Monday 15 December, 2008

एक बार ग़लतफ़हमी में भी पिट गया!

मेरे एक दोस्त ने कुछ रोज़ पहले मुझे एक फ़ोन किया। मेरे हैलो कहते ही वो शुरू हो गया। एक सांस में कह गया, "यार! आज हमारे मोहल्ले में एक बड़ी बात हो गई... मेरे घर के ठीक सामने एक लड़के को उस बाप ने सरेआम दो चांटे रसीद डाले। लड़का काफ़ी देर से गली में मोटरसाइकिल पर स्टंट दिखा रहा था। और उसके बाप को ग़ुस्सा आ गया।"
मैंने पूछा, "इसमें बड़ी बात क्या है?"
तो उसने कहा, "क्या बात करते हो, तुमने सुना नहीं! उसके फ़ादर ने उसे सरेआम दो थप्पड़ मारे।"
'बड़ी बात' तो मेरे समझ में नहीं आई, लेकिन मुझे अपना बचपन ज़रूर याद आ गया... वो बचपन, जिसमें ना तो हमारी शैतानियों का कोई हिसाब था और ना ही पिटने-पिटाने का... कई बार तो गलतफ़हमी में ही पीट दिए जाते थे और बात आई-गई हो जाती थी... आज मेरे दोस्त के बहाने एक किस्सा मेरे बचपन के दिनों का...

तभी मेरी उम्र कोई छह-सात साल रही होगी। शाम को अपने दोस्तों के साथ गली में खेल रहा था... खेल क्या था, किसी भी नई चीज़ को देख कर उसे अपना बताने की होड़ चल रही थी... मसलन, जैसे ही कोई कार गुज़री, तो मैंने झट से कह दिया, "ये मेरी कार है।" फिर कोई बाइक सवार गुज़रा तो किसी दोस्त ने कह दिया कि ये उसकी बाइक है... बस, कुछ ऐसा ही खेल था। सीधा-साधा... बिल्कुल बचपन जैसा। खेल अभी चल ही रहा था कि मोहल्ले में रहनेवाले एक अंकल वहां से गुज़रे। आंखों में मोटी काली ऐनक, गंजा सिर, सफ़ेद धोती-कुर्ता और मोटी काली मूंछों वाले वैद्यनाथ अंकल।
अंकल जैसे ही साइकिल से पास आए, मैंने चिल्ला कर कहा, "हमारा साइकिल", और खुशी के मारे उछल पड़ा। ख़ुशी इस बात की कि वैद्यनाथ अंकल के साइकिल पर इससे पहले कि किसी और दोस्त की नज़र पड़ती, मैंने उसे अपना कह दिया। बस इसी क़ामयाबी से कुछ इतना ख़ुश था, जैसे साइकिल सचमुच अपनी हो गई हो। लेकिन मेरी ये ख़ुशी तब काफ़ूर हो गई, जब गुस्से से तमतमाए अंकल अपनी साइकिल से उतर आए और मेरी कान उमेठ कर मुझसे पूछा, "बताओ तुमने कहा ये?" मैं बुरी तरह सहम गया। समझ में नहीं आया कि आख़िर मेरी गलती