Tuesday 28 July, 2009

पंचायती फ़ैसलों के निहितार्थ


हरियाणा के पंचायत एक के बाद एक जिस तरह से कहर ढा रहे हैं, उसकी रिपोर्टिंग करते हुए काफी दिनों से ब्लॉग में कुछ लिखने का मन हो रहा था। सोच रहा था कि हर वो बात लिखूं, जो अलग-अलग वजहों से या तो अपनी रिपोर्ट में शामिल नहीं सका या फिर लिखने के बावजूद उसे लोगों तक नहीं पहुंचा सका। आज वक़्त आ गया है। इस सिलसिले में सबसे पहले ज़िक्र उन दो वारदातों का, जिसमें पंच परमेश्वर की तरह नहीं, बल्कि दानव की तरह नज़र आए।
झज्जर के गांव ढराना के रविंदर नाम के एक लड़के ने पानीपत की रहनेवाली एक लड़की से शादी की। शादी के बाद से ही दोनों ढराना से दूर दिल्ली में रह रहे थे। लेकिन एक बार दोनों गांव क्या पहुंचे, उनके शादी की भेद खुल गई। दरअसल, ये लड़की जिस गोत्र की थी... उस गोत्र के लोगों की ढराना गांव में बड़ी तादाद है। बस! इन लोगों को दूसरे गोत्र के लड़के का अपनी गोत्र की लड़की को गांव ब्याह लाना नागवार गुज़रने लगा। जानते हैं क्यों? क्योंकि बात मूंछों की थी। (वैसे दुहाई परंपराओं और सगोत्र विवाह से उत्पन्न बीमारी के खतरों की दी गई।)
दरअसल, जिस गोत्र के लोग गांव में ज़्यादा हों, उस गोत्र की लड़की गांव में ब्याह लाने से वैसे लोगों का सिर नीचा हो जाता है, जो दिखावे की शान में जीते हैं। उन्हें तानाकशी का डर सताने लगता है। मसलन, "अरे तुम क्या ऊंची आवाज़ में बात कर रहे हो? तुम्हारी लड़की तो हमारे यहां बैठी है..." मतलब ये कि तुम लड़कीवाले हो। लिहाज़ा, दब कर रहो। झुक कर रहो। अब जिस गांव में जो गोत्र हावी हो, वो भला 'लड़कीवाले' बन कर चुप कैसे रहते? लिहाज़ा, उन्होंने परंपराओं की दुहाई दी और सुना दिया फ़रमान कि लड़के का पूरा परिवार ही गांव खाली कर दे, वरना कोई भी अंजाम भुगतने के लिए तैयार रहे। कोई भी अंजाम मतलब -- कोई भी। क़त्ल-ए-आम भी।
ढराना के इस परिवार के साथ आगे क्या हुआ, ये आपको बाद में बताता हूं। पहले जींद की दूसरी कहानी भी सुन लीजिए। यहां एक लड़के ने सगोत्र की लड़की से प्रेम विवाह किया। नतीजा ये हुआ कि लड़की को उसके घरवालों ने जबरन रोक लिया। जब बीवी नहीं मिली, तो थका-हारा लड़का कोर्ट की शरण में गया। कोर्ट ने पूरे लवाजमे के साथ गांव में वारंट अफ़सर को भेजा, ताकि लड़का अपनी बीवी वापस पा सके। लेकिन गांव में मौत लड़के का इंतज़ार कर रही थी। कबिलाई दौर में जी रहे गांववालों ने ससुराल के सामने ही पीट-पीट कर लड़के को मौत के घाट उतार दिया। वारंट अफ़सर की टांग टूट गई और पुलिसवालों ने हमेशा की तरह भाग निकले।
अब फिर से पहलेवाली कहानी पर। ढराना में पंचायत का गांव निकालावाली फ़रमान मिलने के बाद रविंदर के घरवाले पुलिस के पास गए। लेकिन पुलिस हाथ पर हाथ धरे बैठी रही। मैं जब इस सिलसिले में झज्जर के एसपी सौरभ सिंह के पास पहुंचा, तो उन्होंने कैमरे पर कुछ कहने से ही मना कर दिया। कैमरा और माइक डीएसपी की तरफ़ मोड़ दी। डीएसपी ने रटा-रटाया जवाब दिया, "किसी के साथ ज़्यादती नहीं होने दी जाएगी।" लेकिन रविंदर के घरवालों के साथ सबकुछ हो गया। गांव निकाले से नहीं बच पाने पर रविंदर ने ज़हर खाकर जान देने की कोशिश की और तब पुलिस ने रिपोर्ट दर्ज करने की खानापुरी की। लेकिन इसके बावजूद किसी को गिरफ्तार नहीं किया गया। रिपोर्टिंग के लिए पत्रकार पहुंचे, तो पुलिसवालों ने खड़े-खड़े गांववालों से उन्हें पिटवा दिया। इस सिलसिले में जब मैं आईजी से बात करने पहुंचा, तो उन्होंने एसपी से बात करने को कहा और एसपी ने डीएसपी से। आप समझ सकते हैं कि पुलिस का रवैया किस हद तक पलायन भरा रहा। अंजाम वही हुआ, जिसका डर था। एक तरफ़ जींद में सिर्फ़ मोहब्बत के गुनाह में लड़के का क़त्ल हो गया और दूसरी तरफ़ इसी गुनाह में एक पूरे परिवार को गांव छोड़ना पड़ा।
लेकिन असली कहानी इससे भी आगे है। क्या आप सोच सकते हैं कि जो लोग गांव में बैठे-बैठे क़ानून का मज़ाक बना रहे थे, क़त्ल-ए-आम कर रहे थे, शरीफ़ लोगों को तड़ी पार करवा रहे थे, वे कौन हैं? उनके ख़िलाफ़ कार्रवाई क्यों नहीं हो रही है? अगर आप कयास लगा सकते हैं, तो ठीक है... वरना मैं बताता हूं -- वो वोट बैंक हैं। और वोट बैंक से भला कौन सा सियासतदान और कौन सी सरकार पंगा लेगी? कुर्सी छोड़नी है क्या? फिर चाहे कोई गांव से जाए या फिर जान से... क्या फ़र्क पड़ता है!