Monday 29 September, 2008

अंकल जैसे लोग थे वो...

दहशतगर्दी क्या होती है, बच्चे का मालूम न था...
उसने तो बस कहा पुलिस से, अंकल जैसे लोग थे वो...

मगर मासूम संतोष पुलिस को अंकलों का हुलिया बताने के लिए ज़िंदा नहीं रहा। महरौली में हुए बम धमाकों ने एक बार फिर इंसानियत का सीना छलनी कर दिया। मौत किसी की भी हो, कैसी भी हो... दुखद ही होती है। लेकिन महरौली के इस्लाम नगर में रहनेवाले नौ साल के संतोष को दहशतगर्दों ने जैसी मौत दी, उससे दुखद मौत कोई और हो ही नहीं सकती। संतोष की उम्र ज़्यादा नहीं थी। लेकिन था तो वो इंसान का बच्चा। इसीलिए पैदा होते ही उसने जाने कहां से इंसानियत सीख ली। लेकिन एक रोज़ (27 सितंबर की दोपहर) इसी इंसानियत ने उसकी जान ले ली। अपने भाई के साथ बाज़ार में अंडे ख़रीदने पहुंचे संतोष ने देखा कि मोटरसाइकिल से गुज़रते दो 'अंकलों' का एक पैकेट अचानक रास्ते में गिर गया। जिस शहर के लोग अपने पड़ोसी को भी ठीक से नहीं जानते, उसी शहर का रहनेवाला संतोष यह देखकर ख़ुद को 'अंकलों' से अलग नहीं रख सका। ये मौत थी या फिर उस मासूम का सामाजिक सरोकार... संतोष ने दौड़ कर पालीथिन का पैकेट उठाया और अंकल-अंकल पुकारता हुआ मोटरसाइकिल के पीछे भागने लगा... मोटरसाइकिल पर गुज़र रहे 'अंकल' दरअसल दहशत के कारोबारी थे। 'अंकलों' की असलियत से नावाकिफ़ संतोष अनजाने में ही इंसानियत निभा रहा था... लेकिन इस पैकेट में हुए धमाके ने पलक झपकते ही उसे बेजान कर दिया। बम के कील और छर्रों से संतोष का जिस्म बुरी तरह बिंध चुका था... और साथ ही बिंध चुकी थी इंसानियत। धमाके के बाद आस-पास के लोग संतोष की मां को अस्पताल ले जा रहे थे। तब तक उसे संतोष के चले जाने का पता चल चुका था... वो पछाड़े खाकर रोती और बार-बार लड़खड़ाते हुए रास्ते में ही बेहोश हो जाती... अपने लाल के छिन जाने की ख़बर ने उसका सबकुछ छीन लिया था... उसका पति रिक्शा चलाता है और इसी एक कमाई से पूरा घर चलता है... वे ग़रीब तो थे, लेकिन उन्हें अपनी ज़िंदगी से कोई शिकायत नहीं थी... मगर, मासूम संतोष के इंसानियत निभाने की एक 'ग़लती' ने उनका सबकुछ ख़त्म कर दिया... संतोष की मां को देख कर लगा कि शायद ग़रीबों में संवेदनाओं की जड़ें भी ज़्यादा गहरी होती हैं... वो किसी अपने के चले जाने पर मातम करते वक़्त अपने आस-पास के माहौल या सोसायटी की ज़्यादा फ़िक्र नहीं करते... हिसाब लगाकर नहीं रोते... संतोष की मां को भी तब दुनिया में और किसी चीज़ की फ़िक्र नहीं थी...

Friday 26 September, 2008

क्या आप बिग बॉस को कुछ बताना चाहेंगे?

