकुछ भुला दिया।
शाम हुई और पिताजी घर लौटे। अक्सर, मिठाई लेकर आते थे। और हम भी उनके आने की ख़ुशी में मचलने लगते। लेकिन उस दिन पिताजी का मूड उखड़ा हुआ था। मैं जैसे ही उनके पास पहुंचा, उन्होंने मेरी ताबड़तोड़ पिटाई शुरू कर दी। पिताजी कुछ इतने ग़ुस्से में थे कि बीच-बचाव के लिए मां को आना पड़ा। किसी तरह जान बची। मां तो इस पिटाई का सबब पूछ ही रही थी कि हिम्मत जुटा कर मैंने भी पूछ लिया कि आख़िर मुझे क्यों पीटा गया? बस फिर क्या था, पिताजी एक बार फिर ग़ुस्सा हो गए। उन्होंने मां से कहा, "तुम्हें पता है, ये आजकल सड़क पर खड़े हो कर आते-जाते लोगों को गालियां बक रहे हैं!" मैं हैरान... इस बार पिताजी से तो नहीं, लेकिन रोते-रोते मैंने मां से पूछा, "मैंने कब गाली दी?" मां ने यही सवाल पिताजी की तरफ़ उछाल दिया... अबकी पिताजी ने मुझसे पूछा, "तुम बताओ, क्या आज तुमने अपने वैद्यनाथ अंकल को 'अंधरा-शक्ल' नहीं कहा था?" कुछ देर सोच कर मैंने सारी बातें याद की और कहा, "नहीं।" अब पिताजी ने पूछा, "फिर क्या कहा था? अगर तुमने गाली नहीं दी, तो फिर वैद्यानाथ ने जब तुम्हारी कान उमेठी, तो तुमने हां क्यों कहा?" मैंने उन्हें पूरी कहानी सुनाई... और ये भी बताया कि वैद्यनाथ अंकल ने तब मेरे कान पकड़ कर सिर्फ़ इतना पूछा था, "बताओ तुमने कहा ये?" अब मैंने 'हमारा साइकिल' कहा था, सो डरते-डरते हां कह दिया था। फिर मैंने अपनी सफ़ाई में 'अंधरा-शक्ल' जैसी कोई गाली जानने से भी इनकार कर दिया। सचमुच, मुझे तब तक इस गाली का पता भी नहीं था... लेकिन अब सफ़ाई देकर भी क्या होता, जो होना था हो गया। मुझे याद है, अगले दिन सुबह पिताजी के साथ-साथ वैद्यनाथ अंकल ने भी मुझे सॉरी कहा...

Tuesday 9 December, 2008

दूसरों की निंदा करने का मंच बनते ब्लॉग!

पिछले 8 नवंबर को मैंने एक पोस्ट लिखा था -- "आप ब्लॉग क्यों लिखते हैं?" इस पोस्ट के ज़रिए मैं लोगों से ब्लॉग लिखने की सही-सही वजह जानना चाहता था। पोस्ट के बाद कुछ लोगों को मैंने अपनी ही तरह ब्लॉग लिखने की वजह ढूंढ़ता हुआ पाया, तो किसी को अपनी रचनात्मकता को आकार देने के लिए लिखता हुआ। लेकिन ब्लॉग की दुनिया को नज़दीक से देखने और समझने के बाद एक बात का पता ज़रूर चल गया। वो ये कि हम में से ज़्यादातर लोग सिर्फ़ और सिर्फ़ दूसरों की निंदा करने और उन्हें नीचा दिखाने के लिए ही ब्लॉग लिखते हैं। आपको मेरा ये नज़रिया अजीब लग सकता है, लेकिन मुझे यकीन है कि आप दिल से मेरी इस बात रो झूठला नहीं सकेंगे।
सौ में से अस्सी ब्लॉग तो सिर्फ़ मीन-मेख निकालने के लिए चल रहे हैं। कोई लोकतंत्र की खाल खींच रहा है, तो कोई मीडिया की खाल में भूसा भर रहा है, कोई साथी ब्लॉगिए को गरिया रहा है, तो कोई अपने ही बिरादरी को लानत भेज कर 'प्रगतिशील' बनने की कोशिश कर रहा है। कुल मिलाकर, माहौल बड़ा निराशाजनक है। अभी कल की बात ही ले लीजिए... मैंने एक ब्लॉग में किसी साथी को आतंकवाद के खिलाफ़ अभियान छेड़ने पर मीडिया की खिंचाई करते हुए पाया। गरज ये थी कि मीडिया आतंकवाद पर एसएमएस मांग कर लाखों रुपए के वारे-न्यारे कर रहा है। मोबाइल कंपनियों के हाथों की कठपुतली बन गया है। इन जनाब को तो इंडिया गेट और गेटवे ऑफ इंडिया पर मोमबत्ती जला कर आतंकवाद का विरोध करने में भी शोशेबाज़ी नज़र आई।
अब सवाल ये उठता है कि रोज़ाना इश्क फ़रमाने और अपने दोस्तों को नॉनवेज जोक्स भेजने के चक्कर में एसएमएस कर लाखों रुपए पानी की तरह बहानेवाली आबादी से अगर कुछ एसएमएस राष्ट्रीयता के नाम पर मंगा लिए गए, तो इसमें कौन सा पहाड़ टूट गया? क्या ज़िंदगी में हर काम या हर हरकत को सिर्फ़ और सिर्फ़ रुपए-पैसे के नज़रिए से ही देखना ठीक है? ये सही है कि बाज़ारवाद हर किसी पर हावी है और मीडिया भी इससे अछूता नहीं है। लेकिन मीडिया पर लानत बरसानेवाले लोगों को शायद कभी भी मीडिया के सामाजिक सरोकार नज़र नहीं आते। उन्हें मीडिया में ठुमके लगाती राखी सावंत और शराब पीकर हंगामा करते राजा चौधरी तो नज़र आते हैं लेकिन आतंकवादियों के हाथों मारे गए बेगुनाहों के लिए संवेदना प्रकट करती ख़बरे नहीं दिखतीं। उन्हें जेसिका लाल और नीतिश कटारा मर्डर केस का फॉलोअप नहीं दिखता। और नज़रिए के इस कानेपन से ही छिद्रान्वेषण की शुरुआत होती है।
मीडिया के बाद ब्लॉग की दुनिया में सबसे हॉट टॉपिक आजकल आतंकवाद ही है। लेकिन ज़्यादातर ब्लॉग आतंकवाद से निबटने के तौर-तरीकों और इससे बचने पर चर्चा करने की बजाय मज़हबी नज़रिए से आतंकवाद को देखने की कोशिश में ज़्यादा नज़र आते हैं। नेताओं को गाली देने का शगल तो ख़ैर पुराना है। ईमानदारी से कहूं तो मैंने भी बारहा नेताओं को उनकी करतूतों पर लानत भेजी है, लेकिन ये भी सच है कि लानत भेजने से आगे भी सोचने की कोशिश की है।
वैसे एक सुखद सच्चाई ये भी है कि कुछ रचनाशील लोग तमाम उतार चढ़ावों के बावजूद साहित्य सेवा में डटे हैं। और इससे भी अच्छी बात ये है कि साहित्य सेवा में डटे इन ब्लॉगरों की रीडरशिप ना सिर्फ़ अच्छी है, बल्कि ऐसे पोस्ट्स पर मिलनेवाली प्रतिक्रियाएं भी उत्साह बढ़ाती हैं। उम्मीद जगाती हैं। मौजूदा राजनीति पर मेरे एक पोस्ट "नेताओं को सिर्फ़ गालियां ही देंगे या कुछ करेंगे भी!" के प्रतिक्रिया में मेरे एक साथी अनूप शुक्ल ने चुटकी ली थी कि गालियां देते रहने का मज़ा ही कुछ और है। कहीं-ना-कहीं मुझे अनूप जी की बातों में भी सच्चाई नज़र आती है। लगता है कि ब्लॉग की दुनिया से अगर निंदा और खिंचाई जैसी चीज़ों को अलग कर दिया जाए, तो शायद कुछ बचे ही नहीं। बहरहाल, सबकुछ एक हद तक हो तो ही अच्छा लगता है।

Saturday 6 December, 2008

नेताओं को सिर्फ़ गालियां ही देंगे या कुछ करेंगे भी!

नेताओं को गालियों तो सबने दे दी, लेकिन नेताओं को कैसे रास्ते पर लाया जाए इसके बारे में अब तक कम ही सोचा गया। जिसने भी सोचा उसने नेताओं को समंदर में डुबोने, गोली मारने या फिर चुनाव का बहिष्कार करने तक ही सोचा। लेकिन सवाल ये है कि क्या ऐसे देश चल सकता है? आखिर क्या हो कि नेता सही रास्ते पर आ जाएं और कुर्सीमोह त्याग कर मुल्क के बारे में सोचें? पिछले कुछ दिनों से, ख़ास कर मुंबई धमाकों के बाद से, इस बारे में लगातार चर्चाओं और विमर्श के दौर से गुज़र रहा था। लेकिन इसी बीच किसी साथी ने एक ऐसी कुंजी बताई, जो हमारे पास होने के बावजूद जानकारी के अभाव में हम अक्सर उसका इस्तेमाल नहीं कर पाते हैं। ये उपाय दरअसल हमारे सांवैधानिक अधिकारों का ही एक ऐसा हिस्सा है, जिसके बारे में हमारे देश के ज़्यादातर नागरिक जानते ही नहीं। अच्छे-भले, पढ़े-लिखे और माहिर भी नहीं।
कई बार आपने लोगों को ये भी कहते हुए सुना होगा कि सारे नेता और सारी पार्टियां तो एक जैसी हैं, आप किसे भी वोट दीजिए क्या फ़र्क पड़ता है! लेकिन नहीं, फ़र्क पड़वाने का तरीक़ा भी संविधान ने हमें दिया है। 'कंडक्ट ऑफ इलेक्शन रूल 1961' की धारा 49(0) के मुताबिक अगर आप चुनाव में खड़े किसी भी उम्मीदवार को अपना वोट देने के क़ाबिल नहीं समझते हैं, तो आप 'नो-वोटिंग' के ऑप्शन पर जा सकते हैं। इसके लिए मतदान केंद्र में मौजूद प्रेज़ाइडिंग ऑफ़िसर की मदद ली जा सकती है। आपको एक ख़ास फॉर्म भरना होगा और आपका 'नो-वोट' या फिर यूं कहें कि आपका विरोध दर्ज हो जाएगा।
अब आप ये पूछ सकते हैं कि भला इससे क्या फ़र्क पड़ता है? ये तो वोट का बहिष्कार करने जैसी बात हुई। लेकिन नहीं, ये वोट के बहिष्कार से अलग है। आपको जानकर अच्छा लगेगा कि अगर किसी चुनाव क्षेत्र में हुए मतदान में सबसे ज़्यादा वोट 'नो-वोट' की कैटेगरी में डाले गए, तो प्रावधान के मुताबिक चुनाव आयोग उस चुनाव क्षेत्र की वोटिंग ही रद्द कर देगा। यानि एक बात साफ़ हो जाएगी कि अगर इलाके की जनता को चुनाव में खड़ा कोई भी प्रत्याशी अपना नुमाइंदा बनने के क़ाबिल नहीं लगता है तो चुनाव आयोग उसे आप पर थोपेगा नहीं, बल्कि उसे दौड़ से ही बाहर कर देगा। अगली बार जब भी चुनाव होगा, तब वे प्रत्याशी चुनाव में खड़े नहीं हो सकेंगे, जो उस चुनाव क्षेत्र से पिछली बार अपनी क़िस्मत आज़मा रहे थे। मतलब साफ़ है कि नो-वोटिंग का ऑप्शन चुनकर आप ना सिर्फ़ नाक़ाबिल नेताओं को सदन तक जाने से रोक सकते हैं, बल्कि पढ़े-लिखे और समझदार लोगों की ऐसी नई पौध को भी अपना नुमाइंदा बना सकते हैं, जो आमतौर पर ईमानदार होने के बावजूद राजनीतिक पार्टियों में चमचागिरी में कमज़ोर होने की वजह से पीछे छूट जाते हैं।

Friday 5 December, 2008

ऐसे नेता करेंगे मुल्क की हिफ़ाज़त?

