Monday 26 January, 2009

सीने में जलती मैंगलोर की आग!


तालिबान ने हाल ही में अपने दबदबे वाले इलाकों में कई गैरइंसानी फ़रमान जारी किए हैं। इनमें लड़कियों के नेल पॉलिश लगाने पर ऊंगलियां काट लेने, बिना बुर्के के बाहर निकलने के पर संगसार कर मौत के घाट उतारने और ज़ोर से हंसने पर सरेआम सज़ा देने की बात कही गई है। वैसे तालिबान इससे दो कदम आगे बढ़ कर एक ऐसे टीचर की जान भी ले चुका है, जिसने उनके छोटे पायजामे पहनने के फ़रमान की अनसुनी कर दी थी... जब-जब ऐसी ख़बरें टीवी पर देखता हूं या अख़बारों में पढ़ता हूं, तो मन कड़वाहट से भर उठता है। सोचता हूं कि कोई इंसान भला किसी दूसरे इंसान की ज़िंदगी के कायदे-कानून कैसे तय कर सकता है? वो भी गैरइंसानी तरीके से! वो कैसा समाज है, जहां मज़हब के नाम पर किसी के हंसने पर भी रोक लगा दी जाए और हंसते ही जान चली जाए! जितनी बार सोचता हूं, हैरान हो जाता हूं।
लेकिन उससे भी ज़्यादा हैरानी तब होती है, जब श्रीराम सेना को मैंगलोर के पब में गुंडागर्दी करते देखता हूं। टीवी के फुटेज बताते हैं कि श्रीराम सेना के गुंडों ने पब में धावा बोलकर लड़के-लड़कियों को बेतरह पीटा और कहा कि जब-जब हिंदुस्तानी संस्कृति पर कोई हमला होगा, वे ऐसे ही कार्रवाई करेंगे। तालिबान की हालत पर तो सिर्फ़ अफ़सोस ही हो रहा था, लेकिन मंगलूर की हालत देख कर ख़ून खौल उठा। फर्ज़ कीजिए आप अपने दोस्तों के साथ कहीं इत्मीनान से बैठे चाय-कॉफी पी रहे हों या फिर शराब से ही हलक तर कर रहे हों, समाज के ऐसे पहरेदार वहां पहुंचकर बिना किसी बात के आपको बुरी तरह पीटने लगें, तो कैसा लगेगा? या फिर पिटती हुई लड़कियों में कोई आपकी बहन या बेटी हो, तो फिर तकलीफ़ कितनी बढ़ जाएगी? तस्वीरों में पिटते नौजवानों को देख कर लगा जैसे श्रीराम सेना के हाथों मैं भी घिर गया हूं और समाज के ऐसे ही ठेकेदार मुझे भी बुरी तरह पीट रहे हैं। गुस्से के मारे गर्मी लगने लगी और लगा ऐसे ठेकेदारों के साथ मैं भी कुछ वैसा ही करूं, जैसा उन्होंने बेगुनाहों के साथ किया है। लेकिन अफ़सोस... क़ानून पर भरोसा करनेवाले ऐसा कुछ नहीं कर सकते।
ऐसा नहीं है कि सभ्यता संस्कृति के नाम पर ऐसा पहली बार हुआ है। इस बार तो ये फुटेज टीवी पर दिखा, सालों-साल रिपोर्टिंग के दौरान कभी वैलेंटाइन डे के मौके पर, तो कभी किसी और दिन, ऐसा मंज़र अपनी आंखों से लाइव देखा है, लेकिन ऐसे गुंडों को सिर्फ़ रोकने की कोशिश करने या फिर उन्हें अच्छा-बुरा समझाने के और कुछ भी नहीं कर सका हूं। अक्सर अपनी इस लाचारगी पर बड़ी कोफ़्त होती है। अपनी हैसियत के छुटपन का अहसास भी सताने लगता है। लेकिन... बस यहीं तक। इसके आगे और कुछ नहीं होता। या फिर यूं कहिए कि हो नहीं सकता...
मुझे यकीन है कि ऐसी गुंडागर्दी देख कर आपकी हालत भी ऐसी ही होती होगी। ज़रूरत है कि हम घर के तालिबान से सबसे पहले निबटें और हमारे चुने हुए नुमाइंदों पर क़ानून की हद में रहते हुए ऐसे गुंडों के साथ कुछ ऐसी सख्ती के लिए दबाव बनाएं कि फिर कोई गुंडा पैदा होने से पहले दस बार सोचे... एक बेहतर कल की उम्मीद के साथ...
(चित्र सौजन्य- www.daijiworld.com)

Thursday 22 January, 2009

टुच्चापन...