क्या है? फिर भी अंकल ने पूछा था, तो जवाब देना ही था। मैंने भी घबराते हुए 'हां' में सिर हिला दिया। अब अंकल आगबबूला हो गए। उनका गुस्सा सातवें आसमान पर जा पहुंचा... कहा, "ठीक है। अभी दफ़्तर जाकर तुम्हारे पिताजी को बताता हूं कि तुम यहां क्या कर रहे हो?" इसके बाद कुछ देर तक तो अंकल का ख़ौफ़ दिलो-दिमाग़ पर छाया रहा, लेकिन फिर बचपन की मस्ती ने सबकुछ भुला दिया।
शाम हुई और पिताजी घर लौटे। अक्सर, मिठाई लेकर आते थे। और हम भी उनके आने की ख़ुशी में मचलने लगते। लेकिन उस दिन पिताजी का मूड उखड़ा हुआ था। मैं जैसे ही उनके पास पहुंचा, उन्होंने मेरी ताबड़तोड़ पिटाई शुरू कर दी। पिताजी कुछ इतने ग़ुस्से में थे कि बीच-बचाव के लिए मां को आना पड़ा। किसी तरह जान बची। मां तो इस पिटाई का सबब पूछ ही रही थी कि हिम्मत जुटा कर मैंने भी पूछ लिया कि आख़िर मुझे क्यों पीटा गया? बस फिर क्या था, पिताजी एक बार फिर ग़ुस्सा हो गए। उन्होंने मां से कहा, "तुम्हें पता है, ये आजकल सड़क पर खड़े हो कर आते-जाते लोगों को गालियां बक रहे हैं!" मैं हैरान... इस बार पिताजी से तो नहीं, लेकिन रोते-रोते मैंने मां से पूछा, "मैंने कब गाली दी?" मां ने यही सवाल पिताजी की तरफ़ उछाल दिया... अबकी पिताजी ने मुझसे पूछा, "तुम बताओ, क्या आज तुमने अपने वैद्यनाथ अंकल को 'अंधरा-शक्ल' नहीं कहा था?" कुछ देर सोच कर मैंने सारी बातें याद की और कहा, "नहीं।" अब पिताजी ने पूछा, "फिर क्या कहा था? अगर तुमने गाली नहीं दी, तो फिर वैद्यानाथ ने जब तुम्हारी कान उमेठी, तो तुमने हां क्यों कहा?" मैंने उन्हें पूरी कहानी सुनाई... और ये भी बताया कि वैद्यनाथ अंकल ने तब मेरे कान पकड़ कर सिर्फ़ इतना पूछा था, "बताओ तुमने कहा ये?" अब मैंने 'हमारा साइकिल' कहा था, सो डरते-डरते हां कह दिया था। फिर मैंने अपनी सफ़ाई में 'अंधरा-शक्ल' जैसी कोई गाली जानने से भी इनकार कर दिया। सचमुच, मुझे तब तक इस गाली का पता भी नहीं था... लेकिन अब सफ़ाई देकर भी क्या होता, जो होना था हो गया। मुझे याद है, अगले दिन सुबह पिताजी के साथ-साथ वैद्यनाथ अंकल ने भी मुझे सॉरी कहा...