जब भी अपने देश में नेताओं की हालत देखता हूं, तो बड़ी कोफ़्त होती है। सत्ता के लिए किसी भी हद तक नीचे गिरते इन लोगों को देख कर मन खट्टा हो जाता है। हर बार ये सोचता हूं कि अब नेताओं के बारे में कुछ नहीं लिखूंगा। लेकिन हर बार ख़ुद से हार जाता हूं और नेताओं की कारगुज़ारियों पर लिखने को मजबूर हो जाता हूं। लिखना इसलिए नहीं चाहता, क्योंकि उनके बारे में कुछ लिखना चिकने घड़े पर पानी डालने जैसा लगता है और लिखने से खुद को रोक इसलिए नहीं सकता क्योंकि नेताओं की करतूत देख कर ख़ून खौलने लगता है।
ये ताज़ी पोस्ट महाराष्ट्र में चल रही मौजूदा राजनीति के मद्देनज़र है। वैसे तो महाराष्ट्र पिछले कई महीनों से गंदी राजनीति की चपेट में है, लेकिन मुंबई के आतंकी हमलों के बाद इस राजनीति ने जो शक्ल अख्तियार की है, वो पहले से भी ज़्यादा भयानक है। मुंबई में हुए हमले के बाद एकबारगी ये लग रहा था, जैसे राज ठाकरे सरीखे लोगों को अक्ल आ गई होगी और उन्होंने मिल कर जीना सीख लिया होगा। हमले के तुरंत बाद राज ठाकरे की करतूतों को याद कर-कर के जिस तरह देश भर में लोगों ने एक-दूसरे को एसएमएस भेजे, उससे एक ऐसा माहौल बनता हुआ दिख रहा था। लेकिन अब मुंबई में जो कुछ हो रहा है उसे देख कर लगने लगा है कि वहां राज ठाकरे से भी बड़े-बड़े गए-बीते पहले से ही बैठे हुए हैं।
हज़ारों लोगों की जान जाने के बाद देश के गृहमंत्री शिवराज पाटील की नैतिकता जागी और भरे मन से उन्हें इस्तीफ़ा देना पड़ा... उनकी देखा-देखी दूसरे 'खरबूजों' ने भी रंग बदले, लेकिन महाराष्ट्र के सीएम थे कि कुर्सी छोड़ने का नाम ही नहीं ले रहे थे। ये और बात है कि वे बार-बार "मैंने आलाकमान को अपना इस्तीफ़ा ऑफ़र कर दिया है," का जुमला कह-कह कर ख़ुद को सत्तामोह से इतर दिखाने की कोशिश में जुटे थे... लेकिन आखिरकार वही हुआ, जिसका डर उन्हें खाये जा रहा था। आलाकमान के इशारे पर विलासराव देशमुख को सीएम की कुर्सी छोड़नी पड़ी। कांग्रेस ने भी कुछ सोच-समझ कर नांदेड़ के विधायक अशोक चव्हान की ताजपोशी का फ़ैसला कर लिया। लेकिन अभी पार्टी का ये फ़ैसला आया ही था कि राणे ऐसे गरजे कि हर कोई सन्न रह गया। राणे ने ना सिर्फ़ अशोक चव्हान को नाक़ाबिल बताया, बल्कि इससे पहले के मुख्यमंत्री देशमुख को भी नाकारा करार दिया। वैसे तो कुर्सी के लिए नेताओं की ये तथाकथित बग़ावत कोई नई बात नहीं है, लेकिन राणे ने जिस मौके पर ये जूतमपैजार शुरू की है, उससे सबका सिर शर्म से झुक गया है।
जब देश आतंकवाद की आग में जल रहा हो, अमेरिकी विदेश मंत्री कोंडोलिजा राइस समेत पूरी दुनिया के सियासतदान हिंदुस्तानी नेताओं को साथ मिल कर आतंकवाद से मुक़ाबला करने की सीख दे रहे हों, एक राष्ट्रीय संकट का माहौल हो, तब कुर्सी के लिए कांग्रेस में मची ये मारामारी सचमुच बहुत पीड़ादायक है। और राणे अपने ऊपर बाग़ी होने का टैग कुछ इस अंदाज़ में चस्पां कर रहे हैं, जैसे उन्होंने एक सड़ी हुई व्यवस्था के खिलाफ़ मुल्क और महाराष्ट्र के लिए अपना सबकुछ दांव पर लगा दिया हो। ख़ुद को सीएम का दावेदार बताने में उनका जो 'कनविक्शन' दिखता है, उससे लगता है जैसे वे मराठी मानुष की सेवा करने के लिए मरे जा रहे हैं। दूसरी ओर, उन पर पलटवार करनेवाले भी कमतर नहीं हैं।
ये हालात कमोबेश हर हिंदुस्तानी के दिलो-दिमाग़ को झकझोर देता है। सवाल, बस एक ही है कि जब नेताओं का सारा ज़ोर सिर्फ़ और सिर्फ़ कुर्सी हासिल करने पर हो, वे भला मुल्क की की हिफ़ाज़त कैसे करेंगे?

Tuesday 2 December, 2008

आतंकवाद - कैसे तय हो राजनीतिक जवाबदेही?

ये वो दौर है, जब हक़ीक़त और फ़साने का फ़र्क ख़त्म हो गया है। वीडियो गेम का शैतान जिस आसानी से लोगों को मारता है, ठीक उसी तरह हक़ीक़त की ज़िंदगी में भी शैतान इंसानों को मार रहे हैं। ये कोई पहला मौका नहीं है जब हिंदुस्तान पर आतंकवादियों ने हमला किया है... कभी असम, कभी जयपुर, कभी दिल्ली, कभी मुंबई, कभी बैंगलुरू, तो कभी हैदराबाद... हिंदुस्तान के नक्शे पर अब शायद ही कोई ऐसी जगह बची हो, जहां आतंकवादियों के नापाक कदम नहीं पड़े। मौत का तांडव नहीं हुआ। लेकिन ज़रा सोचिए... एक मुल्क, एक राष्ट्र के तौर पर हमने आतंकवादियों से निपटने के लिए क्या किया? सच पूछिए तो जो कुछ भी किया, उसमें कुछ भी ऐसा नहीं था जिससे आतंकवादियों को दोबारा ऐसा करने से रोका जा सकता। और यही वजह है कि आज हमारा मुल्क पूरी दुनिया के आतंकवादियों के लिए सॉफ्ट टार्गेट बन चुका है।
एक वारदात को 24 घंटे का वक्त भी नहीं गुज़रता है कि दूसरी वारदात रोज़मर्रा की ज़िंदगी थर्रा देती है। अब ये हमारी फ़ितरत है या कुछ और, हम हर बार हम अपना गुस्सा ज़ब्त कर ख़ामोश रह जाते हैं और ख़ैर मनाते हैं कि खुद सलामत रह गए। लेकिन अब मुंबई में हुए हमले के बाद जागने का वक़्त आ गया है। वैसे अब मुझे अपने चारों ओर एक अजीब सी बेचैनी दिखने लगी है। देर से ही सही अब लोग ये सोचने पर मजबूर होने लगे हैं कि इस हालात का सामना आखिर कैसे किया जाए? ऐसा क्या हो, जिससे हिंदुस्तान आतंकवादियों का सॉफ्ट टार्गेट न बन सके? यकीनन, पिछले कई दिनों से ये सवाल मेरे दिलो-दिमाग में भी कौंध रहे हैं। जब-जब आतंकवादी हमले की बात चलती है या टीवी पर मुंबई के हमले का मंज़र देखता हूं, तब-तब एक अजीब सी मनहूसियत छाने लगती है। और फिर काफी कोशिश के बाद ही नॉर्मल हो पाता हूं।
मैं कोई सुरक्षा विशेषज्ञ नहीं हूं और ना ही स्ट्रैटेजिस्ट हूं। लिहाज़ा आतंकवाद से बचने के लिए कोई बहुत टेक्नीकल बात नहीं कर सकता। लेकिन मोटे तौर पर जो चंद बातें मुझे समझ में आती है, उन्हें आपके साथ साझा करना चाहता हूं। और इन बातों में सबसे ऊपर है ख़ुफ़िया एजेंसियों की भूमिका। हमारे देश में होनेवाले हर आतंकी हमले के साथ ही ख़ुफ़िया एजेंसियों की पोल खुल जाती है। कभी हमले के बाद एजेंसियां सरकारों को पहले ही आगाह किए जाने की बात कहती हैं, तो कभी गृहमंत्री कहते हैं कि हमले ठीक कब और कहां हमले होंगे, ये नहीं बताया गया था। ज़ाहिर है कि ये हमारे देश के सिपहसालारों और एजेंसियों के बीच तालमेल की घोर कमी का सुबूत है। और अब इस कमी से निबटने की ज़रूरत शिद्दत से महसूस होने लगी है। ज़रूरत इस बात की भी है कि सुरक्षा एजेंसियों को नख-दंत दिए जाएं, ताकि किसी भी आपातकालीन हालात का वे मज़बूती से मुक़ाबला कर सकें।
आतंकवाद पर राजनीति ख़त्म करना भी हिंदुस्तान को मजबूत करने की अहम ज़रूरतों में से एक है। इसके लिए सबसे पहले हमें दहशतगर्दी को किसी मज़हब के चश्मे से देखने की आदत बंद करनी होगी। साथ ही लोगों के चुने हुए नुमाइंदों को भी अपने वोट बैंक की चिंता कम करते हुए आतंकवादियों के खिलाफ़ कड़े फ़ैसले करने होंगे। जब तक मुल्क के स्वाभिमान पर हमला करनेवाले अफ़ज़ल गुरु जैसे आतंकवादियों को फांसी के फंदे पर लटकाया नहीं जाएगा, तब तक दहशतगर्दी का कारोबार करनेवाले लोगों तक सख्त मैसेज नहीं पहुंचेगा। उनके नापाक हौसले भी कम नहीं होंगे। ठीक इसी तरह आतंकवादियों से नेगोशिएट करने और हर आतंकवादी हमले के बाद पाकिस्तान से सिर्फ़ बातचीत के सहारे रिश्ते सुधार लेने का ख्वाब देखने की आदत भी बंद करनी होगी। इस मामले में हमें इज़रायल और अमेरिका जैसे मुल्कों के सबक लेना चाहिए, जिन्होंने अपने आस-पास पनपनेवाले आतंक की अमरबेल को उखाड़ फेंकने में कोई कमी नहीं छोड़ी।
लेकिन ये सभी ख्वाब तभी पूरे हो सकेंगे, जब राजनेताओं को शर्म आएगी। एक मुकम्मल राजनीतिक इच्छाशक्ति पैदा होगी। लेकिन जब नकवी, अच्यूतानंद और पाटील जैसे लोग हमलों के बाद दहशतज़दा लोगों पर ही ऊंगली उठाने लगें और हर हाल में अपना दामन बचाने की कोशिश करें, वहां इस तरह की कोई भी कोशिश ख्याली पुलाव से अलग कोई भी शक्ल नहीं ले सकती। अब सवाल ये उठता है कि आख़िर क्या हो कि राजनेता जिम्मेदार बनें और उनकी एकाउंटिब्लिटी फिक्स हो? यकीनन अब देश को इस सवाल पर सोचने की ज़रूरत है। साथ ही ज़रूरत है कि अपने हर उस राजनेता का गिरेबान पकड़ने की, जो वोट की ख़ातिर तो जनता के पैरों पर लोट जाते हैं, लेकिन कुर्सी तक पहुंचते ही उसी जनता को आंखें दिखाने से गुरेज नहीं करते। अब जगने का वक़्त आ गया है।

Thursday 20 November, 2008

हालात से नाउम्मीद होती ज़िंदगी!

आज अपने ब्लॉग पर चंद पंक्तियां मेरे दोस्त रवीश रंजन शुक्ला की कलम से। दिल्ली में रह कर पत्रकारिता कर रहे रवीश भी मेरी तरह एक छोटे शहर से हैं। रवीश की ख़ासियत ये है कि वे एक बेहद संवदेनशील इंसान हैं और अपने आस-पास होनेवाले तमाम वाकयों से खुद को अलग नहीं रख पाते। कुछ रोज़ पहले रवीश को एक वाकये ने बुरी तरह झकझोर कर रख दिया। उन्होंने मुझसे दिल की बात कही और मैंने ही उन्हें ये सब ब्लॉग पर लिखने का सुझाव दिया। बाकी जो भी है, आपके सामने है --

अभी थोड़े दिन पहले मैं दीपावली में अपने घर गया था। घर जाते ही पुराने दोस्तों की याद आती है। इन्हीं में से एक मेरा दोस्त था राकेश साहू। दरम्याना कद, मुस्कुराता सांवला चेहरा, ब्लैक बेल्ट खिलाड़ी। जिंदगी में सफलता या असफलता से कोई लेना देना नहीं। हमेशा दूसरों के काम आना, साहित्य पढ़ना और रंगकर्म में वक्त निकालना। बीएसएसी भी झोंके में पास कर डाली थी। हाल के दिनों में संपर्क उससे कम हो गया था, क्योंकि मैं अपने काम से फ़ारिग नहीं हो पाता और वो अपनी मटरगश्ती से। राकेश साहू अजीब था। वैसा ही अजीब जैसे किसी कस्बाई शहर का आम लड़का होता है।
जीवन में शायद उसने एक गलती की थी। शादी करने की। खैर, घर पहुंचने के दो दिन बाद एक दिन अचानक मेरे पास एक दोस्त महेंद्र का फोन आया। उससे पता चला कि राकेश साहू की हत्या हो गई। पुलिस ने आदतन बिना शिनाख्त किए उसकी लाश को जला डाला। मैं और महेंद्र हैरान। हमारी आंखों के सामने उसका चेहरा घूमा। हमने बहराईच की कोतवाली में जाकर खुद शिनाख्त करने का फैसला किया। कोतवाली की ओर जाते कई बार दिमाग ने कहा कि भगवान करे राकेश साहू की फोटो न हो। लेकिन मुंह में पान दबाए कोतवाल साहब ने बड़े नखरे दिखाकर फोटो दिखाया तो वो राकेश ही था। आंखें खुली, गर्दन पर गहरा ज़ख्म, हमारी सुधबुध थोड़े समय के लिए चली गई। थोड़ी देर बाद कोतवाल साहब को याद आई कि उनके सामने खड़े दो सज्जन में से एक पत्रकार है और दूसरा अधिकारी, तब कुर्सी मंगवाई, हमें बिठाया। और फिर शुरू की हत्या को दुर्घटना का जामा पहनाने की कहानी।
दरअसल शादी के बाद राकेश की अनबन उससे ससुराल वालों से थी और राकेश की शादी का मामला कोर्ट में चल रहा था। उसने खुद भी कई बार हत्या हो जाने की आशंका जताई थी। पुलिस को भी ये बात मालूम थी, लेकिन बहराईच पुलिस ने ना तो लाश की अलग-अलग एंगेल से फोटो करवाई ना ही कोई सबूत इकट्ठा करने की कोशिश की। राकेश के शरीर पर से शर्ट गायब थी। पैरों के जूते और मोजे नदारद थे। जेब से पैसे और मोबाइल गायब थे। कुछ भी तो ढूंढने की कोशिश नहीं की। क़त्ल का मकसद मौजूद था। मौके-ए-वारदात और पास की दीवार पर छिटके खून से पहली नज़र में ही ये हत्या का मामला लग रहा था। लेकिन पुलिस का कहना था कि टैक्टर के हल से कटकर उसकी मौत हुई है।
पुलिस का यह नाकारा रवैया देखकर हम हैरान थे। हम शाम को अखबार के दफ्तर पहुंचे। कुछ एक अखबारी दोस्तों के ज़रिए ख़बर छपवाने की कोशिश की लेकिन दो अखबारों को छोड़कर किसी को भी ये खबर नहीं लगी। सभी ने रोज़ाना मिलने वाले पुलिसवालों की दोस्ती का ख्याल रखा और कुछ भी पुलिस की जांच के खिलाफ न लिखकर वही लिखा जो पुलिस ने बताया। दूसरे दिन हमें फिर निराशा मिली लेकिन फिर भी हमने बहराईच के वयोवृद्ध साहित्यकार डा. लाल के ज़रिए कैंडल मार्च निकालने का मन बनाया और वहां के एसपी चंद्र प्रकाश से भी बात की। उन्होंने ज़रूर हमें भरोसा दिलाया कि यह मर्डर है और हम जांच कर रहे हैं, लेकिन घटना के २० दिन होने को हैं, अभी तक राकेश के हत्यारों का पता नहीं चला है। इसी बीच हमारे दोस्तों को अब आसपास के लोग ही समझा रहे हैं कि जाने वाला तो चला गया अब तुम क्यों दुश्मनी ले रहे हो?
हम निराश इसलिए भी हैं कि एक प्यारे दोस्त को तो हमने खोया, लेकिन उसके लिए कुछ ही न कर पाने का मलाल ज्यादा है। छोटे शहर से लेकर बड़े शहर तक ना जाने कितने लो प्रोफाइल राकेश इसी तरह मर जाते हैं, लेकिन पुलिस की तफ्तीश कितना भरोसा पैदा करती है, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। ब्लॉग पर इस तरह का वाकया लिखने का मक़सद एक ही है कि अगर कोई इस तरह के मामलों में दिलचस्पी दिखाए और कुछ भी कर सके तो अच्छा है। साथ ही ये घटनाएं बताती है कि हम कितने लाचार हो जाते हैं। राकेश भले ही चला गया हो लेकिन हम ज़ुबानी जमाखर्च और रोज़ाना की पेशेवर कामकाज में इतने मसरुफ़ हैं कि हमसे कुछ होगा ऐसा नहीं लगता...