जुम्मन और शकील बहुत अच्छे दोस्त थे। साथ पढ़े, साथ खेले और साथ बड़े भी हुए। किस्मत से दोनों को एक ही ऑफ़िस में नौकरी भी मिली और ज़िंदगी मज़े में गुज़रने लगी... दोनों का अक्सर एक-दूसरे के घर आना-जाना लगा रहता।
जुम्मन जब भी कभी शकील के पास जाता, शकील बड़े शान से अपना सीना फुला कर घरवालों से अपने दोस्त की तारीफ़ करता। शकील अक्सर इमोशनल होकर अपने बीवी-बच्चों से कहता, "अगर मैं कभी मर भी जाऊं तो फ़िक्र मत करना। मेरे पीछे मेरा भाई जुम्मन तुम सबका ख़्याल रखेगा। मेरे जाने के बाद अगर तुम्हें कभी किसी भी चीज़ की ज़रूरत हो, तो बेझिझक जुम्मन से कहना।" जुम्मन भी अपने दोस्त की बातों पर हामी भरता, लेकिन उसका साथ छूटने का डर उसे अंदर से हिला देता।
पर एक रोज़ वही हुआ, जो बात शकील अक्सर मज़ाक में कहता था। महज़ एक दिन की बीमारी के बाद उसकी जान चली गई। मोहल्ले में मातम पसर गया।
शकील के जाने की ख़बर जुम्मन पर बिजली बन कर गिरी। वो रोता-पिटता अपने दोस्त के घर पहुंचा। ड्राइंग रूम में शकील की लाश पड़ी थी। घर में कोहराम मचा था। उसकी बीवी सायरा हर दोस्त या रिश्तेदार को देखते ही बेहोश हो जाती।
जुम्मन ने सायरा का हाल पूछा और अचानक उसे न जाने क्या सूझी, अपने कुर्ते से पांच सौ रुपए का एक नोट निकाल कर उसने सायरा के हवाले कर दिया। कहा, "हिम्मत से काम लो, सब ठीक हो जाएगा।" अब सायरा अपने शौहर के सबसे अच्छे दोस्त के टुच्चेपन से हैरान थी...

Saturday 17 January, 2009

...दबे पांव आई एक ख़ुशी!


ज़िंदगी में कई बार ख़ुशी और ग़म कब और कैसे दबे पांव दस्तक देते हैं, पता भी नहीं चलता। ऐसा मेरे साथ अक्सर होता है। आपके साथ भी होता होगा। आज बात ऐसी ही एक छोटी सी ख़ुशी की, जिसे मिले हुए वैसे तो चौबीस घंटे गुज़र चुके हैं, लेकिन उसके बारे में जितनी बार सोचता हूं मन एक अजीब उमंग और भावुकता से भर उठता है।
मैं एक मध्यमवर्गीय परिवार से हूं। मेरे पिता सरकारी नौकरी से रिटायर हो चुके हैं। उनकी ईमानदारी और हालात का तकाज़ा कुछ ऐसा रहा कि सालों की लंबी नौकरी के बावजूद एक ऐसी छत का इंतज़ाम नहीं हो सका, जिसे वे अपना कह सकें। किराएदार के तौर पर मां-पिताजी की ज़िंदगी का एक लंबा वक़्त गुज़र गया। उन्हें इसका मलाल भी है, लेकिन हमारे सामने उन्होंने इसे कभी ज़ाहिर नहीं किया। जब हम दो भाइयों ने होश संभाला तो दूसरे तमाम नौजवानों की तरह हमारे मन में भी कुछ कर गुज़रने की इच्छा थी। हालात ने साथ दिया और मां-पिताजी के आशीर्वाद से आख़िरकार हमने अब एक मकान ख़रीद लिया है। अच्छी लोकैलिटी में एक शानदार फ्लैट। मैं रहता तो दिल्ली में हूं लेकिन घर के सभी लोग अब इस नए मकान में शिफ्ट हो चुके हैं। इस मकान के साथ ही सालों से सभी के दिलों में दबी एक ऐसी ख्वाहिश पूरी हो चुकी है, जिसके बारे में कुछ साल पहले तक सोचना भी हमारे लिए मुश्किल था।
बहरहाल, नई ख़ुशी ये है कि कल दोपहर को मां ने अचानक मुझे फ़ोन किया। बोली, "बेटा तेरे पिताजी और मैं घर के बरामदे में बैठी लंच कर रही हूं। ठंडी हवा चल रही है और गुनगुनी धूप खिली है। अपने घर में यूं इत्मीनान से बैठना कितना सुकून दे रहा है, ये मैं बता नहीं सकती। फ़ोन बस ये कहने के लिए किया था कि बेटा, और तरक्की करो। जीते रहो।" यकीन मानिए, मां के ये चंद अल्फ़ाज़ अब भी मेरे कानों में गूंज रहे हैं। मेरी खुशी का ठिकाना नहीं है।