Tuesday 9 December, 2008

दूसरों की निंदा करने का मंच बनते ब्लॉग!

पिछले 8 नवंबर को मैंने एक पोस्ट लिखा था -- "आप ब्लॉग क्यों लिखते हैं?" इस पोस्ट के ज़रिए मैं लोगों से ब्लॉग लिखने की सही-सही वजह जानना चाहता था। पोस्ट के बाद कुछ लोगों को मैंने अपनी ही तरह ब्लॉग लिखने की वजह ढूंढ़ता हुआ पाया, तो किसी को अपनी रचनात्मकता को आकार देने के लिए लिखता हुआ। लेकिन ब्लॉग की दुनिया को नज़दीक से देखने और समझने के बाद एक बात का पता ज़रूर चल गया। वो ये कि हम में से ज़्यादातर लोग सिर्फ़ और सिर्फ़ दूसरों की निंदा करने और उन्हें नीचा दिखाने के लिए ही ब्लॉग लिखते हैं। आपको मेरा ये नज़रिया अजीब लग सकता है, लेकिन मुझे यकीन है कि आप दिल से मेरी इस बात रो झूठला नहीं सकेंगे।
सौ में से अस्सी ब्लॉग तो सिर्फ़ मीन-मेख निकालने के लिए चल रहे हैं। कोई लोकतंत्र की खाल खींच रहा है, तो कोई मीडिया की खाल में भूसा भर रहा है, कोई साथी ब्लॉगिए को गरिया रहा है, तो कोई अपने ही बिरादरी को लानत भेज कर 'प्रगतिशील' बनने की कोशिश कर रहा है। कुल मिलाकर, माहौल बड़ा निराशाजनक है। अभी कल की बात ही ले लीजिए... मैंने एक ब्लॉग में किसी साथी को आतंकवाद के खिलाफ़ अभियान छेड़ने पर मीडिया की खिंचाई करते हुए पाया। गरज ये थी कि मीडिया आतंकवाद पर एसएमएस मांग कर लाखों रुपए के वारे-न्यारे कर रहा है। मोबाइल कंपनियों के हाथों की कठपुतली बन गया है। इन जनाब को तो इंडिया गेट और गेटवे ऑफ इंडिया पर मोमबत्ती जला कर आतंकवाद का विरोध करने में भी शोशेबाज़ी नज़र आई।
अब सवाल ये उठता है कि रोज़ाना इश्क फ़रमाने और अपने दोस्तों को नॉनवेज जोक्स भेजने के चक्कर में एसएमएस कर लाखों रुपए पानी की तरह बहानेवाली आबादी से अगर कुछ एसएमएस राष्ट्रीयता के नाम पर मंगा लिए गए, तो इसमें कौन सा पहाड़ टूट गया? क्या ज़िंदगी में हर काम या हर हरकत को सिर्फ़ और सिर्फ़ रुपए-पैसे के नज़रिए से ही देखना ठीक है? ये सही है कि बाज़ारवाद हर किसी पर हावी है और मीडिया भी इससे अछूता नहीं है। लेकिन मीडिया पर लानत बरसानेवाले लोगों को शायद कभी भी मीडिया के सामाजिक सरोकार नज़र नहीं आते। उन्हें मीडिया में ठुमके लगाती राखी सावंत और शराब पीकर हंगामा करते राजा चौधरी तो नज़र आते हैं लेकिन आतंकवादियों के हाथों मारे गए बेगुनाहों के लिए संवेदना प्रकट करती ख़बरे नहीं दिखतीं। उन्हें जेसिका लाल और नीतिश कटारा मर्डर केस का फॉलोअप नहीं दिखता। और नज़रिए के इस कानेपन से ही छिद्रान्वेषण की शुरुआत होती है।
मीडिया के बाद ब्लॉग की दुनिया में सबसे हॉट टॉपिक आजकल आतंकवाद ही है। लेकिन ज़्यादातर ब्लॉग आतंकवाद से निबटने के तौर-तरीकों और इससे बचने पर चर्चा करने की बजाय मज़हबी नज़रिए से आतंकवाद को देखने की कोशिश में ज़्यादा नज़र आते हैं। नेताओं को गाली देने का शगल तो ख़ैर पुराना है। ईमानदारी से कहूं तो मैंने भी बारहा नेताओं को उनकी करतूतों पर लानत भेजी है, लेकिन ये भी सच है कि लानत भेजने से आगे भी सोचने की कोशिश की है।
वैसे एक सुखद सच्चाई ये भी है कि कुछ रचनाशील लोग तमाम उतार चढ़ावों के बावजूद साहित्य सेवा में डटे हैं। और इससे भी अच्छी बात ये है कि साहित्य सेवा में डटे इन ब्लॉगरों की रीडरशिप ना सिर्फ़ अच्छी है, बल्कि ऐसे पोस्ट्स पर मिलनेवाली प्रतिक्रियाएं भी उत्साह बढ़ाती हैं। उम्मीद जगाती हैं। मौजूदा राजनीति पर मेरे एक पोस्ट "नेताओं को सिर्फ़ गालियां ही देंगे या कुछ करेंगे भी!" के प्रतिक्रिया में मेरे एक साथी अनूप शुक्ल ने चुटकी ली थी कि गालियां देते रहने का मज़ा ही कुछ और है। कहीं-ना-कहीं मुझे अनूप जी की बातों में भी सच्चाई नज़र आती है। लगता है कि ब्लॉग की दुनिया से अगर निंदा और खिंचाई जैसी चीज़ों को अलग कर दिया जाए, तो शायद कुछ बचे ही नहीं। बहरहाल, सबकुछ एक हद तक हो तो ही अच्छा लगता है।

Saturday 6 December, 2008

नेताओं को सिर्फ़ गालियां ही देंगे या कुछ करेंगे भी!