संभावना, बिग बॉस चाहते हैं कि आप कनफ़ेशन रूम में आएं... क्या आप घर के मौजूदा माहौल के बारे में बिग बॉस को कुछ बताना चाहते हैं?
हिंदुस्तानी टेलीविज़न के पर्दे पर गूंजती ये आवाज़ अब रोज़ की बात बन गई है। रात के दस बजते-बजते तकरीबन हर घर में कोई ना कोई बिग बॉस का 'सबऑर्डिनेट' उनके घर में चल रही धींगामुश्ती के मज़े लेने के लिए टेलीविज़न के सामने बैठ जाता है। और यकीन मानिए कि मेरा घर भी इससे अलग नहीं है। शायद मैं ख़ुद ही वो 'सबऑर्डिनेट' हूं जो बिग बॉस के घर में चल रही उथल-पुथल को रोज़ देखना और महसूसना चाहता हूं। लेकिन इसी चाहत के बीच कभी-कभी ये भी सोचता हूं कि आखिर बिग बॉस के बहाने हम क्या देख रहे हैं? छल-प्रपंच, निंदा, साज़िश और बैक स्टैबिंग के रोज़ाना बनते-गढ़ते नए प्रतिमान? सच पूछिए, तो जवाब हां में हैं और मेरा 'कन्फ़ेशन' ये है कि मैं भी इसमें शरीक हो गया हूं।
दरअसल, बिग बॉस के बहाने हम वो सबकुछ देख रहे हैं, जो तकरीबन हर दस में से नौ इंसान की असलियत है। वो असलियत जिसे शायद हम चाह कर भी कुबूल नहीं कर पाते। वो असलियत जो रोज़ाना नई 'निंदा रस' से सिंच कर ही पुष्ट होता है। और शायद इसी असलियत में बिग बॉस की काबिलियत यानि टीआरपी भी छिपी है।
अभी परसों की बात है, पंजाब से मेरे एक दोस्त ने रात के कोई साढ़े दस बजे मुझे फ़ोन किया। मेरे हैलो कहते ही वो बिग बॉस की शिकायत लेकर बैठ गया। उसका कहना था कि अब बिग बॉस के घर में अश्लीलता की सारी हदें पार हो गई हैं। राहुल महाजन कभी खुलेआम पायल रोहतगी को किस कर रहे हैं, तो कभी स्वीमिंग पूल में उन्हें आलिंगबद्ध किए तैर रहे हैं। मुझे उनकी बात समझने में देर नहीं हुई। क्योंकि चंद मिनटों पहले ही मैंने ख़ुद भी वो नज़ारा देखा था। गनीमत ये है कि अभी मेरे घर में कोई बच्चा नहीं है और इसलिए मुझे वो सीन देखने में कोई ज्यादा झिझक भी नहीं हुई। लेकिन जिस दोस्त ने मुझे फ़ोन किया था, उनके बेटे की उम्र कोई 10-12 साल की है... और 'निंदा रस' का मज़ा लेने के चक्कर में यकीनन उनके साथ-साथ उनके बेटे ने भी वो नज़ारा देख लिया होगा, जिसे बेटे के साथ देखते हुए मेरे दोस्त के पसीने छूट गए होंगे। नतीजा -- मुझे किया गया टेलीफ़ोन कॉल। मेरे दोस्त ने मुझसे (एक पत्रकार से) बिग बॉस के खिलाफ़ कोई ख़बर लिखने या दिखाने की गुज़ारिश की... लेकिन उनके तेवर से मैं ये बात ख़ूब समझ गया कि मेरे दोस्त की हालत भी उन जैसे पाठकों या दर्शकों की तरह है, जो अश्लीलता के खिलाफ़ झंडाबरदारी तो करते हैं, लेकिन मौका मिलते ही उसका मज़ा लेने से भी नहीं चूकते। बहरहाल, रात के साढ़े दस बजे मैं अपने इस दोस्त से ज़्यादा बात करने के मूड में नहीं था... दरअसल, लंबी बात करने से बिग बॉस के 'निंदा रस' के यूं ही बह जाने का डर सता रहा था। लिहाज़ा मैंने उनके हां में हां मिलाई और फिर से बिग बॉस के घर में दाखिल हो गया।