Monday 12 January, 2009

राजा पीटर का एक और चेहरा!


ये बात कोई दस साल पुरानी है। उन दिनों मैं अपने गृह नगर जमशेदपुर में था और झारखंड के लीडिंग न्यूज़पेपर 'प्रभात ख़बर' में काम करता था। तब क्राइम रिपोर्टर नहीं था, लेकिन ख़बरों के सिलसिले में मेरा अक्सर कोर्ट में जाना लगा रहता था। उस रोज़ दोपहर को भी जब मैं कोर्ट परिसर में पहुंचा, तो एक पत्रकार साथी से मुलाक़ात हो गई। हाल-चाल पूछने के बाद उसने कहा, 'यार, राजा तुम्हें खोज रहा है...।' ये बात सुनते ही मैं चौंक गया। दरअसल, एक खूंखार क्रिमिनल के तौर पर मैंने राजा पीटर का नाम दर्जनों बार अख़बारों में पढ़ा था, लेकिन व्यक्तिगत तौर पर तब तक मेरी उससे कोई मुलाक़ात नहीं थी। इसलिए मेरा चौंकना लाज़िमी था। मैंने अपने उस साथी से राजा के मुझे ढूंढ़ने की वजह भी पूछी, लेकिन उसने कहा कि ये राजा ही बता सकता है। राजा उन दिनों जमशेदपुर जेल में बंद था और उस पर क़त्ल से लेकर अपहरण और जबरन वसूली के कई मामले दर्ज थे। कुल मिलाकर, जुर्म की दुनिया में राजा पीटर का नाम काफ़ी ऊपर था।
ख़ैर, अपने दोस्त की बात सुनकर मैं कोर्ट परिसर में बने हाजत (वो जगह जहां सुनवाई के लिए लाए गए क़ैदियों को रखा जाता है) के पास जा पहुंचा। मुझे देखते ही कैदियों की भीड़ से आवाज़ आई और अगले ही पल मैं राजा पीटर से मुख़ातिब था। दुबला-पतला और दरम्याने कद का एक ऐसा नौजवान, जिसे देख कर किसी के लिए भी उसके खूंखार क्रिमिनल होने पर यकीन करना मुश्किल हो जाए।
बहरहाल, मैंने उससे मुझे ढूंढ़ने की वजह पूछी तो बिना कुछ कहे सलाखों के पीछे से राजा ने कुछ रुपए मेरी ओर बढ़ा दिए। मैं हैरान!!! अब इससे पहले कि मैं कुछ समझ पाता, उसने मुझे अख़बार में छपी मेरी एक ख़बर का हवाला दिया और ये रुपए उस शख्स तक पहुंचा देने की गुज़ारिश की, जिसके बारे में ख़बर छपी थी। दरअसल, उस रोज़ मैंने 'प्रभात ख़बर' में एक ऐसे परिवार के बारे में स्टोरी लिखी थी, जो ग़रीबी और बीमारी के चक्रव्यूह में फंस कर तबाह हो चला था। बीवी की झुलस कर मौत हो चुकी थी और कैंसर का शिकार शौहर सरकारी अस्पताल में पड़ा मौत का इंतज़ार कर रहा था। बच्चे बाप के जीते-जी यतीम हो गए थे।
अब राजा एक सांस में कह गया, 'जेल में बंद सभी कैदियों ने आपकी ख़बर पढ़ी और सबको बड़ा अफ़सोस हुआ। हम कैदियों ने जेल में ही इस परिवार की मदद का फ़ैसला किया और आपस में चंदा कर ये 25 सौ रुपए इकट्ठा किए हैं। ये रुपए आप उस आदमी तक पहुंचा दीजिए...' राजा पीटर के मुंह से ये बातें सुन कर मैं अवाक रह गया! उससे मुझे ऐसे किसी बात की कोई उम्मीद नहीं थी। तब तक दूसरे तमाम लोगों की तरह मैं भी किसी क्रिमिनल बैकग्राउंड के इंसान को सिर्फ़ और सिर्फ़ एक ज़ालिम और पत्थर दिल इंसान के तौर पर ही देखता था। लेकिन राजा की इस कोशिश ने मेरा नज़रिया बदल दिया।
बहरहाल, इसके बाद पिछले दस सालों में मेरी राजा से शायद दस बार भी बात नहीं हुई होगी। लेकिन ना तो राजा मुझे भूल सका था और ना मैं राजा को। तमाड़ विधान सभा उप चुनाव में झारखंड के दिशोम गुरु शिबू सोरेन को पटखनी देने के बाद जब मैंने जीत की खुशी में झूमते राजा को दिल्ली से फ़ोन किया, तो एक बार फिर से उसने मुझे चौंका दिया। मुबारकबाद लेने के बाद उसने एक बार फिर से उस वाकये का ज़िक्र छेड़ दिया, जो दस साल पहले गुज़रा था... फ़ोन रखने के बाद मैं सोचने लगा कि शायद यही वजह है राजा पीटर आज झारखंड का नया 'राजा' है...