नेताओं को गालियों तो सबने दे दी, लेकिन नेताओं को कैसे रास्ते पर लाया जाए इसके बारे में अब तक कम ही सोचा गया। जिसने भी सोचा उसने नेताओं को समंदर में डुबोने, गोली मारने या फिर चुनाव का बहिष्कार करने तक ही सोचा। लेकिन सवाल ये है कि क्या ऐसे देश चल सकता है? आखिर क्या हो कि नेता सही रास्ते पर आ जाएं और कुर्सीमोह त्याग कर मुल्क के बारे में सोचें? पिछले कुछ दिनों से, ख़ास कर मुंबई धमाकों के बाद से, इस बारे में लगातार चर्चाओं और विमर्श के दौर से गुज़र रहा था। लेकिन इसी बीच किसी साथी ने एक ऐसी कुंजी बताई, जो हमारे पास होने के बावजूद जानकारी के अभाव में हम अक्सर उसका इस्तेमाल नहीं कर पाते हैं। ये उपाय दरअसल हमारे सांवैधानिक अधिकारों का ही एक ऐसा हिस्सा है, जिसके बारे में हमारे देश के ज़्यादातर नागरिक जानते ही नहीं। अच्छे-भले, पढ़े-लिखे और माहिर भी नहीं।
कई बार आपने लोगों को ये भी कहते हुए सुना होगा कि सारे नेता और सारी पार्टियां तो एक जैसी हैं, आप किसे भी वोट दीजिए क्या फ़र्क पड़ता है! लेकिन नहीं, फ़र्क पड़वाने का तरीक़ा भी संविधान ने हमें दिया है। 'कंडक्ट ऑफ इलेक्शन रूल 1961' की धारा 49(0) के मुताबिक अगर आप चुनाव में खड़े किसी भी उम्मीदवार को अपना वोट देने के क़ाबिल नहीं समझते हैं, तो आप 'नो-वोटिंग' के ऑप्शन पर जा सकते हैं। इसके लिए मतदान केंद्र में मौजूद प्रेज़ाइडिंग ऑफ़िसर की मदद ली जा सकती है। आपको एक ख़ास फॉर्म भरना होगा और आपका 'नो-वोट' या फिर यूं कहें कि आपका विरोध दर्ज हो जाएगा।
अब आप ये पूछ सकते हैं कि भला इससे क्या फ़र्क पड़ता है? ये तो वोट का बहिष्कार करने जैसी बात हुई। लेकिन नहीं, ये वोट के बहिष्कार से अलग है। आपको जानकर अच्छा लगेगा कि अगर किसी चुनाव क्षेत्र में हुए मतदान में सबसे ज़्यादा वोट 'नो-वोट' की कैटेगरी में डाले गए, तो प्रावधान के मुताबिक चुनाव आयोग उस चुनाव क्षेत्र की वोटिंग ही रद्द कर देगा। यानि एक बात साफ़ हो जाएगी कि अगर इलाके की जनता को चुनाव में खड़ा कोई भी प्रत्याशी अपना नुमाइंदा बनने के क़ाबिल नहीं लगता है तो चुनाव आयोग उसे आप पर थोपेगा नहीं, बल्कि उसे दौड़ से ही बाहर कर देगा। अगली बार जब भी चुनाव होगा, तब वे प्रत्याशी चुनाव में खड़े नहीं हो सकेंगे, जो उस चुनाव क्षेत्र से पिछली बार अपनी क़िस्मत आज़मा रहे थे। मतलब साफ़ है कि नो-वोटिंग का ऑप्शन चुनकर आप ना सिर्फ़ नाक़ाबिल नेताओं को सदन तक जाने से रोक सकते हैं, बल्कि पढ़े-लिखे और समझदार लोगों की ऐसी नई पौध को भी अपना नुमाइंदा बना सकते हैं, जो आमतौर पर ईमानदार होने के बावजूद राजनीतिक पार्टियों में चमचागिरी में कमज़ोर होने की वजह से पीछे छूट जाते हैं।

Friday 5 December, 2008

ऐसे नेता करेंगे मुल्क की हिफ़ाज़त?