Thursday 13 November, 2008

'फ़िक्सिंग' के ज़रिए 'फेस सेविंग'!

आस्ट्रेलिया के क्रिकेट फैन्स और वहां की मीडिया तिलमिला रही है। ऐसा लगता है कि जैसे किसी ने उनके बदन पर एक साथ हज़ारों चीटियां छोड़ दी हों। वे छटपटा रहे हैं और उन्हें समझ में नहीं आ रहा है कि क्या करें? कोई कहता है कि पॉटिंग को अब बाहर का रास्ता दिखाकर सायमंडस को वापस लाना चाहिए, कोई कहता है कि मैग्रा और गिलक्रिस्ट जैसी दूसरी प्रतिभाएं ढूंढ़नी चाहिए, तो कोई नागपुर टेस्ट को ही फिक्स बता कर अपनी खिसियाहट मिटाने में लगा है।
दरअसल, बॉर्डर-गावस्कर सीरीज़ पर टीम इंडिया का कब्जा सिर्फ़ हिंदुस्तान की जीत नहीं, बल्कि क्रिकेट आस्ट्रेलिया की हार भी है। और 10 नवंबर को ख़त्म हुए नागपुर टेस्ट को फिक्स करार देने में जुटी एक लॉबी ऐसा कर आस्ट्रेलिया की फेस सेविंग में जुटी है। उन्हें इसके लिए बूढ़े पॉटिंग समेत अपने ही चंद खिलाड़ियों की बलि देना तो गवारा है, लेकिन एक मुल्क के तौर पर आस्ट्रेलिया को हारते हुए देखना कुबूल नहीं।
वैसे नागपुर टेस्ट पर चाहे जितनी भी उंगलियां उठाई जाएं ये सच है कि इस हार ने आस्ट्रेलिया का गुरूर तोड़ दिया है। मैदान पर किसी भी तरीक़े से जीत हासिल करने पर यकीन रखनेवाले आस्ट्रेलियाई खिलाड़ियों को भी ये समझ में आ गया है कि अब उनका किला पहले की तरह अजेय और अभेद्य नहीं रहा। यही वजह है कि लगातार दो टेस्ट मैचों में शिकस्त खाने के बाद अब एक सोची-समझी रणनीति के तहत नागपुर टेस्ट को फिक्स करार देने की कोशिश की जा रही है।
क्रिकेट की ख़बर रखनेवाले लोग ये अच्छी तरह जानते है कि इंटरनेशनल क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड की एंटी करप्शन विंग आमतौर पर किसी भी इंटरनेशनल मैच की रिकॉर्डिंग का बारीकी से मुआयना करती है, ताकि जानबूझ कर हारने जैसी कोई बात नज़र आने पर कार्रवाई की जा सके। लेकिन अब एक लॉबी इस रुटीन अफ़ेयर को मुद्दा बना कर नागपुर मैच में टीम इंडिया की काबिलियत पर पानी फेरना चाहती है। तर्क दिये जा रहे हैं कि पहली पारी में हेडन और दूसरी पार्टी में पॉटिंग जिस तरह रन आउट हुए, आस्ट्रेलिया की ओर से मैदान पर जो फिल्डिंग सेट की गई, दूसरी पारी में जिस तरह महज़ दो रन प्रति ओवर की गति से रन बनाए गए और हरभजन जैसा पुछल्ला बल्लेबाज़ भी हाफ़ सेंचुरी लगा गया, वो सब मैच फिक्स होने का ही सुबूत था।
शुक्र है कि ऐसे तर्क गढ़नेवाले इस लॉबी ने दूसरी पारी में गांगुली और लक्ष्मण के सस्ते में आउट होने, सचिन के रन आउट होने, स्लिप पर फिल्डिंग कर रहे द्रविड़ द्वारा दो कैच छोड़ने और फिल्डिंग में कई बार काहिली का मुज़ाहिरा करनेवाले भारतीय खिलाड़ियों को अपनी ज़द में नहीं लिया। वैसे भी ऐसा कर ना तो उन्हें फ़ायदा होता और ना ही हार की खीझ समाप्त होती। ऐसे में फिक्सिंग को लेकर एक तरफ़ा नज़रिया ही 'फेस सेविंग' कर सकती थी। जिसकी कोशिश जारी है।

Monday 10 November, 2008

फ़्यूचर प्लानिंग

मैं जिस रास्ते से रोज़ दफ़्तर जाता हूं वो दिल्ली की सबसे व्यस्त और तेज़ सड़कों में एक है। एक ऐसा रास्ता, जहां आप अचानक अपनी गाड़ी रोकने की सोच भी नहीं सकते। क्योंकि आपने गाड़ी रोकी नहीं कि पीछे से आपको कोई ज़ोरदार टक्कर दे मारेगा। और अगर आपकी किस्मत अच्छी रही, तो फिर हॉर्न बजा-बजाकर लोग आपका दिमाग़ ख़राब कर देंगे।
इसी रास्ते में फुटपाथ पर मैं रोज़ एक भिखारी को देखता हूं। उसकी शक्ल-सूरत तो किसी भी दूसरे भिखारी जैसी है, लेकिन उसे मैंने कभी किसी के सामने हाथ फैला कर कुछ मांगते हुए नहीं देखा। हां, फुटपाथ पर बैठा-बैठा वो रोज़ आते-जाते लोगों को सलाम ज़रूर करता है। एक रोज़ उसने मुझे भी सलाम किया। पहले मुझे लगा कि उसने किसी और को विश किया होगा... लेकिन अगले दिन जब इत्तेफ़ाक से मेरी नज़र उस पर गई, तो वो उसी अंदाज़ में मुस्कुराता हुआ मुझे सलाम कर रहा था। मुझे बड़ी हैरानी हुई। अगले रोज़ मैंने उससे मिलने का फ़ैसला किया।
चूंकि मैं पहले से तैयार था... भिखारी के पास पहुंचते ही मैंने अपनी गाड़ी धीमी कर ली। उसे कुछ रुपए दिए और लोगों को सलाम करने की वजह पूछ ली। उसने कहा, 'मालिक, मैं तो यहां कल की फ़िक्र में बैठा हूं। आज की रोटी तो ऊपरवाले के हाथ है।' मैं हैरान था... एक मैले-कुचैले कपड़े में बैठे भिखारी की 'फ़्यूचर प्लानिंग' देखकर...

Saturday 8 November, 2008

आप ब्लॉग क्यों लिखते हैं?

कोई ब्लॉग क्यों लिखता है? आप क्यों लिखते हैं? या फिर मैं ही ब्लॉग क्यों लिखता हूं?
मैं अक्सर इन सवालों के बारे में सोचता हूं। और मेरा दावा है कि आप भी ज़रूर सोचते होंगे। ये सवाल बेशक एक ही हैं। लेकिन इन चंद सवालों में कुछ इतने जबाव छिपे हैं कि बस पूछिए मत!
मन में उमड़ते-घुमड़ते ख्यालात को आकार देने के लिए, विरोध प्रकट करने के लिए, अपनी रचनात्मकता को अंजाम तक पहुंचाने के लिए, शेखी बघारने के लिए, पॉपुलर होने के लिए, दूसरों की बराबरी करने या फिर उनसे आगे निकलने के लिए, विवादित मसलों पर एक शिगूफ़ा छोड़ कर मज़ा लेने के लिए, जो बात दिल में ही घुट कर रह गई हो उसे उगलने के लिए, टाइम पास करने के लिए, ब्लॉगर कहलाने के लिए या फिर सिर्फ़ और सिर्फ़ लिखने के लिए? और शायद इन्हीं अनगिनत जवाबों में ब्लॉगिंग की दुनिया का अनोखापन भी छिपा है।
सच तो ये है कि अपना ब्लॉग शुरू करने से पहले भी मैं काफ़ी दिनों तक इस मसले पर सोचता रहा। ये भी सोचता रहा कि आख़िर मैं ब्लॉगिंग क्यों करूं? मेरे दोस्त अक्सर कहते थे कि सुप्रतिम तुम अच्छा लिख लेते हो, अपना कोई ब्लॉग क्यों नहीं शुरू करते? लेकिन दोस्तों से ऐसी बातें सुनते हुए तकरीबन साल भर का वक़्त गुज़ार देने के बाद जाकर ही मैं अपना ब्लॉग शुरू कर सका। हो सकता है कि दूसरों को इतना वक़्त ना लगता हो। वैसे भी हर शख्स के काम करने का अपना तरीक़ा होता है और हर काम का अपना वक़्त। शायद यही वजह है कि मुझे भी अपना ब्लॉग शुरू करने में इतना वक़्त लग गया। और 11 सितंबर 2008 को ब्लॉग शुरू करने के बाद इस मसले पर लिखने में और इतना...
अब तकरीबन दो महीने से ब्लॉग की दुनिया को नज़दीक से देख रहा हूं। इन दिनों में मैंने काफी कुछ देखा और सीखा है। माहिर ब्लॉगरों के कलम की धार देखी है और कोरी बकवास भी। सिर्फ़ लिखने के लिए लिखने वालों को भी देखा है और लोगों की नब्ज़ पर हाथ रखनेवालों को भी। कुछ मिशनरियों को भी देखा है और कुछ कनफ्यूज़्ड लोगों को भी। सच पूछिए तो हर शख्स, हर ब्लॉग और हर पोस्ट अपने-आप में अनोखापन लिए है। कहने को कोई ये भी कह सकता है कि वो अपना ब्लॉग स्वांत: सुखाय लिखता है, लेकिन ज़रा सोचिए कि ऐसी रचना या फिर ऐसा ब्लॉग, जिसे ना तो कभी किसी ने देखा हो और ना ही पढ़ा हो, वो किस काम का?
लेकिन इतना देखने और समझने के बावजूद मैं अपनी कैटेगरी अब तक तय नहीं कर पाया हूं। बहरहाल, मैं तो अपना ब्लॉग लिखने की वजह जानने की कोशिश में हूं... लेकिन अगर आप अपने बारे में हंड्रैड परसेंट श्योर हैं, तो मुझे ज़रूर बताएं...

Friday 7 November, 2008

आज भी हंसता हूं ख़ुद पर...

मेरा एक दोस्त है, जो अक्सर कहा करता है कि किसी पर हंसने से पहले इंसान को ख़ुद पर हंसने की आदत डालनी चाहिए। ये जुमला यकीनन उसका नहीं है। और ये बात भी वो हमेशा बेहद ईमानदारी से कुबूल करता है। लेकिन जब-जब वो अपने उम्र को पीछे छोड़ते हुए ये बात कहता है, तब-तब वो मुझे बहुत मैच्योर और सुलझा हुआ लगने लगता है। शायद इसलिए भी कि इस मामले में मैं भी उससे इत्तेफ़ाक रखता हूं। ...तो आज बात ख़ुद पर हंसने के एक वाकये की। आपको एक ऐसा क़िस्सा बताने जा रहा हूं, जिसे सुनकर आपको भी हैरानी होगी कि इंसान अपनी ज़िंदगी में जाने कैसी-कैसी नादानियां कर बैठता है।
उन दिनों मैंने मैट्रिक की परीक्षा दी थी। रिज़ल्ट का इंतज़ार था और इसी बीच पत्रकारिता का चस्का लग चुका था। मेरे एक सीनियर थे, निलय सेनगुप्ता। फ्रीलांस फ़ोटोग्राफ़र। जो अक्सर अखबार के दफ़्तरों से कुछ सांस्कृतिक कार्यक्रमों के इनविटेशन कार्ड्स कवरेज के लिए मेरे पास लेकर आते थे। इस तरह वे मेरे जर्नलिज़्म के करियर की नींव डालने में जुटे थे। एक बार वो मेरे लिए एक बड़े थिएटर ग्रुप का इनविटेशन कार्ड लेकर आए। नाटक था -- 'एक एनार्किस्ट (अराजकतावादी) की इत्तेफ़ाकिया मौत'। रवींद्र भवन के शानदार एयरकंडिशंड हाल में नाटक होना था।
मैं प्रेस गैलरी में बैठकर नाटक देखने और उसका कवरेज करने के लिए जोश से लबालब भर उठा। अपनी एटलस रिबेल साइकिल ली और नाटक शुरू होने से तकरीबन आधा घंटा पहले ही रवींद्र भवन जा पहुंचा। वहां शान से इनविटेशन कार्ड दिखाकर प्रेस गैलरी में जा बैठा। नाटक शुरू हुआ और ज़्यादातर हिस्सा मेरे सिर के ऊपर से गुज़रने लगा। नाटक की कहानी ठीक क्या थी, मुझे नहीं पता। लेकिन जैसा कि नाम से पता चलता था, नाटक किसी अराजकतावादी शख्स की मौत को लेकर रहा होगा। बहरहाल, रिपोर्टिंग तो करनी थी। इसलिए नाटक बीच में छोड़कर नहीं लौट सकता था। सो, तकरीबन आधे घंटे तक चुपचाप सबकुछ देखता रहा।
नाटक लगातार आगे बढ़ रहा था। तभी अचानक हॉल के पिछले हिस्से से एक महिला "बंद करो ये नाटक... ये सब क्या हो रहा है... जो मन में आता है, बोलने लगते हो..." कहती हुई स्टेज की ओर दौड़ी। महिला की इस हरकत से पूरे हॉल में सन्नाटा छा गया। आयोजकों ने आनन-फानन में मंचन रोक दिया और कुछ देर के लिए पर्दा भी गिरा दिया गया। बस, फिर क्या था? मेरे अंदर का रिपोर्टर जाग उठा। मैंने अपने अगल-बगल देखा दूसरे पत्रकार भी इस 'नए नाटक' को लेकर आपस में बातें करने लगे। मुझे नाटक बीच में छोड़कर दफ़्तर पहुंचने का यही सबसे सही वक़्त लगा। तुरंत हॉल से बाहर निकला और अपनी साइकिल उठाकर दफ़्तर की ओर भागा।
उन दिनों मेरे एक सीनियर रतन जोशी अख़बार में कला-संस्कृति का पन्ना संभालते थे। हांफते-हांफते मैंने उन्हें पूरी कहानी सुनाई और बताया कि किस तरह नाटक के बीच में ही बवाल हो गया और आयोजकों को मंचन रोकना पड़ा। मेरे जोश को देखते हुए उन्होंने तुरंत मुझे सबकुछ लिख डालने की हिदायत दी। बस, मैंने भी पूरे लच्छेदार तरीके से जो कुछ देखा, लिख डाला। फिर अंत में रिपोर्ट के ऊपर अपना नाम भी मोटे अक्षरों में लिखा, ताकि अगले दिन सुबह के अख़बार में बाइलाइन रिपोर्ट छपी हो।
अगले दिन उठकर मैं सबसे पहले बस स्टैंड के न्यूज़पेपर स्टॉल पर पहुंचा। ये देखने के लिए मेरी बाइलाइन रिपोर्ट अख़बार में कैसे और कहां छपी है? लेकिन जब काफ़ी ढूंढ़ने के बाद भी मुझे अपनी बाइलाइन नहीं दिखी, तो मैंने ख़बरों की हैडिंग पढ़नी शुरू की। तब अंतिम पन्ने पर मुझे अपनी ख़बर दिखाई पड़ी। तीन कॉलम की ख़बर। लेकिन मेरा नाम नहीं छपा था, लिहाज़ा मैं बहुत निराश हुआ। मन ही मन रतन जी को भी कोसने लगा। लेकिन अभी चंद घंटे गुज़रे थे कि निलय सेनगुप्ता ने मुझे बुलवा भेजा। जब उनके पास पहुंचा, तो वे लाल-पीले हो रहे थे। उन्होंने मुझे बड़ी लानत दी और कहा कि अब तुम कभी जर्नलिस्ट नहीं बन सकते। उनका रौद्र रूप देखकर मुझे उनसे इसकी वजह पूछने की भी हिम्मत नहीं हुई। चुपचाप सिर झुकाए खड़ा रहा। हारकर उन्होंने ही मुझे बताया कि मेरी ग़लती क्या है। निलय दा ने कहा, 'कल रवींद्र भवन में तुमने जिसे हंगामा समझा, वो दरअसल नाटक का ही हिस्सा था। नाटक बीच में रुकवाई नहीं गई, कलाकारों ने ही जानबूझ कर रोकी थी।' मुझे बाकी बात समझने में देर नहीं हुई। ये भयानक ग़लती थी। निलय दा ने बताया कि किस तरह आज सुबह से ही अख़बार के दफ़्तर में फ़ोन आ रहे हैं और सारे लोग मज़ाक बना रहे हैं।
मैं बेहद शर्मिंदा था... और ये भी सोच रहा था कि अगर रतन जी ने उस रोज़ ग़लती से भी ख़बर के साथ मेरा नाम छाप दिया होता, तो मेरी क्या हालत होती...? ख़ैर, एक अच्छी बात ये थी कि बाद में ख़ुद निलय दा, रतन जी और दूसरे कई सीनियरों ने इतना होने के बावजूद मेरी ख़ूब हौसला अफ़ज़ायी की।

