Monday 17 August, 2009

पांच रुपए की क़ीमत!

किराए की बात किए बगैर कभी किसी रिक्शे पर बैठ जाइए। जहां जाना हो, वहां उतरिए। किराया पूछिए... और वो जितना मांगे, उससे पांच-दस रुपए ज़्यादा दे दीजिए। फिर देखिए क्या होता है? आपकी ये छोटी सी कोशिश उस ग़रीब के चेहरे पर एक कई मिनटों तक बरकरार रहनेवाली एक अनोखी मुस्कुराहट खींच देगी। क्या आपने कभी ऐसा किया है? अगर नहीं तो कर के देखिए। हाड़तोड़ मेहनत के बाद किसी से मिला ये छोटा सा ईनाम किसी रिक्शेवाले के चेहरे पर जो मुस्कुराहट लाता है... उसकी कोई कीमत नहीं हो सकती।
क्या आपने कभी सोचा है कि आमतौर पर रिक्शेवालों के साथ लोग कैसा सुलूक करते हैं? जवाब शायद थोड़ा तल्ख लगे, लेकिन मेरे हिसाब से पूछिए तो -- बिल्कुल कुत्ते जैसा। सड़क से गुज़रनेवाला हर शख्स रिक्शेवाले को ऐसे घूरता है, गालियां देता है... जैसे वो रिक्शावाला नहीं कोई चोर-गुंडा हो। साइड मिलने में देरी हुई नहीं कि गाली। पैसेंजर के लिए रुके नहीं कि गाली। और तो और मनमाफ़िक किराए में चलने के लिए तैयार हुए नहीं कि गाली। बिना ये सोचे-समझे या जाने कि उनकी मजबूरी क्या है, दस में आठ लोग उन्हें गालियां देते ही नज़र आते हैं। सबसे ज़्यादा अफ़सोस तो तब होता है जब एक-एक रिक्शे पर चार-पांच लोग कई बार ऐसे लद लेते हैं, जैसे रिक्शा खींचनेवाला कोई इंसान नहीं बल्कि जानवर हो। (वैसे मैं जानवरों के साथ भी ऐसे सुलूक का हिमायती नहीं हूं)
सच पूछिए तो महंगाई के इस दौर में पांच-दस रुपए से कुछ भी हासिल नहीं होता। शायद इसी वजह से ठीक-ठाक तनख्वाह पानेवाले किसी भी इंसान की जेब से पांच-दस रुपए कभी-कभार ज़्यादा चले जाने से बहुत फ़र्क भी नहीं पड़ता। लेकिन इन पांच-दस रुपयों के कम या ज़्यादा होने से किसी रिक्शेवाले की ज़िंदगी पर क्या फ़र्क पड़ता है, ये आसानी से समझा जा सकता है। रिक्शेवाले को पांच-दस रुपए कम देकर तो बहुतों ने ये महसूस किया होगा कि इससे उसे क्या फ़र्क पड़ता है, लेकिन कभी ज़्यादा देकर इसे महसूस करने की कोशिश कीजिए... गारंटी देता हूं, ऐसा सुकून मिलेगा... जिसे बयान नहीं कर सकेंगे।

Thursday 13 August, 2009

एक साबुन से इमोशनल अटैचमैंट

क्या साबुन जैसी किसी चीज़ से इमोशनल अटैचमैंट हो सकता है? सवाल अजीब है। लेकिन इसी अजीबियत में मेरे इस पोस्ट की आत्मा छिपी है। मेरे पास एक साबुन की टिकिया है, विप्रो शिकाकाई। हर दूसरे दिन उसे बालों में लगाता हूं और कुछ ऐसे धो-पोंछ कर साबुनदानी में रख देता हूं जैसे साबुन न हो सोने की टिकिया हो। हर बार ये साबुन अपने सिर में लगाते हुए इमोशनल हो जाता हूं और ये दुआ करता हूं कि ये साबुन कम से कम घिसे। इस टिकिया के हाथ लगने से पहले मैं हमेशा ही अपने बालों में शैंपू लगाता था। लेकिन विप्रो शिकाकाई की इस लाल टिकिया के मिलने के बाद से मैंने कोई शैंपू छुआ ही नहीं। पता नहीं ये मेरे लगातार कम होते बालों के लिए कितना फ़ायदेमंद है, लेकिन फिर भी ये टिकिया मुझे बाथरूम में घुसते ही भावुक बना देती है।
मैं काम-काज के सिलसिले में सालों-साल अपने मां-बाबा से दूर रहा हूं। लेकिन कुछ रोज पहले दोनों दिल्ली आए थे। मेरे साथ तकरीबन दो महीने रह कर दोनों जमशेदपुर लौट गए। जाते-जाते मेरी मां हमेशा की तरह ख़ूब रोईं... मैंने ये साबुन की टिकिया उनसे मांग कर पहले ही अपने पास रख ली थी। मेरी मां एक ख़ालिस हिंदुस्तानी घरेलू महिला हैं और चूल्हे-चौके के बाहर की दुनिया नहीं ज़्यादा जानती। शायद इसलिए आज भी शैंपू, कंडिशनर, वाइटालाइज़र और नरिसमैंट लौशन की जगह अपने बाल साबुन से धोती हैं... इस बार भी वो अपने साथ साबुन की यही एक टिकिया लेकर आई थीं। लेकिन उनकी हर चीज़ पर अपना हक़ मानते हुए मैंने उनसे ये टिकिया मांग ली। अब मां जमशेदपुर लौट गई हैं। लेकिन ये छोटी सी टिकिया मुझे बार-बार मां की याद दिलाती है, इमोशनल बनाती है। सोचता हूं कि अब कभी शैंपू नहीं लगाऊंगा... जब ये टिकिया ख़त्म हो जाएगी, तब एक और नई विप्रो शिकाकाई ले आऊंगा... लेकिन फिर ये भी सोचता हूं कि क्या उससे मां की खुशबू आएगी???