Thursday 25 September, 2008

बटला हाउस: क्या सच, क्या झूठ

बटला हाऊस में हुए एनकाउंटर को लेकर काफी दिनों से मन में कई बातें चल रही थीं। कुछ लिखने की इच्छा भी थी। लेकिन एक बेहद संवेदनशील मामले को सही तरीके से डील करने को लेकर मन में पैदा हो रही शंकाओं के चलते ऐसा करने में देर हो गई। बटला हाऊस पर जो कुछ भी लिख रहा हूं उसका मतलब किसी को सही या ग़लत साबित करना नहीं, बल्कि पूरे वाकये को लेकर उठ रहे उन तमाम सवालों का जवाब ढूंढ़ने की कोशिश भर करना है... जिन्हें ढूंढ़े बगैर ना तो पुलिस का काम मुकम्मल होगा और ना ही उन लोगों को तसल्ली मिलेगी, जिनकी नज़र में ये एनकाउंटर किसी भी दूसरे फ़र्ज़ी एनकाउंटर से थोड़ा भी अलग नहीं है।
उस रोज़ एनकाउंटर की ख़बर मिलते ही मैं बटला हाऊस पहुंचा था। चारों तरफ़ बेहद अफ़रातफ़री का माहौल था और सच पूछिए तो किसी को कुछ समझ में ही नहीं आ रहा था कि आखिर ये सब कैसे हुआ? पुलिस ने जिन्हें मारा, वो कौन थे? जिन्हें पकड़ा, वो कौन थे? इतने दुर्दांत आतंकवादी महीनों से पूरी आबादी के बीच कैसे छिपे थे? किसी को उनके बारे में पता क्यों नहीं चला? आदि-आदि। लेकिन शाम होते-होते फ़िज़ां में इस एनकाउंटर को लेकर भी सवाल खड़े किए जाने लगे। पुलिसवाले ये कह रहे थे कि आतंकवादियों की गोली से ज़ख्मी हुए इंस्पेक्टर मोहनचंद शर्मा की हालत गंभीर है। लेकिन यकीन मानिए ज़्यादातर लोगों को तब तक इंस्पेक्टर शर्मा की हालत गंभीर होने की बात पर ज़्यादा यकीन नहीं था। वजह ये कि लोगों ने इससे पहले हुए एनकाउंटरों में ये ख़ूब देखा था कि पुलिसवाले कितना और किस तरह घायल होते हैं। मगर, रात होते-होते जैसे ही इंस्पेक्टर शर्मा के गुज़र जाने की ख़बर आई, सभी सकते में आ गए। तब एक बार फिर इस बात पर यकीन करना मुश्किल था। लेकिन सच तो सच था। जब ये ख़बर न्यूज़ चैनलों की हैडलाइन बनी और हर किसी ने कह दिया कि इंस्पेक्टर शर्मा चले गए, तब दूसरों की तरह मुझे भी यकीन हो गया कि ये ख़बर सही है। और इसके साथ ही एनकाउंटर को लेकर उठाए जा रहे तमाम सवाल भी सतही से लगने लगे... इंस्पेक्टर शर्मा की शहादत के बाद एनकाउंटर को लेकर उठ रहे सवालों को सुनने की इच्छा भी नहीं हो रही थी... लेकिन वक़्त गुज़रा और धीरे-धीरे इन सवालों को शोर तेज़ होता गया।
रात गुज़री और दूसरे दिन सुबह मैं फिर से बटला हाऊस जा पहुंचा। आज माहौल बदला हुआ था। कल की अफ़रातफ़री के बाद आज वहां के लोगों के बीच एक आम राय कायम हो चुकी थी। राय ये कि एनकाउंटर बिल्कुल फ़र्ज़ी था और पुलिस ने बेगुनाह लड़कों को मौत के घाट उतार दिया। मुझे एक पढ़े-लिखे बुज़ुर्ग मिले, जिन्होंने इंग्लिश में कहा, "यू सी... मुस्लिम आर बिइंग टार्गेटेड इन दिस मैनर।" (कुछ और भी कहा, जिन्हें लिखना शायद ठीक नहीं होगा।) यकीन मानिए बड़ा अजीब सा लगा। इसी तरह कुछ नौजवान भी मज़हब की लाइन पर मीडिया को कोसने लगे। किसी ने मीडिया को पुलिस का भोंपू कहा, तो किसी ने आरएसएस का हथियार। वहां लोग सरकार, राजनेता, पुलिस, मीडिया सभी से नाराज़ थे। इस तरह की टिप्पणियों पर तो कुछ लोगों से मेरी मामूली बहस भी हुई। मैं सोच रहा था कि एनकाउंटर फ़र्ज़ी था या नहीं, ये तो अलहदा मसला है, लेकिन अगर मुस्लिमों की एक बड़ी आबादी में आज़ादी के इतने सालों बाद भी पूरी व्यवस्था के खिलाफ़ ऐसा घोर अविश्वास है, तो ये ज़रूर विचारणीय है। कहीं ना कहीं बटला हाऊस में उठ रहे सवालों में मौजूदा राजनीति का अक्स भी दिख रहा था। उस राजनीति का, जिसने लोगों को सिवाय वोट बैंक की तरह इस्तेमाल करने के उनका और कोई भला नहीं किया।