Wednesday 5 November, 2008

दुनिया की नाभी - उज्जैन

कुछ रोज़ पहले उज्जैन गया था। कोई पांच हज़ार साल पुराना उज्जैन। आज ही लौटा हूं। तकरीबन पांच साल पहले भी एक बार उज्जैन गया था लेकिन तब जल्दबाज़ी की वजह से बस स्टैंड से ही लौटना पड़ा था। जिस शहर का ऐतिहासिक और आध्यात्मिक स्तर पर पूरी दुनिया में एक अलग मुकाम हो, उस शहर को सालों से देखने की इच्छा थी। जो इस बार पूरी हो गई। काम के बाद जो वक्त बचा, वो उज्जैन देखने में कुछ ऐसा गुज़रा जैसे कोई खुशनुमा वक्त महज़ लम्हों में गुज़र जाता है।
दुनिया की नाभी
कहते हैं कि उज्जैन ही वो जगह है, जो इस दुनिया के बिल्कुल बीचों-बीच स्थित है। और इसी वजह से इस शहर को दुनिया की नाभी भी कहते हैं। वैसे तो हमारे देश में तकरीबन सभी जगहों पर साल में एक दिन ऐसा ज़रूर आता है, जब कुछ मिनटों के लिए परछाई कदमों के बिल्कुल नीचे आ जाती है। लेकिन शायद दुनिया के बीचों-बीच मौजूद होने की वजह से उज्जैन में ये दिन सबसे ज़्यादा अजीब होता है। कुछ इतना अजीब कि उस रोज़ साया भी कुछ वक्त के लिए इंसान का साथ छोड़ जाता है।
महाकाल
उज्जैन में दुनिया का इकलौता पौराणिक महत्व वाला महाकाल मंदिर है। कहते हैं कि इस मंदिर में मौजूद शिवलिंग को किसी भक्त ने स्थापित नहीं किया, बल्कि स्वयंभू भगवान शंकर यहां खुद ही स्वयंभू हुए थे। बाद में राजा-महाराजाओं ने इस मंदिर को संवारने का काम किया। हिंदुओं के 12 ज्योर्तिलिंगों में से एक इस महाकाल मंदिर के साथ ही एक ऐसा सरोवर भी है, जिसे ब्रह्माजी ने खुद अपने हाथों से बनाया था। महाकाल को उज्जैन का राजा भी कहा जाता है। और शायद यही वजह है कि महाकाल मंदिर के सिवाय यहां कोई और राजमहल नहीं है। जबकि यहां महा प्रतापी सम्राट विक्रमादित्य समेत कई राजाओं ने शासन किया। यहां सिंहासन बत्तीसी का वो मशहूर टीला (अब अतिक्रमित) भी है, जिसके साथ कई लोककथाएं जुड़ी हैं। कहते हैं कि इस सिंहासन पर बैठनेवाले किसी भी सम्राट से 32 अलग-अलग मूर्तियां कर्तव्यपराणयता का वचन लेती थी और इस तरह कोई भी अपनी प्रजा से नाइंसाफ़ी नहीं कर सकता था।
काल भैरव
उज्जैन में ही भगवान शंकर के एक दूसरे रूप यानि काल-भैरव का मंदिर भी मौजूद है। इस मंदिर के साथ जुड़ी कहानी तो और भी चौंकानेवाली है। कहते हैं कि ब्रह्माजी ने जब चार वेदों की रचना कर ली थी, तो उन्हें भी कुछ वक्त के लिए खुद पर घमंड हो गया था और वे पांचवें वेद की रचना करना चाहते थे। लेकिन देवताओं ने इसे सृष्टि के लिए ठीक नहीं मानते हुए उनसे ऐसा नहीं करने का आग्रह किया। पर ब्रह्माजी जब अपनी बात पर अड़े रहे, तो सभी देव भगवान शंकर के द्वारस्थ हुए। लेकिन ब्रह्मा अडिग रहे। और तब भगवान शंकर ने अपना तीसरा नेत्र खोला और इसी नेत्र से काल-भैरव का जन्म हुआ। काल-भैरव को ब्रह्माजी को रोकने की जिम्मेदारी दी गई, लेकिन उन्होंने ब्रह्माजी को रोकने के लिए उनके एक अवतार की ही हत्या कर डाली। ये बड़ी भयानक बात थी। उन पर ब्रह्म हत्या का पाप लगा और वे अभिशप्त हो गए। लेकिन तभी शंकर जी ने उन्हें शिप्रा नदी के किनारे श्मशान पर बैठ कर कठोर तप करने और इस तरह शापमुक्त होने की युक्ति बताई। तब से काल-भैरव यहीं स्थापित हो गए। उन्होंने यहां बैठ कर कठोर तपस्या की और उनका जीवन शापमुक्त हुआ। इस मंदिर का ज़िक्र शास्त्रों में भी मिलता है।
नवग्रह धाम
उज्जैन में पौराणिक काल का मशहूर शनिदेव मंदिर और नवग्रह धाम भी मौजूद हैं। इस परिसर में शनिदेव की मूर्ति के अलावा सभी के सभी नौ देवताओं की अलग-अलग मंदिर भी मौजूद हैं। खास बात ये है कि ये सभी देव इन मंदिरों में भगवान शंकर यानि शिवलिंग के तौर पर ही स्थापित हैं। मान्यता है कि नवग्रह मंदिर में पूजा करने से, इंसान पर सभी ग्रहों की चाल ठीक रहती है।
छोटा शहर
तकरीबन आठ लाख की आबादीवाला उज्जैन एक ख़ूबसूरत और 'कूल' शहर है। दिन में चाहे कितनी भी गर्मी क्यों ना हो, उज्जैन की रात खुशनुमा होती है। ऐसा मैंने भी महसूस किया। उज्जैन में बोहरा समुदाय का एक प्रसिद्ध धार्मिक स्थल और कई जैन मंदिर भी हैं। महज़ तीन किलोमीटर के वृत में बसा उज्जैन कुछ इतना ही छोटा है कि पूरब, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण किसी भी दिशा में तीन किलोमीटर का सफ़र तय करते ही आप शहर से बाहर पहुंच जाते हैं। उज्जैन के ज्यादातर लोग धार्मिक प्रवृति के हैं। सिंहस्थ कुंभ का यहां लोगों के जीवन में बड़ा महत्व है और उनका वक्त पूजा-पाठ में गुज़रता है। (रात को फ्रीगंज में गरमा-गरम दूध मिलता है। कभी आप उज्जैन जाएं तो इसका ज़रूर मज़ा लें) यहां हॉट ड्रिंक्स का चलन अब भी कम ही है।
विक्रमादित्य भवन
पुराने शहर से बाहर एक राजमहल है। जिसे सरकार ने विक्रमादित्य भवन का नाम दिया है। ये महल स्थापत्य कला का एक बेजोड़ नमूना है। वैसे तो इस महल को ग्वालियर घराने के राजाओं ने बनाया था, लेकिन जब राजशाही ख़त्म हुई तब सरकार ने इसका नामकरण विक्रमादित्य भवन कर दिया। अब यहां से प्रशासनिक काम-काज निपटाए जाते हैं।
बदहाल शिप्रा
हिंदुस्तान की दूसरी अहम नदियों की तरह पौराणिक महत्व की नदी शिप्रा भी बदहाल है। पानी नहीं है। जहां है, वहां घेर कर पानी जमा किया गया है। जो बेहद प्रदूषित है। लेकिन आस्था के आगे कुछ नहीं चलता। सभी सानंद इसमें नहाते हैं। शिप्रा शुद्धिकरण की बात चल रही है। देखिए क्या होता है?
चिड़ियों का रेलवे स्टेशन
उज्जैन एक मायने में तो बेहद अजीब है। वैसे तो शाम होते ही पेड़ों के इर्द-गिर्द चिड़ियों का चहचहाना शुरू हो जाता है। लेकिन उज्जैन का रेलवे स्टेशन शाम को किसी विशाल पेड़ से कम नहीं होता। यहां लाखों चिड़ियों का डेरा होता है और ठीक शाम के वक्त अगर आप प्लेटफॉर्म पर खड़ें हो, तो चिड़ियों का शोर कुछ इतना ज्यादा होता है कि आपको चिल्ला कर बात करनी पड़ती है। पूरा स्टेशन चिड़ियों से पटा होता है। ऐसा क्यों है, नहीं पता।

Thursday 30 October, 2008

राज ठाकरे बदल देंगे आईएसआई का एजेंडा!