जब भी अपने देश में नेताओं की हालत देखता हूं, तो बड़ी कोफ़्त होती है। सत्ता के लिए किसी भी हद तक नीचे गिरते इन लोगों को देख कर मन खट्टा हो जाता है। हर बार ये सोचता हूं कि अब नेताओं के बारे में कुछ नहीं लिखूंगा। लेकिन हर बार ख़ुद से हार जाता हूं और नेताओं की कारगुज़ारियों पर लिखने को मजबूर हो जाता हूं। लिखना इसलिए नहीं चाहता, क्योंकि उनके बारे में कुछ लिखना चिकने घड़े पर पानी डालने जैसा लगता है और लिखने से खुद को रोक इसलिए नहीं सकता क्योंकि नेताओं की करतूत देख कर ख़ून खौलने लगता है।
ये ताज़ी पोस्ट महाराष्ट्र में चल रही मौजूदा राजनीति के मद्देनज़र है। वैसे तो महाराष्ट्र पिछले कई महीनों से गंदी राजनीति की चपेट में है, लेकिन मुंबई के आतंकी हमलों के बाद इस राजनीति ने जो शक्ल अख्तियार की है, वो पहले से भी ज़्यादा भयानक है। मुंबई में हुए हमले के बाद एकबारगी ये लग रहा था, जैसे राज ठाकरे सरीखे लोगों को अक्ल आ गई होगी और उन्होंने मिल कर जीना सीख लिया होगा। हमले के तुरंत बाद राज ठाकरे की करतूतों को याद कर-कर के जिस तरह देश भर में लोगों ने एक-दूसरे को एसएमएस भेजे, उससे एक ऐसा माहौल बनता हुआ दिख रहा था। लेकिन अब मुंबई में जो कुछ हो रहा है उसे देख कर लगने लगा है कि वहां राज ठाकरे से भी बड़े-बड़े गए-बीते पहले से ही बैठे हुए हैं।
हज़ारों लोगों की जान जाने के बाद देश के गृहमंत्री शिवराज पाटील की नैतिकता जागी और भरे मन से उन्हें इस्तीफ़ा देना पड़ा... उनकी देखा-देखी दूसरे 'खरबूजों' ने भी रंग बदले, लेकिन महाराष्ट्र के सीएम थे कि कुर्सी छोड़ने का नाम ही नहीं ले रहे थे। ये और बात है कि वे बार-बार "मैंने आलाकमान को अपना इस्तीफ़ा ऑफ़र कर दिया है," का जुमला कह-कह कर ख़ुद को सत्तामोह से इतर दिखाने की कोशिश में जुटे थे... लेकिन आखिरकार वही हुआ, जिसका डर उन्हें खाये जा रहा था। आलाकमान के इशारे पर विलासराव देशमुख को सीएम की कुर्सी छोड़नी पड़ी। कांग्रेस ने भी कुछ सोच-समझ कर नांदेड़ के विधायक अशोक चव्हान की ताजपोशी का फ़ैसला कर लिया। लेकिन अभी पार्टी का ये फ़ैसला आया ही था कि राणे ऐसे गरजे कि हर कोई सन्न रह गया। राणे ने ना सिर्फ़ अशोक चव्हान को नाक़ाबिल बताया, बल्कि इससे पहले के मुख्यमंत्री देशमुख को भी नाकारा करार दिया। वैसे तो कुर्सी के लिए नेताओं की ये तथाकथित बग़ावत कोई नई बात नहीं है, लेकिन राणे ने जिस मौके पर ये जूतमपैजार शुरू की है, उससे सबका सिर शर्म से झुक गया है।
जब देश आतंकवाद की आग में जल रहा हो, अमेरिकी विदेश मंत्री कोंडोलिजा राइस समेत पूरी दुनिया के सियासतदान हिंदुस्तानी नेताओं को साथ मिल कर आतंकवाद से मुक़ाबला करने की सीख दे रहे हों, एक राष्ट्रीय संकट का माहौल हो, तब कुर्सी के लिए कांग्रेस में मची ये मारामारी सचमुच बहुत पीड़ादायक है। और राणे अपने ऊपर बाग़ी होने का टैग कुछ इस अंदाज़ में चस्पां कर रहे हैं, जैसे उन्होंने एक सड़ी हुई व्यवस्था के खिलाफ़ मुल्क और महाराष्ट्र के लिए अपना सबकुछ दांव पर लगा दिया हो। ख़ुद को सीएम का दावेदार बताने में उनका जो 'कनविक्शन' दिखता है, उससे लगता है जैसे वे मराठी मानुष की सेवा करने के लिए मरे जा रहे हैं। दूसरी ओर, उन पर पलटवार करनेवाले भी कमतर नहीं हैं।
ये हालात कमोबेश हर हिंदुस्तानी के दिलो-दिमाग़ को झकझोर देता है। सवाल, बस एक ही है कि जब नेताओं का सारा ज़ोर सिर्फ़ और सिर्फ़ कुर्सी हासिल करने पर हो, वे भला मुल्क की की हिफ़ाज़त कैसे करेंगे?