बहरहाल, लोगों का कहना था कि अगर वाकई एनकाउंटर सही था, तो फिर दो लड़के एल-18 की चौथे मंज़िल से कैसे भाग निकले? जबकि उस इमारत में आने-जाने के लिए सिर्फ़ एक ही सीढ़ी है। एनकाउंटर को फ़र्ज़ी करार दे रहे लोगों का तो यहां तक कहना था कि इंस्पेक्टर मोहनचंद शर्मा को किसी पुलिसवाले ने ही पीछे से गोली मार दी। किसी ने तर्क दिया कि अगर उनके कमरे से एके-47 जैसा हथियार बरामद हुआ, तो फिर उन लड़कों ने पुलिस पर गोलियां एके-47 की बजाय पिस्टल से क्यों चलाई?
इन सवालों की चर्चा मैंने कुछ पुलिस अफ़सरों से की और अपने कुछ साथियों से भी। जवाबी तर्क ये था कि जो लड़के भाग निकले, वे संयोग से पहले ही इमारत के नीचे थे और जब उन्होंने माजरा समझा, तो नीचे से ही खिसक लिए। ऐसा नहीं हुआ होगा, ये कोई दावे से नहीं कह सकता। लेकिन अगर पुलिस ये कहती है कि इंस्पेक्टर मोहनचंद शर्मा को वाकई आतंकवादियों की गोलियां लगीं और वे गोलियां उनके जिस्म को चीरती हुईं बाहर निकल गईं, तो पुलिस को अपने तर्क के हक में मजबूत दलील ज़रूर देनी चाहिए। उसे बताना चाहिए कि इंस्पेक्टर शर्मा को किसकी, कहां और कितनी गोलियां लगीं और ये गोलियां कहां गईं। इन गोलियों को जांच के लिए कहां भिजवाया गया। ये ज़रूरी इसलिए भी है क्योंकि अब एनकाउंटर के साथ-साथ इंस्पेक्टर शर्मा की शहादत को लेकर भी सवाल उठाए जाने लगे हैं। अगर, पुलिस मौके से बरामद हथियारों के साथ इंस्पेक्टर शर्मा के जिस्म में उतरी गोलियों का मिलान साबित नहीं कर पाती है, तो उसकी साख पर लगा सवाल शायद कभी हल्का नहीं हो सकेगा।
वैसे मेरे ख़्याल से अगर गोलियां इंस्पेक्टर शर्मा की पीठ या जिस्म के पिछले हिस्से पर लगी हों, आतिफ़ और उसके साथी के जिस्म पर गोलियों के अलावा मारपीट के दूसरे निशान भी मौजूद हों और एके-47 से गोलियां ना भी चलीं हों, तो भी महज़ इस बिनाह पर एनकाउंटर को फ़र्ज़ी करार देना ठीक नहीं हो सकता। गरज ये कि वहां सिक्वेंस ऑफ इंसीडैंट क्या था और एनकाउंटर से पहले ठीक क्या-क्या हुआ, ये बात या तो सिर्फ़ सीन ऑफ इंसीडैंट के रिकंस्ट्रक्शन के बाद कोई एक्सपर्ट, वहां (चौथी मंज़िल पर) मौजूद पुलिसवाले या फिर वहां से गिरफ्तार हुआ सैफ़ ही सही-सही बता सकता है। क्योंकि इमारत की बाहर से पूरा मंज़र देख कर खुद के चश्मदीद होने का दावा करनेवाले और घर बैठे किसी को सही और किसी को गलत साबित करनेवाले लोगों में मेरे हिसाब से कोई ज़्यादा फ़र्क नहीं है। वैसे इस एनकाउंटर को लेकर उठे सवाल और जारी बहस से एक बात तो साफ़ हो गई है कि अब लोग पहले की तरह सिर्फ़ पुलिस की बताई कहानी पर ही आसानी से ऐतबार करने को तैयार नहीं हैं... और ये वक़्त की ज़रूरत है कि पुलिस भी अपने काम-काज में पारदर्शिता लाए। ताकि एनकाउंटरों पर सवाल तो उठे, लेकिन अगर पुलिस सही है तो उसके पास इन सवालों का सही जवाब ज़रूर हो।