पाकिस्तानी ख़ुफ़िया एजेंसी आईएसआई को इन दिनों हिंदुस्तान में कौन सबसे प्यारा है? ये सवाल आपको अजीब लग सकता है... और शायद इसका जवाब आपको उससे भी अजीब लगे, लेकिन बात सोचनेवाली है। मुझे तो लगता है कि महाराष्ट्र नव निर्माण सेना के राज ठाकरे ही वो शख़्स हैं, जिन्हें आजकल आईएसआई सबसे ज्यादा पसंद करती है। आप पूछ सकते हैं, भला ऐसा क्यों? लेकिन मेरा जवाब सीधा सा है -- आईएसआई हिंदुस्तान में जो काम करोड़ों खर्च कर और अनगिनत जानों की कुर्बानियां दे कर सालों से करती आ रही है, राज ठाकरे वही काम इन दिनों बैठे-ठाले किए जा रहे हैं। ये और बात है कि ऐसा करने के पीछे दोनों का मकसद जुदा हो सकता है।
दरअसल, पाकिस्तान में सियासत की धुरी शुरू से ही हिंदुस्तान से नफ़रत की बुनियाद पर टिकी रही है। चाहे वो जनरल ज़ियाउल हक हों, बेनज़ीर भुट्टो, नवाज़ शरीफ़ या फिर परवेज़ मुशर्रफ़, अपने-अपने दौर में किसी-ना-किसी बहाने से इन सभी पाकिस्तानी सियासतदानों ने हिंदुस्तान और हिंदुस्तानियों से नफ़रत को हवा दी है। यहां जारी आतंकवाद, मुंबई के बम धमाके, दाऊद इब्राहिम को सरपरस्ती, कश्मीर के मौजूदा हालात और करगिल की लड़ाई इस बात के पुख़्ता सुबूत हैं। और यही तथ्य इस बात के भी सुबूत हैं कि किस तरह पाकिस्तानी खुफ़िया एजेंसी आईएसआई लगातार इस तरह की हरकतों को बढ़ावा देती रही है। हिंदुस्तानियों के बीच फूट, दंगा और हमारे देश को अस्थिर करने की कोशिश आईएसआई के एजेंडे में पहले से ही सबसे ऊपर रहा है... लेकिन नए दौर में खुद 'हमारे अपने' राज ठाकरे ही आईएसआई का काम हल्का किए दे रहे हैं।
मराठियों का वोट बटोरने और नफ़रत की सियासत करने वाले अपने ही चाचा बाल ठाकरे का कद छोटा करने के लिए राज ठाकरे ने मराठियों और गैरमराठियों के बीच जो खाई खोदी है, उसने आईएसआई का काम और आसान कर दिया है। या फिर यूं कहें कि जो काम अब तक आईएसआई लाख कोशिशों के बावजूद पूरी तरह नहीं कर पाई है, राज ठाकरे सत्ता की लालच में लगातार वही काम किए दे रहे हैं। अनेकता में एकता ही हिंदुस्तान की ख़ासियत रही है और लाख कोशिशों के बावजूद आईएसआई हिंदुस्तान की इस ख़ासियत को छिन्न-भिन्न करने में नाकाम रही है, लेकिन गैरमराठियों के खिलाफ़ राज ठाकरे की बयानबाज़ियों ने अब हिंदुस्तान की इसी ख़ासियत पर ख़तरा पैदा कर दिया है।
राज के उकसावे पर गुंडे उत्तर भारतीयों को पीट कर रहे हैं, मौत के घाट उतार रहे हैं... और तिस पर राजनीति का घिनौना रूप ये है कि इतना सबकुछ होने के बावजूद महाराष्ट्र की कांग्रेस सरकार को राज के ख़िलाफ़ सख़्त कार्रवाई करने के लिए सुबूत नहीं मिलते। कांग्रेस और शिव सेना के बीच छत्तीस का रिश्ता है और दुश्मन के दुश्मन को दोस्त मानने के फलसफ़े पर अमल करते हुए महाराष्ट्र सरकार राज ठाकरे की हर करतूत पर आंख मूंदे बैठी है। महाराष्ट्र की पुलिस एक भटके हुए गैर मराठी नौजवान को तो सरेआम अपनी गोलियों का निशाना बना सकती है, लेकिन लोगों को भटकानेवाले राज ठाकरे का बाल भी बांका नहीं कर सकती।
ठाकरे चाचा-भतीजे पर एक तो करैला दूजा नीम चढ़ा वाली कहावत बिल्कुल ठीक बैठती है। कमाल देखिए कि जिस पढ़ने-लिखनेवाले लेकिन भटके हुए नौजवान राहुल राज को मुंबई पुलिस गलत तरीके से मौत के घाट उतार देती है, उसे दूसरे ही दिन राज के चाचा और नफ़रत की राजनीति के 'पुरोधा' बाल ठाकरे बिहारी माफ़िया करार देते हैं। माफ़िया क्या होता है? जुर्म की दुनिया में किस हद से गुज़रने पर किसी के नाम के साथ ये बदनामी का तमगा जुड़ता है, ये कोई भी आसानी से समझ सकता है। लेकिन बाल ठाकरे को ये बात कौन समझाए, जिनसे इन बुढ़ापे में सत्तामोह और पुत्रमोह अनर्थ करवा रहा है।
राज ठाकरे की अनर्गल बयानबाज़ी का असर हिंदुस्तान में चारों को दिखने लगा है। कभी बिहार जलता है, तो कभी गोरखपुर के किसी घर में मातम पसर जाता है और कभी जमशेदपुर में टाटा मोटर्स के मराठी अधिकारी स्थानीय लोगों के निशाने पर आ जाते हैं। चंद संगदिल लोग राज के साथ आ खड़े हैं और राज उनके भरोसे कुर्सी का मज़ा लेने का ख्वाब बुन रहे हैं। लेकिन राज की इन हरकतों से देश गृहयुद्ध की ओर बढ़ने लगा है। ऐसे में वक्त रहते अगर केंद्र और महाराष्ट्र की कांग्रेस सरकार को होश नहीं आता है, तो बहुत मुमकिन है कि आईएसआई को आनेवाले दिनों में अपना एजेंडा ही बदलना पड़ जाए, क्योंकि हिंदुस्तान के बंटने के साथ ही आईएसआई का काम भी पूरा हो जाएगा।

Wednesday 29 October, 2008

बेटे, काश! मैं चिड़िया होती...

अभी लंबी छुट्टियों के बाद घर से लौटा हूं। तकरीबन 15 दिनों की। ये दिन कैसे गुज़र गए, पता ही नहीं चला। घर जाने से पहले छुट्टी पर जाने की खुशी तो थी, लेकिन साथ ही ये भी सोचकर मन उचाट हो रहा था कि ये छुट्टियां भी जल्द ख़त्म हो जाएंगी। और इसके साथ ही मां, बाबा (पिताजी), दादा (भैया) और घर के सारे लोगों से दूर चले आना होगा। कहने को कह सकते हैं कि तन से दूर हैं, मन से थोड़े ही! लेकिन इस तरह के जुमलों से मन नहीं संभलता। मैं जिस ट्रेन से अक्सर अपने घर जाता हूं, वो मुझे कोई 22 घंटे में वहां पहुंचा देती है। नौ सालों से बाहर रह रहा हूं। मेरा सफ़र 22 से 23 घंटे का तो कई बार हुआ, लेकिन इस ट्रेन ने इससे ज़्यादा लम्हे मुझसे कभी नहीं छीने। लेकिन इस बार ट्रेन ज़्यादा ही लेट हो गई। मेरा सफ़र कोई 28 घंटे में पूरा हुआ। छह घंटे पहले ही दिन पानी में चले गए।
ख़ैर...घर पहुंचा। मां के पैर छूना चाहता था, लेकिन मां ने मेरे झुकने से पहले ही मुझे खींच कर गले से लगा लिया। सच तो ये है कि मैं भी पहले गले ही लगना चाहता था और पैर बाद में छूना। लेकिन पता नहीं क्यों मां को देखा, तो अचानक ही झुक गया। इसके बाद उनसे तब तक चिपका रहा, जब तक उन्होंने मुझे दोबारा देखने के लिए खुद से अलग नहीं किया। मां ने क्या देखा, ये तो नहीं पता, लेकिन मैंने देखा कि मां पहले से भी ज़्यादा दुबली हो गई है और बाबा भी। ये उम्र का असर है या फिर मेरी फ़िक्र का, ये मैं नहीं जानता, लेकिन हर बार जब भी छुट्टियों में उन्हें देखता हूं तो लगता है जैसे वे पहले से थोड़े और कमज़ोर हो गए हैं... एक बार लगा कि उन्हें अपना ख़्याल रखने को कहूं, लेकिन अगले ही पल नामालूम क्यों, चुप हो गया। उन्होंने बचपन से ही सोच-समझ कर बातें करने की सीख दी। अब उन्हीं के साथ सोच-समझ कर बात करने लगा था।
घर पहुंचते ही खूब बातें करना चाहता था। जो बातें टेलीफ़ोन पर नहीं हो सकी और जो बातें साल भर बस एक अदद मुलाकात का इंतज़ार करती रहीं... साल भर मैंने जो दुख झेले और साल भर जो खुशियां भोगी, वो सबकुछ दिल खोल कर बताना चाहता था। लेकिन रात काफ़ी हो चुकी थी। मैंने अपनी बातचीत छोटी रखी और सोने चला गया। बिस्तर पर पड़े-पड़े काफ़ी देर तक सोचता रहा। सोचता रहा कि किस तरह मां-बाबा ने मुझे बचपन से लेकर आज तक इतने लाड़-प्यार से पाल-पोष कर बड़ा किया... और इतना बड़ा किया कि एक रोज़ उन्हीं को छोड़ कर करियर के चक्कर में हज़ारों मील दूर चला आया। मुझे याद है, जब मैं पांच-छह साल का था तो अक्सर कहा करता था कि मैं शादी नहीं करूंगा। तब मुझे लगता था कि कहीं शादी होने के बाद मुझे ससुराल में रहने के लिए न जाना पड़े और मैं अपनी मां से दूर ना हो जाऊं। मेरे दादा मुझसे कोई डेढ़ साल बड़े हैं। लेकिन मैंने उन्हें कभी ऐसी कोई बात कहते हुए नहीं सुना। दादा कहते हैं कि मैं बचपन से ही मां के ज़्यादा करीब हूं, शायद इसलिए ऐसा कहता था। लेकिन किस्मत देखिए कि आज दादा ही मां के साथ हैं और मैं मां से दूर रहता हूं।
इस बार छुट्टियां भी बहुत तेज़ी से गुज़र गईं। पांच से छह दिन तो घर से दूर अलग-अलग रिश्तेदारों के पास गुज़ारना पड़ा। जो दिन बचे, उन दिनों में बस मां को दिन भर चूल्हे-चौके के बीच पिसता देखता रहा। कभी वो मेरी पसंद की चीज़ें बनाने में उलझी रही, तो कभी किसी और काम में... हां, इन दिनों में मां ने रह-रह कर मुझसे जो बात कही, वो अब भी मेरे कानों में गूंज रही है। मां ने कहा, "बाबू, तोर जोन्ने खूब मोन कैमोन कॉरे। तुई कॉतो दूरे चोले गेली।" (बाबू, तुम्हारी बहुत याद आती है। तुम कितने दूर चले गए) सचमुच कभी-कभी मुझे लगता है कि मैं मां से बहुत दूर चला आया हूं।
छुट्टियों के बाद वापसी का वक्त सबसे बोझिल होता है। कुछ इतना बोझिल कि पिछली बार तक तो मैं वापसी के लिए पहले से टिकट तक कटवाने से बचता था। ऐन एक-दो रोज़ पहले टिकट लेता था। लेकिन वेटिंग से बचने के चक्कर में इस बार मैंने टिकट पहले ही कटवा रखा था। छुट्टियां ख़त्म होने से दो दिन पहले जैसे ही मैंने घर में अपने वापसी के दिन का बताया, माहौल बोझिल हो गया। मां भी सुस्त सी पड़ गई। फिर, मैंने तब तक मां को उदास देखा, जब तक मैं दिल्ली के लिए रवाना नहीं हो गया। मेरे ट्रेन में बैठते ही उनकी आंखों में आंसू डबडबाने लगे। वो खुद को संभालने की कोशिश कर रही थीं। लेकिन उनसे गले मिलते ही उनकी सब्र का बांध टूट गया। वो रोने लगी। मुझे लगा कि मैं भी एक बार ज़ोर से रो कर हल्का हो लूं, लेकिन कमबख़्त दिल की टीस दिल में ही रह गई। जाने क्यों रो नहीं सका।
ट्रेन में बैठा खिड़की से झांक रहा था... कई घंटे गुज़र चुके थे... बाहर शाम का धुंधलका था। मन अजीब सा हो रहा था... मां से जुदाई की कसक सता थी... तभी मोबाइल की घंटी ने मेरी तंद्रा तोड़ दी... देखा, मां अपनी नई मोबाइल फ़ोन से कॉल कर रही हैं... मेरे फ़ोन उठाते ही उन्होंने कहा, "बाबू तोर जोन्ने खूब मोन कैमोन कॉरछे। जोदी पाखी होताम, उड़े तोर काछे चोले आसताम..." (बाबू, तुम्हारी बहुत याद आ रही है। अगर मैं चिड़िया होती, तो उड़ कर तुम्हारे पास चली आती...)

Thursday 23 October, 2008

एक आतंकवादी का घर

देश भर में हुए बम धमाकों के बाद जब इसके आरोपियों में ज़्यादातर नाम आज़मगढ़ से आए, तो हर किसी के ज़ेहन में यही सवाल कौंधा कि आख़िर आज़मगढ़ ही क्यों? आख़िर क्यों आज़मगढ़ की एक पूरी नस्ल अचानक इतनी भटक गई कि फिर उनके लिए वापसी ही नामुमकिन हो गई? और इसी 'क्यों' का जवाब जानने के इरादे से जब एक क्राइम रिपोर्टर आज़मगढ़ पहुंचा तो उसने वहां एक और ही कहानी देखी। आखिर क्या है ये कहानी, आप भी जानिए। पढ़िए शम्स ताहिर ख़ान की क़लम से, एक आतंकवादी का घर...

