Wednesday 4 February, 2009

ये मंदी भी बड़ी 'भूतिया चीज़' है!

ये मंदी भी बड़ी अजीब शय है। कहीं-कहीं बहुत बुरी तरह छाई हुई है, तो कहीं दूर-दूर तक इसका नामों-निशान नहीं दिखता। कहीं मंदी की वजह से लोगों की नौकरियां जा रही है। सैलरी रुक रही है, इन्क्रीमैंट बंद कर दिए गए हैं और कहीं शिल्पा शेट्टी और राज कुंद्रा सरीखे लोग आईपीएल में करोड़ों रुपए इनवेस्ट कर रहे हैं, होंडा से लेकर फ़िएट तक अपने नए और लक्ज़री मॉडल्स बाज़ार में लॉंन्च कर रहे हैं और दिल्ली में शाहरुख ख़ान टैग ह्यूअर की तीन लाख रुपए की घड़ी प्रमोट कर रहे हैं।

समझ में नहीं आता है कि मंदी है भी या नहीं! है, तो ठीक कहां-कहां है और नहीं है तो कहां नहीं है? जहां है वहां क्यों है और जहां नहीं है वहां क्यों नहीं है? बाज़ार की समझ रखनेवाले लोग शायद इस अजीबोग़रीब मंदी को समझ भी लें, लेकिन मुझ जैसे आम आदमी के लिए तो ये किसी पहेली से कम नहीं है। सिर्फ़ मैं ही नहीं, मुझे अपने आस-पास भी ज़्यादातर ऐसे ही लोग नज़र आते हैं, जो मंदी से डरे हुए हैं लेकिन ये मंदी कहां, क्यों, कैसे और कब (से और तक) है, ये नहीं जानते। पूछने पर कोई इसे इकोनॉमिक टेररिज़्म बताने लगता है, तो कोई अमेरिका समेत दुनिया के तमाम पूंजीपतियों की साज़िश समझाने लगता है। कोई कहता है कि आज ये मंदी इसलिए आई है, क्योंकि कल तक दुनिया की बड़ी-बड़ी कंपनियों और बैंकों ने कृत्रिम तरीक़े से अपने बाज़ार को बढ़ाने की कोशिश की थी। समझ में नहीं आता कि आख़िर अब अचानक क्या हो गया कि इस बनावटी बाज़ार का राज़ दुनिया के सामने खुल गया और घनघोर मंदी पसर गई? इसी से जुड़ा सवाल एक ये भी है कि आख़िर ये दूर कब तक होगी और होगी भी या नहीं?

वैसे ये मंदी कहीं और हो या ना हो, न्यूज़ इंडस्ट्री को इसने ज़रूर अपनी ज़द में ले लिया है। न्यूज़ और मीडिया के लोग हर रोज़ ना सिर्फ़ अपने आस-पास मंदी-मंदी सुन रहे हैं, बल्कि बंद होते अख़बार के एडिशनों और चैनलों के सिकुड़ते खर्च-तंत्रों में इसे देख भी रहे हैं। लेकिन हैरानी तब होती है कि जब शॉपिंग मॉल्स में पहले की तरह ही भीड़ भी नज़र आती है और ख़रीदार भी। मकान मालिक पहले से भी बढ़ कर दस फ़ीसदी से ज़्यादा किराया बढ़ाने की ज़िद करता है और होंडा की नई मॉडल सररर्र से निकल जाती है... मुझे तो ये मंदी बड़ी भूतिया लगती है। आपके सामने अगर इस मंदी के राज़ खुले हों, ज़रूर बताएं। शुक्रगुज़ार रहूंगा।