Tuesday 23 September, 2008

जब कांग्रेस ने लिया भाजपा से 'सबक'

हर बार की तरह इस बार भी बम धमाके हुए... दर्जनों लोग मारे गए और नेताओं ने मौका-ए-वारदात का मुआयना करने की रस्म पूरी कर ली। लेकिन इस बार हुए धमाके मुझे दूसरे धमाकों के मुकाबले थोड़े अलग लगे। मुझे लगा जैसे इस बार के धमाकों ने हमें पहले के मुकाबले थोड़ा ज़्यादा सजग और जागरूक बना दिया है... शायद इसलिए, क्योंकि ये धमाके देश के दिल दिल्ली (मीडिया हब) में हुए और मीडिया ने उसे भी किसी दूसरे बिकाऊ मुद्दे की तरह शानदार तरीक़े से लपक लिया।
बेंगलूर, अहमदाबाद और जयपुर जैसे शहरों में जिन बम धमाकों की ख़बरें जहां महज़ एक ही दिन में टेलीविजन के पर्दे से ग़ायब हो गई थीं, वहीं दिल्ली में धमाकों के बाद ख़बरों का जो सिलसिला शुरू हुआ, वो अब भी चल रहा है। (दूसरे शहरों में हुए बम धमाकों पर भी अगर ऐसी रिपोर्टिंग होती, तो शायद अच्छा रहता) ये और बात है कि इनमें से कई धमाकों में दिल्ली में हुए धमाकों के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा नुकसान हुआ था। और शायद यही वजह है कि इस बार हमारी निगाहें 'माननीय' गृहमंत्री 'जी' के कपड़ों पर भी चली गईं, जो उन्होंने सीरियल ब्लास्ट के डेढ़-दो घंटे के दौरान तीन बार बदले थे... यकीन मानिए, मंत्री 'जी' की इस हरकत मीडिया के सिवाय किसी को भी ज़्यादा हैरानी नहीं हुई होगी... क्योंकि सालों-साल ठगे जाने के बाद अब हिंदुस्तान का हर नागरिक इतना 'मैच्योर' हो चुका है कि वो नेताओं की इन हरकतों का बुरा नहीं मानता। और इसीलिए मैं इस बार 'माननीय' के कपड़ों की चर्चा करने की बजाय उनसे भी दो क़दम आगे बढ़ कर उनके पैरोकार, कांग्रेस के प्रवक्ता और क़ाबिल वकील अभिषेक मनु सिंघवी के बयानों की चर्चा करना चाहूंगा, जो उन्होंने शिवराज पाटील के निशाने पर आने के तुरंत बाद दिए थे।
सिंघवी ने कहा, 'भारतीय जनता पार्टी को धमाकों में भी राजनीति नज़र आ रही है। वे गृहमंत्री का इस्तीफ़ा मांग रहे हैं। लेकिन मैं पूछना चाहता हूं कि क्या अपनी किसी नाकामी पर कभी भाजपा के किसी नेता इस्तीफ़ा दिया है? जो पाटील देंगे?'
वाह! सिंघवी साहब, वाह! क्या नज़ीर पेश की है! पाटील साहब सिर्फ़ इसलिए इस्तीफ़ा नहीं देंगे क्योंकि इससे पहले भाजपा के किसी नेता ने अपनी भूल या नाकामी पर ऐसा नहीं किया। क्या सिंघवी साहब को अपनी ही पार्टी के बड़े नेताओं की कुर्बानियां याद नहीं हैं, जिन्होंने मामूली सी नाकामियों पर भी कुर्सी को लात मारने से गुरेज नहीं किया। लेकिन जनाब भला उन कुर्बानियों को क्यों याद करें? वे तो भाजपा के 'नए चरित्र' से सबक लेना चाहते हैं। वैसे लें भी क्यों ना? जब नया चरित्र ही उन्हें कुर्सी बचाने का फार्मूला देता हो, तो फिर अपने नेताओं को भला कौन याद करे?