सोचा था खुल कर लिखूंगा। पर लिखना शुरू किया तो अचानक ख्याल आया कि आखिर मैं क्यों लिखूं..और आप क्यों पढ़ें? जबकि मैं जानता हूं कि ना मेरे लिखने से कुछ फर्क पड़ने वाला है और ना आपके पढ़ने से। टेक्नोलोजी के इस दौर मे ना लिख रहा होता, तो लिखता कि मैं स्याही बर्बाद कर रहा हूं और आप बस पलटने के लिए पन्ने पलटते जाइए। पर अब तो कमबख्त सयाही भी खर्च नहीं होता और माउज़ पलटने जैसे पन्ने को पलटने भी नही देता। बस क्लिक कीजिए, स्याही गायब और हरफ़ आंखों से ओझल।
बटला हाउस एनकाउंटर के बाद मैं आजमगढ़ गया था। आतंक की ज़मीन तलाशने। नाम ले-लेकर कहा जा रहा था कि ये सभी आतंकवादी आजमगढ़ की ही मिट्टी ने उगले हैं। जब आजमगढ़ पहुंचा तो कुछ चाहने वालों ने कहा कि शम्स भाई यहां तक तो आ गए पर सराय मीर या सनजरपुर मत जाइए। वहां लोग गुस्से में हैं। दो दिन पहले ही कुछ पत्रकारों को पीट चुके हैं और कुछ को कई घंटे तक बंधक बना कर रखा। जाहिर है दिल्ली से जिस मकसद से निकला था उसके इतना नजदीक पहुंच कर उसे अधूरा छोड़ने का सवाल ही नहीं था। सो आजमगढ़ के अपने साथी राजीव कुमार को साथ लेकर निकल पड़ा।
आजमगढ़ से करीब तीस किलोमीटर दूर सरायमीर हमारा पहला पड़ाव था। गाड़ी से उतरा तो दुआ-सलाम के बाद एक भाई ने सड़क किनारे अपनी दवा की दुकान के बाहर कुर्सी दे दी। अभी हम वहां के ताजा हालात पर बात कर ही रहे थे कि तभी एक लड़का चाय और पानी ले आया। राजीव और हमारे ड्राइवर को ग्लास थमाने के बाद जैसे ही मेरी तरफ बढ़ा तभी दुकान के मालिक तिफलू भाई बोल पड़े--'अरे शम्स भाई को मत दना इनका रोजा होगा। क्यों शम्स भाई रोजे से हैं ना आप?' इतना सुनते ही जांघों पर से उठ कर ग्लास की तरफ बढ़ता मेरा हाथ वापस अपनी जगह पहंच गया।
तिफलू भाई का इलाके में अच्छा रौब था। और वहां के हालात को देखते हुए अब आगे के सफर में उनको अपने साथ रखना एक दानिशमंदाना फैसला था। लिहाजा उन्हें अपने साथ लिए हम सबसे पहले बीना पाड़ा गांव पहुंचे। ये गांव गुजरात बम धमाकों के मास्टरमइंड कहे जाने वाले अबू बशर का गांव है। तिफलू भाई ने पहले ही गांव के प्रधान को खबर कर दी थी। इसलिए जब हम पहुंचे तो सीधे अबू बशर के घर के दरवाजे के बाहर ही चारपाई बिछा दी गई थी। कुछ पल बाद ही हमें एक बुजुर्ग से मिलवाया गया। बताया गया कि ये बाकर साहब हैं अबू बशर के वालिद। उन्हें एक तरफ से फालिज ने मार रखा था। थोड़ी देर तक इधऱ-उधर की बात करने के बाद अबू बशर को उसके वालिद के जरिए जितना टटोल सकता था टटोलने लगा। मगर बातचीत के दरम्यान ही तभी एक ऐसा हादसा हुआ जिसे मैं अब भी जेहन से निकाल नहीं पा रहा हूं। बाकर साहब का का पीठ उनकी घऱ की तरफ था जबकि मेरा मुंह ठीक घर के सदर दरवाजे की तरफ। बातचीत के दौरान अचानक 14-15 साल का एक लड़का अबू बशर के घर का दरवाजा खोलता है और फिर बाहर निकलते ही फौरन दरवाजे के उसी तरह भिकड़ा कर बंद कर देता है। मैंने मुश्किल से बस पांच सेकेंड के लिए घर के अंदर का मंजर देखा होगा। और बस उसी मंजर ने मुझे घर के अंदर जाने को मजबूर कर दिया। लिहाजा कुछ देर तक इधऱ-उधर की बात करने के बाद मैंने इशारे से तिफलू भाई को अलग से बुलाया और अपनी ख्वाहिश जता दी- 'मैं बशर का घर अंदर से देखना चाहता हूं।'
फिर अगले ही मिनट मैं गुजरात ब्लास्ट के मास्टर माइंड और सिमी के सबसे खूंखार आतंकवादी अबू बशर के घर के अंदर था। दरवाजे से घुसते ही सामने एक ओसारा था। जिसके नीचे लकड़ी की एक चौकी पड़ी थी। चौकी के दो पांव को ईंटों से सहारा दिया गया था। चौकी के सिरहाने गुदड़ी जैसा बेहद पुराना बिस्तर पड़ा था। जबकि चौकी की बाईं तरफ बगैर गैस के खाली गैस स्टोव आठ ईंटों पर रखा हुआ था। स्टोव और ईंटों के बीच कुछ साबुत और अधजली लकड़ियां पड़ी थीं। वहीं बराबर में कालिख हो चुके पांच बर्तनों के बराबर में मिट्टी का एक घड़ा रखा था। घर में सिर्फ एक कमरा था। हम उस कमरे में भी देखना चाहते थे पर झिझक भी रहे थे कि कहीं अंदर घर की कोई लड़की ना हो। तिफलू भाई ने झिझक दूर की और कहा कि अंदर आ जाइए क्योंकि घर में सिर्फ अबू बशर की मां ही हैं। कमर या कूल्हे पर उन्हें कुछ ऐसी परेशानी है जिसकी वजह से वो चल फिर नहीं सकतीं। कमरे में एक उम्रदराज चारपाई पड़ी थी जिसपर एक मटमैला चादर बिछा था। कमरे को चारों तरफ से जब ध्यान से देखा तो लोहे के दो पुराने बक्से और एक ब्रीफकेस के अलावा अंदर कुछ नहीं था। हमें ये भी बताया गया कि घर में खाना बशर के दोनों छोटे भाई ही बनाते हैं इसके बाद हम घर से बाहर निकल आते हैं। बाहर निकलते-निकलते तिफलू भाई हमें बशर के घर के सदर दरवाजे पर लगा नीले रंग का एक निशान दिखाते हैं। ये निशान सरकार की तरफ से गांव के उन घरों के बाहर लगाया जाता है जो गरीबी की रेखा से नीचे होते हैं।
इसके बाद मैं और भी तमाम लोगों से मिला, बातें कीं.....पर ना मालूम क्यों अबू बशर का घर मेरा पीछा ही नहीं छोड़ रहा?

Saturday 4 October, 2008

एक क्राइम रिपोर्टर की कविता

किसी क्राइम रिपोर्टर की बात चलते ही आपके ज़ेहन में कैसी तस्वीर उभरती है? शायद किसी ऐसे इंसान की, जो रोज़-ब-रोज़ होनेवाली जुर्म की वारदातों को देख-देख कर ख़ुद भी पत्थर हो चुका हो। जिसकी पूरी ज़िंदगी और पूरी शख़्सियत ऐसी ही वारदातों के इर्द-गिर्द ही सिमट कर रह गई हो। और ज़ाहिर है कि ऐसे किसी इंसान से आप कम-से-कम कविता लिखने की उम्मीद तो नहीं कर सकते। वो भी दिल को छू लेनेवाली कविता। लेकिन मेरा दावा है कि मैं यहां आपकी ख़िदमत में जो कविता पेश कर रहा हूं, उसे पढ़ कर आप यकीनन अपनी सोच पर दोबारा सोचने को मजबूर हो जाएंगे। एक ऐसी कविता, जिसे किसी और ने नहीं, बल्कि हिंदुस्तान के सबसे नामचीन क्राइम रिपोर्टरों में से एक शम्स ताहिर ख़ान ने लिखी है।


तुमको मेरी परवाह नहीं है
क्या मेरा अल्लाह नहीं है
ज्यादा महंगे ख्वाब ना देना
इतनी मेरी तनख्वाह नहीं है
थोड़ी खुशियां पाल के रखना
ग़म की कोई थाह नहीं है
दर्द में अब भी दर्द है कायम
आह में पर वो आह नहीं है
अब शम्स मुश्किल है आगे
रस्ता तो है पर राह नहीं है

Thursday 2 October, 2008

अपनी ग़लती से मारी गईं सौम्या!

"सौम्या ज़रूरत से ज़्यादा एडवेंचर्स थीं। वो रात को अकेले निकलीं और इसीलिए उसका क़त्ल हो गया।" कुछ ऐसा ही कहा दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने। उस शीला दीक्षित ने, जो हर महीने-दो महीने में कोई-ना-कोई ऐसी ही अजीबोग़रीब और बेतुकी कमेंट कर विवादों की शुरुआत कर देती हैं। फिर चाहे वो दिल्ली से यूपी-बिहार वालों को बाहर भगाने की बात हो, ब्लू लाइन में सफ़र करने की बजाय पैदल चलना मुनासिब समझने की या फिर कुछ और... लगता है कि शीला जी ने अब अपनी और अपने सरकार की कामयाबियों की वजह से कम, बल्कि आपत्तिजनक बयानबाज़ी की वजह से ही ज़्यादा मशहूर होने की क़सम खा ली है।
मैं जिस मीडिया हाऊस में काम करता हूं, सौम्या भी वहीं काम करती थीं। उससे मेरी व्यक्तिगत तौर पर कोई मुलाक़ात तो नहीं थी, लेकिन जितना भी मैंने उसे जाना वो सिर्फ़ अच्छा ही अच्छा था। सौम्या घर से ऑफ़िस और ऑफ़िस से घर जानेवाली एक ऐसी सुशील लड़की थी, जिसकी चाहत हर मां-बाप को होगी। उस रात भी सौम्या ड्यूटी से वक़्त पर घर जाना चाहती थी। लेकिन मालेगांव और साबरकांठा में हुए धमाकों ने उसका रास्ता रोक लिया। उसे देर तक दफ़्तर में रुकना पड़ा और निकलते-निकलते रात के तीन बज गए। यकीनन, इतनी देर रात लड़कियों का कहीं भी बाहर निकलना बहुत ठीक नहीं होता है। अकेले में वो बदमाशों की सॉफ्ट टार्गेट होती हैं। लेकिन सौम्या की कहानी से इतना तो साफ़ है कि वो किसी एडवेंचर के लिए रात को नहीं घूम रही थी, बल्कि अपनी ड्यूटी से घर लौट रही थीं। लेकिन मुख्यमंत्री जी ने जैसा कहा उससे तो लगा मानों सौम्या देर रात किसी डिस्कोथेक से मौज-मस्ती करने के बाद लापरवाह लड़की की तरह सड़कों पर घूमने निकली थीं।
सच तो ये है कि कोई भी मां-बाप अपनी लड़की को देर रात तक बाहर रहने देना नहीं चाहता है। सौम्या के घरवाले भी उसे लेकर फ़िक्रमंद थे और इसलिए उन्होंने उसे फ़ोन भी किया था। लेकिन जो होना था, वो दिल्ली में बदमाशों के बेख़ौफ़ होने का नतीजा था। लेकिन अब शीला जी ने बात कही है... उसे सभी सकते में हैं। हो सकता है कि अब शीला जी ये तर्क दें कि उन्होंने ऐसा 'मदरली टोन' में कहा था, लेकिन अगर ऐसा भी था तो भी इस टिप्पणी के लिए ये सही वक़्त नहीं था। सोचिए, जिस घर में मातम पसरा हो, वहां मातमपुर्सी के लिए पहुंच कर अगर कोई मरनेवाले की ग़लती पर ही अपनी राय देने लगे, तो क्या होगा? शीला जी का बयान कुछ ऐसा ही था।
चलिए एक बार के लिए ये मान भी लिया जाए कि सौम्या ने देर रात अकेले निकल कर ग़लती की, तो भी क्या महज़ इस ग़लती के लिए उसका जो अंजाम हुआ, उसे जस्टिफ़ाई किया जाना चाहिए? वैसे तो हर राजनेता को अपने शासन में कभी कोई कमी या ग़लती दिखाई नहीं देती है। लेकिन शीला जी के इस बयान ने तो हद ही कर दी। फर्ज़ कीजिए कि सौम्या या उस जैसी किसी लड़की के बदले कोई मजबूत कद-काठी का मर्द ही सड़क पर अकेला जा रहा होता और हथियारबंद बदमाश उसे गोली मार देते, तो क्या वो सिर्फ़ लड़का होने की वजह से ही बच सकता था? इसका जवाब शायद शीला जी ही बेहतर दे सकती हैं।

Wednesday 1 October, 2008

ज़िंदगी का पीछा करते हादसे

इन दिनों छुट्टी पर घर जाने की तैयारी में हूं। छुट्टी में घर जाने की खुशी क्या होती है, ये वही जानता है... जो घर से दूर रहता है। मैं ऐसे ही लोगों में हूं। सालों से अपने घर और घरवालों से दूर यायावर की तरह जी रहा हूं। और सच पूछिए तो पूरा साल ही बस इसी इतंज़ार में कट जाता है कि कब मार्च और अक्टूबर का महीना आएगा और कब घर जाऊंगा? अक्टूबर इसलिए क्योंकि इन्हीं दिनों दशहरा होता है और एक बंगाली परिवार से होने के चलते दशहरा यानि 'दुर्गा पूजो' का मेरे लिए क्या मतलब है, ये आप समझ ही सकते हैं। मार्च में भी एक बार घर जाने की कोशिश करता हूं क्योंकि अक्टूबर के बाद मार्च आने में पांच महीने का वक़्त पार हो चुका होता है और इतने वक़्त में अपने बॉस से 10-15 दिनों की छुट्टी लेने का एक हक सा बन जाता है।
लेकिन सच पूछिए तो इस बार घर जाने की वैसी खुशी नहीं है, जैसी दूसरी बार होती है। अपने चारों ओर रोज़-ब-रोज़ होते हादसों ने जैसे मेरी ख़ुशियों पर ग्रहण लगा दिया है। कभी-कभी लगता है कि पूरी ज़िंदगी ही जैसे हादसों के हवाले होकर रह गई है। और लाख कोशिश के बावजूद दिल खोलकर खुश नहीं हो पाता हूं। कभी खुश होने भी लगता हूं तो अंदर से जैसे एक दूसरा सुप्रतिम मुझे झकझोर देता है। कहता है, "इतना खुश होने की ज़रूरत नहीं है, क्योंकि तुम्हारे पास मनाने को अभी लाखों ग़म हैं।"
अगस्त के महीने में मेरे एक दूर के रिश्ते के कज़न ने खुदकुशी कर ली। वो अपनी शादी से नाखुश था। वो शादी जिसे सिर्फ़ एक ही महीने हुए थे। अभी मैं इस ग़म को पीने की कोशिश कर ही रहा था कि पिछले महीने हुए एक और बड़े हादसे ने मुझे बुरी तरह झकझोर दिया। मेरी इकलौती चचेरी बहन, जो दिल की बहुत अच्छी थीं, गुज़र गईं। पहले दिन वो बीमार हुईं और दूसरे दिन हम सभी से दूर चली गईं। उन्हें सेप्टीसीमिया हुआ था। उस रोज़ जब मेरे बड़े भाई ने मुझे टेलीफ़ोन पर ये ख़बर सुनाई तो मुझे यकीन ही नहीं हुआ। सिर्फ़ इस बात पर यकीन करने के लिए मैंने अपने भाई साहब को कम से कम पांच बार फ़ोन किया होगा। ये तो रहे वो हादसे, जो मुझ पर या मेरे घरवालों पर गुज़रे। इन्हीं चंद महीनों में कभी बम धमाके और कभी क़त्ल-ओ-गारत की शक्ल में मैंने इतना कुछ देख लिया कि ये हादसे अब भी मेरा पीछा कर रहे हैं।
धमाकों के बाद सड़क पर लहूलुहान पड़े जिस्म, चीथड़ों में तब्दील होता... रहम की भीख मांगता इंसान, चारों ओर ख़ून ही ख़ून और फ़िज़ां में घुली बारुद की गंध ने जैसे मेरी रुटीन की ज़िंदगी मुझसे छीन ली है। और इस रुटीन लाइफ़ की 'नॉर्मलसी' को गंवाना बेहद बोझिल और घुटन भरा है। अभी कल की ही तो बात है... रोज़ की तरह जब मैं दफ़्तर पहुंचा, तो एक ऑफ़िशियल मेल ने मुझे अंदर से झकझोर दिया। मेल था, सड़क हादसे में मेरी एक सहकर्मी सौम्या की मौत का। अभी सभी लोग इस हादसे को ऊपरवाले की मर्ज़ी मान ही रहे थे कि तब तक ख़बर आई कि मेरी सौम्या की मौत सड़क हादसे में नहीं, बल्कि गोली मार दिए जाने की वजह से हुई। पोस्टमार्टम में उसके सिर से एक गोली निकली थी।
मैं जिस मीडिया हाउस में काम करता हूं, वो काफ़ी बड़ा है। इसीलिए सभी लोगों से बराबर मुलाक़ात नहीं है। मेरी सौम्या से भी कोई मुलाक़ात नहीं थी। लेकिन दफ़्तर में जब भी मैं उसे देखता, तो वो हमेशा हंसती और मुस्कुराती नज़र आती थी। हमारे यहां किसी के गुज़र जाने पर उसके बारे में सिर्फ़ अच्छा-अच्छा बोलने का रिवाज़ है। चाहे वो कैसा भी क्यों ना हो? लेकिन सौम्या ऐसी थी, जिसके बारे में जितना भी अच्छा बोला जाए, कम है। शायद इसीलिए जिस सौम्या को मैंने दो दिन पहले तक दफ़्तर में देखा था, आज उसी के क़त्ल की ख़बर लिखते हुए अजीब सा महसूस हो रहा था... एक बार तो ऐसा भी लगा कि सब छोड़ कर कहीं भाग जाऊं? लेकिन फिर सोचा कि भागकर जाऊंगा कहां? हादसे शायद मेरा पीछा करते हुए वहीं पहुंच जाएंगे।

Monday 29 September, 2008

अंकल जैसे लोग थे वो...