Tuesday 4 August, 2009

पहलवानों का दौर है ये!

मैं मीडिया में हूं, तो लोगों को मुझसे बड़ी उम्मीदें हैं। मेरी तरह दूसरे मीडियाकर्मियों से भी होती होंगी। शायद इसी उम्मीद की बदौलत एक टैक्सी ड्राइवर ने एक रोज़ मुझे अपनी एक परेशानी बताई। उसने कहा कि गांव में अपने घर के पास एक ट्यूबवेल खुदवाने के लिए उसने किसी आदमी को साठ हजा़र रुपए दिए थे। एक साल हो गए, लेकिन उस आदमी ने ना तो ट्यूबवेल खुदवाया और ना ही उसके पैसे वापस किए। ड्राइवर ने इसी साठ हज़ार के बहाने अपनी पूरी ज़िंदगी मेरे से सामने खोल कर रख दी। उसने बताया किस तरह वो मुश्किलों से पला-बढ़ा और एक-एक पैसा जोड़ कर अब गृहस्थी चला रहा है। उसका कारुणिक चित्रण सुनकर मुझे भी उस पर दया आ गई और मैंने वादा किया कि मैं उसके साठ हज़ार रुपए दिलवा कर दम लूंगा।
सबसे पहले मैंने सोनीपत में अपने एक पत्रकार मित्र को फ़ोन किया और अपने ड्राइवर साथी के रुपए दिलवाने में मदद करने की गुज़ारिश की। ड्राइवर का गांव सोनीपत में ही है। ड्राइवर ने पत्रकार से मुलाक़ात की। पत्रकार ने भी कोशिश की। पर कोशिश नाकाम हो गई। उसने मुझे फिर टेलीफ़ोन पर पूरी कहानी सुनाई। बड़ा अफ़सोस हुआ और इस बार मैंने सोनीपत में एक पुलिसवाले से रिक्वेस्ट किया। पुलिसवाले ने चुटकियों में काम करवा देने का वायदा किया, लेकिन इस बार भी चुटकी नहीं बजी। मैं भी भूल गया और बात आई-गई हो गई।
आज तकरीबन महीने भर बाद ड्राइवर फिर मुझे मिला। दुआ-सलाम के बाद उसने मेरा धन्यवाद किया। मैंने पूछा, "क्या आपके रुपए वापस मिल गए।" जवाब था, "हां, पहलवान जी ने दिलवा दिए।" मैं हैरान... मैं सोच रहा था कि ये शायद मेरी कोशिशों का नतीजा था... सोच इसलिए भी रहा था क्योंकि उसने मुझे थैंक्स कहा। पर पहलवान की बात सुन कर मुझे हैरानी हुई। आंखों की आंखों में मैंने पूरी कहानी पूछी और उसने भी मेरे मन की बात समझ कर बताना शुरू कर दिया, "मेरे एक साढ़ू भाई हैं... पहलवानी करते हैं। छह फीट हाईट है... लंबे-तगड़े... एक रोज़ मैंने उन्हें अपनी परेशानी बताई और उन्हें अपने साथ ले गया। कमर में अपनी पिस्टल लगा कर वे देनदार के पास गए और एक हफ्ते में पैसे लौटा देने को कहा।"
"फिर?"
"पता है सर! एक हफ्ते बाद जब मैं उसके पास गया, तो उसने सारे रुपए लौटा दिए और लस्सी पिलाते हुए कहने लगा -- मैं तो दो घंटे से आपका इंतज़ार कर रहा था।"
मैं सोचने लगा, सचमुच ये दौर ही पहलवानों का है।