Saturday 13 September, 2008

ख़ून-खराबा, धमाका और नेतागिरी

मेरे ब्लॉग पोस्ट पर इतनी सारी टिप्पणियों के लिए आज मैं सभी का शुक्रिया अदा करता हूं। सच पूछिए, तो ब्लॉग की दुनिया का नया खिलाड़ी हूं और जोश भी अभी बना हुआ है... आज यानि शनिवार 13 सितंबर को भी कुछ लिखना चाहता था... लेकिन दिल्ली में अचानक हुए सीरियल बम धमाकों ने रास्ता रोक लिया। लिहाज़ा... अभी जो सोच रहा हूं, वही लिख डालता हूं।
रिपोर्टिंग के लिए करोलबाग पहुंचा था... वहां का मंज़र दहलानेवाला था, लेकिन उससे भी ज्यादा दहलानेवाली बात थी लोगों की संवेदनहीनता... ख़बरों की आपाधापी में हम मीडियावाले तो पहले ही काफी हद तक संवेदनहीन हो चुके हैं... कुछ मजबूरी भी है... लेकिन, इस मौका ए वारदात पर मुझे आम लोग भी जितने संवेदनहीन नज़र आए, उसने मुझे अंदर से हिला दिया। मौके पर एक सज्जन पानी का जग लेकर घूम रहे थे। गोया, जल सेवा कर रहे हों, लेकिन यकीन मानिए उनका मकसद जलसेवा करना कम और टीवी के कैमरों के सामने आना ज्यादा था। इसके लिए उन्होंने कई बार धक्का मुक्की भी की। खैर, उनका इरादा जो भी हो... कुछ परेशानहाल लोगों की मदद ज़रूर हो गई।
कई लोग मौके पर नेतागिरी चमकाने में भी जुटे थे... लेकिन हद तो तब हो गई, जब एक विधायक जी का प्यादा मेरे पास एक ऑफ़र लेकर पहुंचा। प्यादा एक सांस में कह गया, "हमारे विधायक जी का इंटरव्यू ले लीजिए... अभी (फलां) चैनल में लाइव बोल रहे हैं, फिर मैं आपके पास ले आऊंगा। बड़े जुझारू नेता हैं। कभी आपका भी कोई काम हो तो ज़रूर कहिएगा।" मैंने उसे मना तो कर दिया, लेकिन जिस जगह पर कत्ले-आम मचा हो, लोग राहत के लिए तड़प रहे हों, लॉ एंड ऑर्डर कायम करने में पुलिस की सांस फूल रही हो, वहां ऐसे नेताओं और उनके प्यादों का ये चेहरा मुझे अंदर से हिला गया। अंत में बस इतना ही कहना चाहूंगा, ऐसे नेताओं से सावधान रहिएगा। कहीं ना कहीं पूरे तंत्र की इस नाकामी में इन नेताओं का भी बड़ा हाथ है।

Friday 12 September, 2008

ठाकरे, बाज़ार और दीदी की चुप्पी!