दहशतगर्दी क्या होती है, बच्चे का मालूम न था...
उसने तो बस कहा पुलिस से, अंकल जैसे लोग थे वो...

मगर मासूम संतोष पुलिस को अंकलों का हुलिया बताने के लिए ज़िंदा नहीं रहा। महरौली में हुए बम धमाकों ने एक बार फिर इंसानियत का सीना छलनी कर दिया। मौत किसी की भी हो, कैसी भी हो... दुखद ही होती है। लेकिन महरौली के इस्लाम नगर में रहनेवाले नौ साल के संतोष को दहशतगर्दों ने जैसी मौत दी, उससे दुखद मौत कोई और हो ही नहीं सकती। संतोष की उम्र ज़्यादा नहीं थी। लेकिन था तो वो इंसान का बच्चा। इसीलिए पैदा होते ही उसने जाने कहां से इंसानियत सीख ली। लेकिन एक रोज़ (27 सितंबर की दोपहर) इसी इंसानियत ने उसकी जान ले ली। अपने भाई के साथ बाज़ार में अंडे ख़रीदने पहुंचे संतोष ने देखा कि मोटरसाइकिल से गुज़रते दो 'अंकलों' का एक पैकेट अचानक रास्ते में गिर गया। जिस शहर के लोग अपने पड़ोसी को भी ठीक से नहीं जानते, उसी शहर का रहनेवाला संतोष यह देखकर ख़ुद को 'अंकलों' से अलग नहीं रख सका। ये मौत थी या फिर उस मासूम का सामाजिक सरोकार... संतोष ने दौड़ कर पालीथिन का पैकेट उठाया और अंकल-अंकल पुकारता हुआ मोटरसाइकिल के पीछे भागने लगा... मोटरसाइकिल पर गुज़र रहे 'अंकल' दरअसल दहशत के कारोबारी थे। 'अंकलों' की असलियत से नावाकिफ़ संतोष अनजाने में ही इंसानियत निभा रहा था... लेकिन इस पैकेट में हुए धमाके ने पलक झपकते ही उसे बेजान कर दिया। बम के कील और छर्रों से संतोष का जिस्म बुरी तरह बिंध चुका था... और साथ ही बिंध चुकी थी इंसानियत। धमाके के बाद आस-पास के लोग संतोष की मां को अस्पताल ले जा रहे थे। तब तक उसे संतोष के चले जाने का पता चल चुका था... वो पछाड़े खाकर रोती और बार-बार लड़खड़ाते हुए रास्ते में ही बेहोश हो जाती... अपने लाल के छिन जाने की ख़बर ने उसका सबकुछ छीन लिया था... उसका पति रिक्शा चलाता है और इसी एक कमाई से पूरा घर चलता है... वे ग़रीब तो थे, लेकिन उन्हें अपनी ज़िंदगी से कोई शिकायत नहीं थी... मगर, मासूम संतोष के इंसानियत निभाने की एक 'ग़लती' ने उनका सबकुछ ख़त्म कर दिया... संतोष की मां को देख कर लगा कि शायद ग़रीबों में संवेदनाओं की जड़ें भी ज़्यादा गहरी होती हैं... वो किसी अपने के चले जाने पर मातम करते वक़्त अपने आस-पास के माहौल या सोसायटी की ज़्यादा फ़िक्र नहीं करते... हिसाब लगाकर नहीं रोते... संतोष की मां को भी तब दुनिया में और किसी चीज़ की फ़िक्र नहीं थी...

Friday 26 September, 2008

क्या आप बिग बॉस को कुछ बताना चाहेंगे?

संभावना, बिग बॉस चाहते हैं कि आप कनफ़ेशन रूम में आएं... क्या आप घर के मौजूदा माहौल के बारे में बिग बॉस को कुछ बताना चाहते हैं?
हिंदुस्तानी टेलीविज़न के पर्दे पर गूंजती ये आवाज़ अब रोज़ की बात बन गई है। रात के दस बजते-बजते तकरीबन हर घर में कोई ना कोई बिग बॉस का 'सबऑर्डिनेट' उनके घर में चल रही धींगामुश्ती के मज़े लेने के लिए टेलीविज़न के सामने बैठ जाता है। और यकीन मानिए कि मेरा घर भी इससे अलग नहीं है। शायद मैं ख़ुद ही वो 'सबऑर्डिनेट' हूं जो बिग बॉस के घर में चल रही उथल-पुथल को रोज़ देखना और महसूसना चाहता हूं। लेकिन इसी चाहत के बीच कभी-कभी ये भी सोचता हूं कि आखिर बिग बॉस के बहाने हम क्या देख रहे हैं? छल-प्रपंच, निंदा, साज़िश और बैक स्टैबिंग के रोज़ाना बनते-गढ़ते नए प्रतिमान? सच पूछिए, तो जवाब हां में हैं और मेरा 'कन्फ़ेशन' ये है कि मैं भी इसमें शरीक हो गया हूं।
दरअसल, बिग बॉस के बहाने हम वो सबकुछ देख रहे हैं, जो तकरीबन हर दस में से नौ इंसान की असलियत है। वो असलियत जिसे शायद हम चाह कर भी कुबूल नहीं कर पाते। वो असलियत जो रोज़ाना नई 'निंदा रस' से सिंच कर ही पुष्ट होता है। और शायद इसी असलियत में बिग बॉस की काबिलियत यानि टीआरपी भी छिपी है।
अभी परसों की बात है, पंजाब से मेरे एक दोस्त ने रात के कोई साढ़े दस बजे मुझे फ़ोन किया। मेरे हैलो कहते ही वो बिग बॉस की शिकायत लेकर बैठ गया। उसका कहना था कि अब बिग बॉस के घर में अश्लीलता की सारी हदें पार हो गई हैं। राहुल महाजन कभी खुलेआम पायल रोहतगी को किस कर रहे हैं, तो कभी स्वीमिंग पूल में उन्हें आलिंगबद्ध किए तैर रहे हैं। मुझे उनकी बात समझने में देर नहीं हुई। क्योंकि चंद मिनटों पहले ही मैंने ख़ुद भी वो नज़ारा देखा था। गनीमत ये है कि अभी मेरे घर में कोई बच्चा नहीं है और इसलिए मुझे वो सीन देखने में कोई ज्यादा झिझक भी नहीं हुई। लेकिन जिस दोस्त ने मुझे फ़ोन किया था, उनके बेटे की उम्र कोई 10-12 साल की है... और 'निंदा रस' का मज़ा लेने के चक्कर में यकीनन उनके साथ-साथ उनके बेटे ने भी वो नज़ारा देख लिया होगा, जिसे बेटे के साथ देखते हुए मेरे दोस्त के पसीने छूट गए होंगे। नतीजा -- मुझे किया गया टेलीफ़ोन कॉल। मेरे दोस्त ने मुझसे (एक पत्रकार से) बिग बॉस के खिलाफ़ कोई ख़बर लिखने या दिखाने की गुज़ारिश की... लेकिन उनके तेवर से मैं ये बात ख़ूब समझ गया कि मेरे दोस्त की हालत भी उन जैसे पाठकों या दर्शकों की तरह है, जो अश्लीलता के खिलाफ़ झंडाबरदारी तो करते हैं, लेकिन मौका मिलते ही उसका मज़ा लेने से भी नहीं चूकते। बहरहाल, रात के साढ़े दस बजे मैं अपने इस दोस्त से ज़्यादा बात करने के मूड में नहीं था... दरअसल, लंबी बात करने से बिग बॉस के 'निंदा रस' के यूं ही बह जाने का डर सता रहा था। लिहाज़ा मैंने उनके हां में हां मिलाई और फिर से बिग बॉस के घर में दाखिल हो गया।

Thursday 25 September, 2008

बटला हाउस: क्या सच, क्या झूठ

बटला हाऊस में हुए एनकाउंटर को लेकर काफी दिनों से मन में कई बातें चल रही थीं। कुछ लिखने की इच्छा भी थी। लेकिन एक बेहद संवेदनशील मामले को सही तरीके से डील करने को लेकर मन में पैदा हो रही शंकाओं के चलते ऐसा करने में देर हो गई। बटला हाऊस पर जो कुछ भी लिख रहा हूं उसका मतलब किसी को सही या ग़लत साबित करना नहीं, बल्कि पूरे वाकये को लेकर उठ रहे उन तमाम सवालों का जवाब ढूंढ़ने की कोशिश भर करना है... जिन्हें ढूंढ़े बगैर ना तो पुलिस का काम मुकम्मल होगा और ना ही उन लोगों को तसल्ली मिलेगी, जिनकी नज़र में ये एनकाउंटर किसी भी दूसरे फ़र्ज़ी एनकाउंटर से थोड़ा भी अलग नहीं है।
उस रोज़ एनकाउंटर की ख़बर मिलते ही मैं बटला हाऊस पहुंचा था। चारों तरफ़ बेहद अफ़रातफ़री का माहौल था और सच पूछिए तो किसी को कुछ समझ में ही नहीं आ रहा था कि आखिर ये सब कैसे हुआ? पुलिस ने जिन्हें मारा, वो कौन थे? जिन्हें पकड़ा, वो कौन थे? इतने दुर्दांत आतंकवादी महीनों से पूरी आबादी के बीच कैसे छिपे थे? किसी को उनके बारे में पता क्यों नहीं चला? आदि-आदि। लेकिन शाम होते-होते फ़िज़ां में इस एनकाउंटर को लेकर भी सवाल खड़े किए जाने लगे। पुलिसवाले ये कह रहे थे कि आतंकवादियों की गोली से ज़ख्मी हुए इंस्पेक्टर मोहनचंद शर्मा की हालत गंभीर है। लेकिन यकीन मानिए ज़्यादातर लोगों को तब तक इंस्पेक्टर शर्मा की हालत गंभीर होने की बात पर ज़्यादा यकीन नहीं था। वजह ये कि लोगों ने इससे पहले हुए एनकाउंटरों में ये ख़ूब देखा था कि पुलिसवाले कितना और किस तरह घायल होते हैं। मगर, रात होते-होते जैसे ही इंस्पेक्टर शर्मा के गुज़र जाने की ख़बर आई, सभी सकते में आ गए। तब एक बार फिर इस बात पर यकीन करना मुश्किल था। लेकिन सच तो सच था। जब ये ख़बर न्यूज़ चैनलों की हैडलाइन बनी और हर किसी ने कह दिया कि इंस्पेक्टर शर्मा चले गए, तब दूसरों की तरह मुझे भी यकीन हो गया कि ये ख़बर सही है। और इसके साथ ही एनकाउंटर को लेकर उठाए जा रहे तमाम सवाल भी सतही से लगने लगे... इंस्पेक्टर शर्मा की शहादत के बाद एनकाउंटर को लेकर उठ रहे सवालों को सुनने की इच्छा भी नहीं हो रही थी... लेकिन वक़्त गुज़रा और धीरे-धीरे इन सवालों को शोर तेज़ होता गया।
रात गुज़री और दूसरे दिन सुबह मैं फिर से बटला हाऊस जा पहुंचा। आज माहौल बदला हुआ था। कल की अफ़रातफ़री के बाद आज वहां के लोगों के बीच एक आम राय कायम हो चुकी थी। राय ये कि एनकाउंटर बिल्कुल फ़र्ज़ी था और पुलिस ने बेगुनाह लड़कों को मौत के घाट उतार दिया। मुझे एक पढ़े-लिखे बुज़ुर्ग मिले, जिन्होंने इंग्लिश में कहा, "यू सी... मुस्लिम आर बिइंग टार्गेटेड इन दिस मैनर।" (कुछ और भी कहा, जिन्हें लिखना शायद ठीक नहीं होगा।) यकीन मानिए बड़ा अजीब सा लगा। इसी तरह कुछ नौजवान भी मज़हब की लाइन पर मीडिया को कोसने लगे। किसी ने मीडिया को पुलिस का भोंपू कहा, तो किसी ने आरएसएस का हथियार। वहां लोग सरकार, राजनेता, पुलिस, मीडिया सभी से नाराज़ थे। इस तरह की टिप्पणियों पर तो कुछ लोगों से मेरी मामूली बहस भी हुई। मैं सोच रहा था कि एनकाउंटर फ़र्ज़ी था या नहीं, ये तो अलहदा मसला है, लेकिन अगर मुस्लिमों की एक बड़ी आबादी में आज़ादी के इतने सालों बाद भी पूरी व्यवस्था के खिलाफ़ ऐसा घोर अविश्वास है, तो ये ज़रूर विचारणीय है। कहीं ना कहीं बटला हाऊस में उठ रहे सवालों में मौजूदा राजनीति का अक्स भी दिख रहा था। उस राजनीति का, जिसने लोगों को सिवाय वोट बैंक की तरह इस्तेमाल करने के उनका और कोई भला नहीं किया।
बहरहाल, लोगों का कहना था कि अगर वाकई एनकाउंटर सही था, तो फिर दो लड़के एल-18 की चौथे मंज़िल से कैसे भाग निकले? जबकि उस इमारत में आने-जाने के लिए सिर्फ़ एक ही सीढ़ी है। एनकाउंटर को फ़र्ज़ी करार दे रहे लोगों का तो यहां तक कहना था कि इंस्पेक्टर मोहनचंद शर्मा को किसी पुलिसवाले ने ही पीछे से गोली मार दी। किसी ने तर्क दिया कि अगर उनके कमरे से एके-47 जैसा हथियार बरामद हुआ, तो फिर उन लड़कों ने पुलिस पर गोलियां एके-47 की बजाय पिस्टल से क्यों चलाई?
इन सवालों की चर्चा मैंने कुछ पुलिस अफ़सरों से की और अपने कुछ साथियों से भी। जवाबी तर्क ये था कि जो लड़के भाग निकले, वे संयोग से पहले ही इमारत के नीचे थे और जब उन्होंने माजरा समझा, तो नीचे से ही खिसक लिए। ऐसा नहीं हुआ होगा, ये कोई दावे से नहीं कह सकता। लेकिन अगर पुलिस ये कहती है कि इंस्पेक्टर मोहनचंद शर्मा को वाकई आतंकवादियों की गोलियां लगीं और वे गोलियां उनके जिस्म को चीरती हुईं बाहर निकल गईं, तो पुलिस को अपने तर्क के हक में मजबूत दलील ज़रूर देनी चाहिए। उसे बताना चाहिए कि इंस्पेक्टर शर्मा को किसकी, कहां और कितनी गोलियां लगीं और ये गोलियां कहां गईं। इन गोलियों को जांच के लिए कहां भिजवाया गया। ये ज़रूरी इसलिए भी है क्योंकि अब एनकाउंटर के साथ-साथ इंस्पेक्टर शर्मा की शहादत को लेकर भी सवाल उठाए जाने लगे हैं। अगर, पुलिस मौके से बरामद हथियारों के साथ इंस्पेक्टर शर्मा के जिस्म में उतरी गोलियों का मिलान साबित नहीं कर पाती है, तो उसकी साख पर लगा सवाल शायद कभी हल्का नहीं हो सकेगा।
वैसे मेरे ख़्याल से अगर गोलियां इंस्पेक्टर शर्मा की पीठ या जिस्म के पिछले हिस्से पर लगी हों, आतिफ़ और उसके साथी के जिस्म पर गोलियों के अलावा मारपीट के दूसरे निशान भी मौजूद हों और एके-47 से गोलियां ना भी चलीं हों, तो भी महज़ इस बिनाह पर एनकाउंटर को फ़र्ज़ी करार देना ठीक नहीं हो सकता। गरज ये कि वहां सिक्वेंस ऑफ इंसीडैंट क्या था और एनकाउंटर से पहले ठीक क्या-क्या हुआ, ये बात या तो सिर्फ़ सीन ऑफ इंसीडैंट के रिकंस्ट्रक्शन के बाद कोई एक्सपर्ट, वहां (चौथी मंज़िल पर) मौजूद पुलिसवाले या फिर वहां से गिरफ्तार हुआ सैफ़ ही सही-सही बता सकता है। क्योंकि इमारत की बाहर से पूरा मंज़र देख कर खुद के चश्मदीद होने का दावा करनेवाले और घर बैठे किसी को सही और किसी को गलत साबित करनेवाले लोगों में मेरे हिसाब से कोई ज़्यादा फ़र्क नहीं है। वैसे इस एनकाउंटर को लेकर उठे सवाल और जारी बहस से एक बात तो साफ़ हो गई है कि अब लोग पहले की तरह सिर्फ़ पुलिस की बताई कहानी पर ही आसानी से ऐतबार करने को तैयार नहीं हैं... और ये वक़्त की ज़रूरत है कि पुलिस भी अपने काम-काज में पारदर्शिता लाए। ताकि एनकाउंटरों पर सवाल तो उठे, लेकिन अगर पुलिस सही है तो उसके पास इन सवालों का सही जवाब ज़रूर हो।

