Thursday 28 May, 2009

दुनिया और दुनियादारी

"वो दस रुपएवाली सॉस की बोतल देना..."
"क्या? दस रुपएवाली!"
"हां, हां... हर महीने तो आती है तुम्हारे यहां से..."
"लेकिन भाई साहब, दस रुपए में तो कोई भी सॉस की बोतल नहीं आती..."
"क्या बात कर रहे हो, वो तो रखी है सामने... वही तो है, दस रुपएवाली बोतल..."
"लेकिन वो सॉस तो सत्तर रुपए की है..."
"अजीब बात करते हो, अभी पिछले महीने ही दस रुपए की आई है..."

अब दुकानदार कुछ समझने की कोशिश करता है... और फिर खरीदार से पूछता है,

"कहीं आप 40 नंबरवाले शर्मा जी तो नहीं?"
"अरे हां भई, मैं ही प्रो. शर्मा हूं। चलो, अब देर मत करो मुझे कॉलेज जाने में देर हो रही है..."

अब दुकानदार जल्दी से शर्मा जी को सॉस की बोतल सौंप देता है... शर्मा जी भी दुकानदार को दस रुपए थमाकर घर की राह लेते हैं...

शर्मा जी घर आ चुके हैं। डायनिंग टेबल पर बटर टोस्ट के साथ ऑमलेट तैयार है। वे सॉस की बोतल खोलते हुए अपनी श्रीमती जी से कहते हैं,

"जानती हो प्रिया, ये मुहल्ले का किरानावाला भी लोगों को लूटने में लगा है... अभी दस रुपएवाली इस बोतल के मुझसे सत्तर रुपए मांग रहा था... अजीब अंधेरगर्दी है... जब मैंने बताया कि यहीं 40 नंबर मकान में रहता हूं, तो उसने मुझे दस रुपए की बोतल दे दी।"

अब मिसेज शर्मा कुछ सोच कर थोड़ा मुस्कुराती हैं... फिर पतिदेव की हां में हां मिला देती हैं। शर्मा जी, नाश्ता पूरा करते हैं और कॉलेज के लिए निकल लेते हैं।

क़रीब दो घंटे बाद... अब मिसेज शर्मा किराने की दुकान पर हैं... तमाम दूसरी चीज़ों की खरीदारी के बाद दुकानदार अपने हिसाब में साठ रुपए अलग से जोड़ देता है। मिसेज शर्मा पूछती हैं,

"ये साठ रुपए किस बात के?"
"मैडम... आपको तो पता ही है। अभी कुछ देर पहले सर आए थे, सॉस की बड़ी बोतल दस रुपए में ले गए। अब साठ रुपए तो आप ही को देने होंगे ना..."
"ओ हो! चलो, ये लो तुम्हारे साठ रुपए। तुमने उन्हें बताया तो नहीं कि ये बोतल दस की नहीं सत्तर की आती है?"
"अरे नहीं... मैडम। एक बार गलती से ज़ुबान फ़िसल गई थी... लेकिन फिर मैंने ख़ुद को संभाल लिया।"

ये महज़ कहानी नहीं, बल्कि हक़ीक़त है... हक़ीक़त मेरे शर्मा अंकल की... वैसे तो शर्मा अंकल हमारे शहर के एक कॉलेज में मनोविज्ञान के प्रोफ़ेसर हैं... बीए, एमए, एम.फिल, पीएचडी और ना जाने क्या-क्या... उनके हाथों से पढ़ कर नामालूम कितने ही लड़के-लड़कियां आगे निकल गए... मगर, शर्मा अंकल हैं कि दुनियादारी से अब भी कुछ इतने बेख़बर हैं कि उन्हें 2009 भी 1990 सा लगता है... सोचता हूं, सचमुच! किसी फ़ील्ड में एक्सिलेंस के लिए कई बार हमें दुनिया और दुनियादारी से कितनी दूर होना पड़ता है...

Thursday 21 May, 2009

मूड बना है, फिर लिख रहा हूं

ब्लॉग की दुनिया में पूरे 105 दिन बाद लौटा हूं। इतने दिनों तक ना तो मैं कहीं व्यस्त था, ना बीमार था और ना ही कोई दूसरी परेशानी थी। अलबत्ता मूड नहीं था, इसलिए नहीं लिख रहा था। अब फिर से मूड बना है, तो लिख रहा हूं। ब्लॉग लिखने का ये भी एक ज़बरदस्त मज़ा है। जब चाहे ज्ञान दो और जब ज्ञान दे देकर जी भर जाए, तो चुप्पी साध लो। भई, मैंने तो ऐसा ही किया।
वैसे भी इतने दिनों तक ब्लॉगिंग की दुनिया से ग़ायब रहने के बाद मुझे इतना तो पता चल ही गया कि मैं कितने पानी में हूं। पता है, एग्रिगेटर्स पर बढ़ते पसंद और ब्लॉग पर टिप्पणियों की तादाद देखकर अक्सर खुशफ़हमी हुआ करती थी कि शायद बहुत बड़ा ब्लॉगर बन गया हूं। कुछ ऐसा, मानों मैं ब्लॉग लिखना बंद कर दूं तो मेरी पोस्ट ना पा कर मेरे पाठक दुबले हो जाएंगे। लेकिन ना तो कुछ ऐसा होना था और ना ही हुआ। हां, इतने दिनों में मुझे सिर्फ़ एक पाठक ने एक बार टेलीफ़ोन कर फिर से ब्लॉग लिखने की गुज़ारिश की... कहा, "अरे, आपने लिखना क्यों बंद कर दिया? आप तो बढ़िया लिखते हैं..." कुछ देर तक मैं भी सोचता रहा, सचमुच! क्या वाकई उसने ईमानदारी से ये बात कही या फिर यूं ही मेरी तरह मूड बना और फ़ोन उठा कर मुझसे बात कर ली! वैसे इस दौरान कई ऐसे दोस्तों ने मुझसे ब्लॉग के बारे में ज़रूर पूछा, जिनसे मैं हमेशा मिलता रहता हूं, जिनसे रेग्यूलर टच में रहता हूं। लेकिन उनके इस हाल-चाल लेने को मैं अपने ब्लॉग के लिए उनकी चाहत बिल्कुल नहीं मान सकता... असली चाहत तो शायद वही होगी, जो फ़ोन से आई थी... पता नहीं, पूरी असली थी भी या फिर सिर्फ़ मूड-मूड की बात थी... बहरहाल, अब फिर से प्रकट हुआ हूं तो अगली बार मूड बिगड़ने तक आपके साथ डटा रहूंगा...