Tuesday 2 December, 2008

आतंकवाद - कैसे तय हो राजनीतिक जवाबदेही?

ये वो दौर है, जब हक़ीक़त और फ़साने का फ़र्क ख़त्म हो गया है। वीडियो गेम का शैतान जिस आसानी से लोगों को मारता है, ठीक उसी तरह हक़ीक़त की ज़िंदगी में भी शैतान इंसानों को मार रहे हैं। ये कोई पहला मौका नहीं है जब हिंदुस्तान पर आतंकवादियों ने हमला किया है... कभी असम, कभी जयपुर, कभी दिल्ली, कभी मुंबई, कभी बैंगलुरू, तो कभी हैदराबाद... हिंदुस्तान के नक्शे पर अब शायद ही कोई ऐसी जगह बची हो, जहां आतंकवादियों के नापाक कदम नहीं पड़े। मौत का तांडव नहीं हुआ। लेकिन ज़रा सोचिए... एक मुल्क, एक राष्ट्र के तौर पर हमने आतंकवादियों से निपटने के लिए क्या किया? सच पूछिए तो जो कुछ भी किया, उसमें कुछ भी ऐसा नहीं था जिससे आतंकवादियों को दोबारा ऐसा करने से रोका जा सकता। और यही वजह है कि आज हमारा मुल्क पूरी दुनिया के आतंकवादियों के लिए सॉफ्ट टार्गेट बन चुका है।
एक वारदात को 24 घंटे का वक्त भी नहीं गुज़रता है कि दूसरी वारदात रोज़मर्रा की ज़िंदगी थर्रा देती है। अब ये हमारी फ़ितरत है या कुछ और, हम हर बार हम अपना गुस्सा ज़ब्त कर ख़ामोश रह जाते हैं और ख़ैर मनाते हैं कि खुद सलामत रह गए। लेकिन अब मुंबई में हुए हमले के बाद जागने का वक़्त आ गया है। वैसे अब मुझे अपने चारों ओर एक अजीब सी बेचैनी दिखने लगी है। देर से ही सही अब लोग ये सोचने पर मजबूर होने लगे हैं कि इस हालात का सामना आखिर कैसे किया जाए? ऐसा क्या हो, जिससे हिंदुस्तान आतंकवादियों का सॉफ्ट टार्गेट न बन सके? यकीनन, पिछले कई दिनों से ये सवाल मेरे दिलो-दिमाग में भी कौंध रहे हैं। जब-जब आतंकवादी हमले की बात चलती है या टीवी पर मुंबई के हमले का मंज़र देखता हूं, तब-तब एक अजीब सी मनहूसियत छाने लगती है। और फिर काफी कोशिश के बाद ही नॉर्मल हो पाता हूं।
मैं कोई सुरक्षा विशेषज्ञ नहीं हूं और ना ही स्ट्रैटेजिस्ट हूं। लिहाज़ा आतंकवाद से बचने के लिए कोई बहुत टेक्नीकल बात नहीं कर सकता। लेकिन मोटे तौर पर जो चंद बातें मुझे समझ में आती है, उन्हें आपके साथ साझा करना चाहता हूं। और इन बातों में सबसे ऊपर है ख़ुफ़िया एजेंसियों की भूमिका। हमारे देश में होनेवाले हर आतंकी हमले के साथ ही ख़ुफ़िया एजेंसियों की पोल खुल जाती है। कभी हमले के बाद