Tuesday 23 September, 2008

जब कांग्रेस ने लिया भाजपा से 'सबक'

हर बार की तरह इस बार भी बम धमाके हुए... दर्जनों लोग मारे गए और नेताओं ने मौका-ए-वारदात का मुआयना करने की रस्म पूरी कर ली। लेकिन इस बार हुए धमाके मुझे दूसरे धमाकों के मुकाबले थोड़े अलग लगे। मुझे लगा जैसे इस बार के धमाकों ने हमें पहले के मुकाबले थोड़ा ज़्यादा सजग और जागरूक बना दिया है... शायद इसलिए, क्योंकि ये धमाके देश के दिल दिल्ली (मीडिया हब) में हुए और मीडिया ने उसे भी किसी दूसरे बिकाऊ मुद्दे की तरह शानदार तरीक़े से लपक लिया।
बेंगलूर, अहमदाबाद और जयपुर जैसे शहरों में जिन बम धमाकों की ख़बरें जहां महज़ एक ही दिन में टेलीविजन के पर्दे से ग़ायब हो गई थीं, वहीं दिल्ली में धमाकों के बाद ख़बरों का जो सिलसिला शुरू हुआ, वो अब भी चल रहा है। (दूसरे शहरों में हुए बम धमाकों पर भी अगर ऐसी रिपोर्टिंग होती, तो शायद अच्छा रहता) ये और बात है कि इनमें से कई धमाकों में दिल्ली में हुए धमाकों के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा नुकसान हुआ था। और शायद यही वजह है कि इस बार हमारी निगाहें 'माननीय' गृहमंत्री 'जी' के कपड़ों पर भी चली गईं, जो उन्होंने सीरियल ब्लास्ट के डेढ़-दो घंटे के दौरान तीन बार बदले थे... यकीन मानिए, मंत्री 'जी' की इस हरकत मीडिया के सिवाय किसी को भी ज़्यादा हैरानी नहीं हुई होगी... क्योंकि सालों-साल ठगे जाने के बाद अब हिंदुस्तान का हर नागरिक इतना 'मैच्योर' हो चुका है कि वो नेताओं की इन हरकतों का बुरा नहीं मानता। और इसीलिए मैं इस बार 'माननीय' के कपड़ों की चर्चा करने की बजाय उनसे भी दो क़दम आगे बढ़ कर उनके पैरोकार, कांग्रेस के प्रवक्ता और क़ाबिल वकील अभिषेक मनु सिंघवी के बयानों की चर्चा करना चाहूंगा, जो उन्होंने शिवराज पाटील के निशाने पर आने के तुरंत बाद दिए थे।
सिंघवी ने कहा, 'भारतीय जनता पार्टी को धमाकों में भी राजनीति नज़र आ रही है। वे गृहमंत्री का इस्तीफ़ा मांग रहे हैं। लेकिन मैं पूछना चाहता हूं कि क्या अपनी किसी नाकामी पर कभी भाजपा के किसी नेता इस्तीफ़ा दिया है? जो पाटील देंगे?'
वाह! सिंघवी साहब, वाह! क्या नज़ीर पेश की है! पाटील साहब सिर्फ़ इसलिए इस्तीफ़ा नहीं देंगे क्योंकि इससे पहले भाजपा के किसी नेता ने अपनी भूल या नाकामी पर ऐसा नहीं किया। क्या सिंघवी साहब को अपनी ही पार्टी के बड़े नेताओं की कुर्बानियां याद नहीं हैं, जिन्होंने मामूली सी नाकामियों पर भी कुर्सी को लात मारने से गुरेज नहीं किया। लेकिन जनाब भला उन कुर्बानियों को क्यों याद करें? वे तो भाजपा के 'नए चरित्र' से सबक लेना चाहते हैं। वैसे लें भी क्यों ना? जब नया चरित्र ही उन्हें कुर्सी बचाने का फार्मूला देता हो, तो फिर अपने नेताओं को भला कौन याद करे?

Saturday 13 September, 2008

ख़ून-खराबा, धमाका और नेतागिरी

मेरे ब्लॉग पोस्ट पर इतनी सारी टिप्पणियों के लिए आज मैं सभी का शुक्रिया अदा करता हूं। सच पूछिए, तो ब्लॉग की दुनिया का नया खिलाड़ी हूं और जोश भी अभी बना हुआ है... आज यानि शनिवार 13 सितंबर को भी कुछ लिखना चाहता था... लेकिन दिल्ली में अचानक हुए सीरियल बम धमाकों ने रास्ता रोक लिया। लिहाज़ा... अभी जो सोच रहा हूं, वही लिख डालता हूं।
रिपोर्टिंग के लिए करोलबाग पहुंचा था... वहां का मंज़र दहलानेवाला था, लेकिन उससे भी ज्यादा दहलानेवाली बात थी लोगों की संवेदनहीनता... ख़बरों की आपाधापी में हम मीडियावाले तो पहले ही काफी हद तक संवेदनहीन हो चुके हैं... कुछ मजबूरी भी है... लेकिन, इस मौका ए वारदात पर मुझे आम लोग भी जितने संवेदनहीन नज़र आए, उसने मुझे अंदर से हिला दिया। मौके पर एक सज्जन पानी का जग लेकर घूम रहे थे। गोया, जल सेवा कर रहे हों, लेकिन यकीन मानिए उनका मकसद जलसेवा करना कम और टीवी के कैमरों के सामने आना ज्यादा था। इसके लिए उन्होंने कई बार धक्का मुक्की भी की। खैर, उनका इरादा जो भी हो... कुछ परेशानहाल लोगों की मदद ज़रूर हो गई।
कई लोग मौके पर नेतागिरी चमकाने में भी जुटे थे... लेकिन हद तो तब हो गई, जब एक विधायक जी का प्यादा मेरे पास एक ऑफ़र लेकर पहुंचा। प्यादा एक सांस में कह गया, "हमारे विधायक जी का इंटरव्यू ले लीजिए... अभी (फलां) चैनल में लाइव बोल रहे हैं, फिर मैं आपके पास ले आऊंगा। बड़े जुझारू नेता हैं। कभी आपका भी कोई काम हो तो ज़रूर कहिएगा।" मैंने उसे मना तो कर दिया, लेकिन जिस जगह पर कत्ले-आम मचा हो, लोग राहत के लिए तड़प रहे हों, लॉ एंड ऑर्डर कायम करने में पुलिस की सांस फूल रही हो, वहां ऐसे नेताओं और उनके प्यादों का ये चेहरा मुझे अंदर से हिला गया। अंत में बस इतना ही कहना चाहूंगा, ऐसे नेताओं से सावधान रहिएगा। कहीं ना कहीं पूरे तंत्र की इस नाकामी में इन नेताओं का भी बड़ा हाथ है।

Friday 12 September, 2008

ठाकरे, बाज़ार और दीदी की चुप्पी!

एक टीवी चैनल पर कुछ रोज़ पहले मैं लता मंगेशकर का इंटरव्यू देख रहा था। तमाम सवालों के बाद पत्रकार ने थोड़ा घबराते हुए पूछ ही लिया कि जया बच्चन और राज ठाकरे के बीच चल रहे विवाद पर आपकी क्या राय है? घबराते हुए शायद इसलिए... क्योंकि उसे लगा होगा कि दीदी कहीं इस सवाल से नाराज़ ना हो जाएं... भई, लता मंगेशकर हैं... कोई छोटी-मोटी हस्ती नहीं। पता नहीं कब मिज़ाज बदल जाए... ख़ैर, जानते हैं लता जी ने क्या जवाब दिया? "देखिए... ये सब पॉलिटिक्स है। मैं शुरू से ही इससे दूर रहीं हूं। इसलिए -- नो कमेंट्स!" आप शायद पूछेंगे कि इस जवाब में अजीब क्या है? लेकिन मुझे लगता है कि यही वो जवाब है, जिसने राज ठाकरे जैसे लोगों को इतना फूलने-फलने का मौका दिया। लता जी ने अपने जवाब से खुद को तो अलग कर लिया... लेकिन क्या ये ठीक नहीं होता कि वे राज ठाकरे की सोच और दबंगई की मज़म्मत करतीं? सही रास्ता दिखातीं और ये पाठ पढ़ातीं कि हिंदी के खिलाफ़ बोलना देशद्रोह से कम नहीं। क्या उन्हें नहीं चाहिए था कि वे जया बच्चन का सिर्फ़ इसलिए साथ देती कि जया ने हिंदी की वकालत की थी? वैसे राज की तरह कुछ लोग शायद जया बच्चन के ताज़े बयान में भी मराठी विद्वेष ढूंढ लेंगे, लेकिन मुझे लगता है कि जया बच्चन का बयान सौ फ़ीसदी मर्यादित था और उन्होंने ऐसी कोई बात नहीं कही थी, जिससे मराठियों की मर्यादा को चोट पहुंची हो। फर्ज़ कीजिए कि अगर लता मंगेशकर की तरह इस मुल्क की तमाम बड़ी हस्तियां राज ठाकरे को उनके नज़रिए पर लानत भेजती, तो क्या इससे राज ठाकरे का हौसला थोड़ा कम नहीं होता? कुछ लोग शायद ये कहें कि ऐसा करने से राज ठाकरे जैसे लोगों की अहमियत बढ़ जाएगी, लेकिन क्या ऐसा नहीं लगता कि ऐसा नहीं करने से राज ठाकरे जैसे लोगों की मनमानी को प्रश्रय मिल जाएगा। राज इतने भी छोटे नहीं कि उनकी तमाम हरकतों की अनदेखी कर जाए... एक बात और, पूरी दुनिया ने इस विवाद को बेशक जया बच्चन बनाम राज ठाकरे का नाम दे दिया। लेकिन क्या बॉलीवुड के उन सितारों को इस मामले पर एकजुट हो कर राज ठाकरे को जवाब नहीं देना चाहिए था, जो रोटी तो हिंदी की खाते हैं... लेकिन जीते 'इंग्लिश वर्ल्ड' में हैं। वैसे बॉलीवुड से शायद कुछ उम्मीद करना भी बेकार है। जब पूरा बच्चन परिवार ही बिना किसी गलती से राज ठाकरे से माफ़ी मांगता रहा हो, तो दूसरों से क्या उम्मीद कर सकते हैं? दरअसल ये बाज़ार ही है, जो सबको चला रहा है। बाज़ार में अपनी दुकान चलाने के लिए राज ज़हर उगल रहे हैं और बाज़ार में अपनी फ़िल्म चलाने के लिए बच्चन परिवार माफ़ी मांग रहा है... शायद बाज़ार के लिए ही लता दीदी जैसी हस्तियां भी चुप रह जाती हैं।

Thursday 11 September, 2008

पहली बार

नमस्कार, पहली बार अपने ब्लॉग के लिए कुछ लिखते हुए काफी उलझन में हूं। दरअसल, मन में एक साथ इतनी बातें और इतने ख़्याल आ रहे हैं कि कुछ समझ में नहीं आ रहा। लिहाज़ा, फ़िलहाल ख़ुद को रोक रहा हूं। जल्द ही फिर हाज़िर होऊंगा।