एक टीवी चैनल पर कुछ रोज़ पहले मैं लता मंगेशकर का इंटरव्यू देख रहा था। तमाम सवालों के बाद पत्रकार ने थोड़ा घबराते हुए पूछ ही लिया कि जया बच्चन और राज ठाकरे के बीच चल रहे विवाद पर आपकी क्या राय है? घबराते हुए शायद इसलिए... क्योंकि उसे लगा होगा कि दीदी कहीं इस सवाल से नाराज़ ना हो जाएं... भई, लता मंगेशकर हैं... कोई छोटी-मोटी हस्ती नहीं। पता नहीं कब मिज़ाज बदल जाए... ख़ैर, जानते हैं लता जी ने क्या जवाब दिया? "देखिए... ये सब पॉलिटिक्स है। मैं शुरू से ही इससे दूर रहीं हूं। इसलिए -- नो कमेंट्स!" आप शायद पूछेंगे कि इस जवाब में अजीब क्या है? लेकिन मुझे लगता है कि यही वो जवाब है, जिसने राज ठाकरे जैसे लोगों को इतना फूलने-फलने का मौका दिया। लता जी ने अपने जवाब से खुद को तो अलग कर लिया... लेकिन क्या ये ठीक नहीं होता कि वे राज ठाकरे की सोच और दबंगई की मज़म्मत करतीं? सही रास्ता दिखातीं और ये पाठ पढ़ातीं कि हिंदी के खिलाफ़ बोलना देशद्रोह से कम नहीं। क्या उन्हें नहीं चाहिए था कि वे जया बच्चन का सिर्फ़ इसलिए साथ देती कि जया ने हिंदी की वकालत की थी? वैसे राज की तरह कुछ लोग शायद जया बच्चन के ताज़े बयान में भी मराठी विद्वेष ढूंढ लेंगे, लेकिन मुझे लगता है कि जया बच्चन का बयान सौ फ़ीसदी मर्यादित था और उन्होंने ऐसी कोई बात नहीं कही थी, जिससे मराठियों की मर्यादा को चोट पहुंची हो। फर्ज़ कीजिए कि अगर लता मंगेशकर की तरह इस मुल्क की तमाम बड़ी हस्तियां राज ठाकरे को उनके नज़रिए पर लानत भेजती, तो क्या इससे राज ठाकरे का हौसला थोड़ा कम नहीं होता? कुछ लोग शायद ये कहें कि ऐसा करने से राज ठाकरे जैसे लोगों की अहमियत बढ़ जाएगी, लेकिन क्या ऐसा नहीं लगता कि ऐसा नहीं करने से राज ठाकरे जैसे लोगों की मनमानी को प्रश्रय मिल जाएगा। राज इतने भी छोटे नहीं कि उनकी तमाम हरकतों की अनदेखी कर जाए... एक बात और, पूरी दुनिया ने इस विवाद को बेशक जया बच्चन बनाम राज ठाकरे का नाम दे दिया। लेकिन क्या बॉलीवुड के उन सितारों को इस मामले पर एकजुट हो कर राज ठाकरे को जवाब नहीं देना चाहिए था, जो रोटी तो हिंदी की खाते हैं... लेकिन जीते 'इंग्लिश वर्ल्ड' में हैं। वैसे बॉलीवुड से शायद कुछ उम्मीद करना भी बेकार है। जब पूरा बच्चन परिवार ही बिना किसी गलती से राज ठाकरे से माफ़ी मांगता रहा हो, तो दूसरों से क्या उम्मीद कर सकते हैं? दरअसल ये बाज़ार ही है, जो सबको चला रहा है। बाज़ार में अपनी दुकान चलाने के लिए राज ज़हर उगल रहे हैं और बाज़ार में अपनी फ़िल्म चलाने के लिए बच्चन परिवार माफ़ी मांग रहा है... शायद बाज़ार के लिए ही लता दीदी जैसी हस्तियां भी चुप रह जाती हैं।

Thursday 11 September, 2008

पहली बार

नमस्कार, पहली बार अपने ब्लॉग के लिए कुछ लिखते हुए काफी उलझन में हूं। दरअसल, मन में एक साथ इतनी बातें और इतने ख़्याल आ रहे हैं कि कुछ समझ में नहीं आ रहा। लिहाज़ा, फ़िलहाल ख़ुद को रोक रहा हूं। जल्द ही फिर हाज़िर होऊंगा।