Wednesday 7 January, 2009

...पर 'हिंदुस्तानी क़साबों' का क्या होगा?

जब से मुंबई हमले में पाकिस्तान का हाथ होने की बात सामने आई है, पाकिस्तान को कोसने का सिलसिला शुरू हो गया है। कोसना बनता भी है। पाकिस्तान सालों से गलथेथरई कर रहा है। लिहाज़ा, क़साब के पकड़े जाने के बाद इस बार सरकार अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पाकिस्तान को बेनक़ाब करने की कोशिश में लग गई है। लेकिन इस कोशिश के बीच एक सवाल ऐसा है, जो अक्सर मुझे परेशान करता है... वो ये कि एक मुल्क के तौर पर तो हम शायद पाकिस्तान और वहां से प्रायोजित होनेवाले आतंकवाद से निपट भी लें, लेकिन हिंदुस्तान में पलनेवाले उन 'पाकिस्तानियों' का क्या होगा, जो लगातार उसी थाली में छेद कर रहे हैं, जिसमें ख़ाते हैं।
मुंबई हमले में पाकिस्तान का हाथ अब ज़माने के सामने साबित हो चुका है। लेकिन हाल के दिनों में हिंदुस्तान के सीने पर ऐसे दसियों हमले हुए हैं, जिन्हें अंजाम देनेवाले कोई विदेशी नहीं, बल्कि इसी हिंदुस्तान की मिट्टी में पले-बढ़े लोग हैं। फिर चाहे वो हमले जयपुर के हों, बेंगलुरू के, गुवाहाटी के, मालेगांव के, हैदराबाद के, अहमदाबाद के या फिर राजधानी दिल्ली के। तक़रीबन सभी हमलों और धमाकों में हिंदुस्तानियों के शामिल होने की बात सामने आई है। अफ़जल, दाऊद, टाइगर, हाकिम, सैफ़, बशर, ज़ीशान जैसे क़साबों की हमारे पास कोई कमी नहीं है।
संसद पर हमला करने के मुख्य आरोपी अफ़ज़ल गुरू को हम अब भी फांसी के फंदे तक नहीं पहुंचा सके हैं। ऊपर से ऐसे 'मीर ज़ाफ़रों' और 'जयचंदों' की वकालत करनेवाले भी हमारे यहां मौजूद हैं। कई संगठन जहां शुरू से ही अफ़ज़ल गुरू की सज़ा का विरोध कर रहे हैं, वहीं अरुंधति राय और प्रफुल्ल बिदवई सरीखे लोग तो अफ़ज़ल को लेकर न्यायालय के रुख पर ही सवाल खड़ा कर चुके हैं। इनका कहना है कि अफ़ज़ल के मामले में तो सरकार ने इंसान को हासिल कुदरती इंसाफ़ की भी अनदेखी कर दी। दिल्ली धमाकों के आरोपियों के साथ पुलिस के एनकाउंटर के बाद शुरू हुई सियासत की तपिश अब भी कम नहीं हुई है। ऐसे में सिर्फ़ एक क़साब को पकड़ कर पाकिस्तान से निपटने से पहले हमें बहुत कुछ सोचने की ज़रूरत है।