एजेंसियां सरकारों को पहले ही आगाह किए जाने की बात कहती हैं, तो कभी गृहमंत्री कहते हैं कि हमले ठीक कब और कहां हमले होंगे, ये नहीं बताया गया था। ज़ाहिर है कि ये हमारे देश के सिपहसालारों और एजेंसियों के बीच तालमेल की घोर कमी का सुबूत है। और अब इस कमी से निबटने की ज़रूरत शिद्दत से महसूस होने लगी है। ज़रूरत इस बात की भी है कि सुरक्षा एजेंसियों को नख-दंत दिए जाएं, ताकि किसी भी आपातकालीन हालात का वे मज़बूती से मुक़ाबला कर सकें।
आतंकवाद पर राजनीति ख़त्म करना भी हिंदुस्तान को मजबूत करने की अहम ज़रूरतों में से एक है। इसके लिए सबसे पहले हमें दहशतगर्दी को किसी मज़हब के चश्मे से देखने की आदत बंद करनी होगी। साथ ही लोगों के चुने हुए नुमाइंदों को भी अपने वोट बैंक की चिंता कम करते हुए आतंकवादियों के खिलाफ़ कड़े फ़ैसले करने होंगे। जब तक मुल्क के स्वाभिमान पर हमला करनेवाले अफ़ज़ल गुरु जैसे आतंकवादियों को फांसी के फंदे पर लटकाया नहीं जाएगा, तब तक दहशतगर्दी का कारोबार करनेवाले लोगों तक सख्त मैसेज नहीं पहुंचेगा। उनके नापाक हौसले भी कम नहीं होंगे। ठीक इसी तरह आतंकवादियों से नेगोशिएट करने और हर आतंकवादी हमले के बाद पाकिस्तान से सिर्फ़ बातचीत के सहारे रिश्ते सुधार लेने का ख्वाब देखने की आदत भी बंद करनी होगी। इस मामले में हमें इज़रायल और अमेरिका जैसे मुल्कों के सबक लेना चाहिए, जिन्होंने अपने आस-पास पनपनेवाले आतंक की अमरबेल को उखाड़ फेंकने में कोई कमी नहीं छोड़ी।
लेकिन ये सभी ख्वाब तभी पूरे हो सकेंगे, जब राजनेताओं को शर्म आएगी। एक मुकम्मल राजनीतिक इच्छाशक्ति पैदा होगी। लेकिन जब नकवी, अच्यूतानंद और पाटील जैसे लोग हमलों के बाद दहशतज़दा लोगों पर ही ऊंगली उठाने लगें और हर हाल में अपना दामन बचाने की कोशिश करें, वहां इस तरह की कोई भी कोशिश ख्याली पुलाव से अलग कोई भी शक्ल नहीं ले सकती। अब सवाल ये उठता है कि आख़िर क्या हो कि राजनेता जिम्मेदार बनें और उनकी एकाउंटिब्लिटी फिक्स हो? यकीनन अब देश को इस सवाल पर सोचने की ज़रूरत है। साथ ही ज़रूरत है कि अपने हर उस राजनेता का गिरेबान पकड़ने की, जो वोट की ख़ातिर तो जनता के पैरों पर लोट जाते हैं, लेकिन कुर्सी तक पहुंचते ही उसी जनता को आंखें दिखाने से गुरेज नहीं करते। अब जगने का वक़्त आ गया है।