Friday, 6 November 2009

बदक़िस्मत होकर जाना, कितना खुशक़िस्मत था!

प्रभाष जी चले गए... अब भी हमें यकीन नहीं हो रहा। ग़मगीन हूं। मेरे एक दोस्त तनसीम हैदर प्रभाष जी के पड़ोस में रहते हैं। उन्होंने प्रभाष जी के जाने को जैसा देखा, वैसा लिखा। भरे दिल से उनकी पोस्ट पेश कर रहा हूं।
प्रभाष जी चले गए। अब क्या लिखूं, कैसे लिखूं, कहां से शुरु करुं कुछ समझ में नही आता। आज सुबह 8 बजे घर का दरवाज़ा खोला, तो देखा घर के सामने भीड़ लगी है। मैं अपने दोनों बच्चों का हाथ थामे उन्हें स्कूल छोड़ने निकला था। भीड़ के चेहरे से साफ़ था कि मौका कुछ अच्छा नहीं है। मैं गाज़ियाबाद के जनसत्ता सोसायटी में हाल ही में शिफ्ट हुआ हूं। किराए का मकान है। चूंकि सोसायटी ही पत्रकारों की है, मेरे आसपास बहुत सारे पत्रकार रहते हैं। लेकिन सुबह जब पड़ोस के दरवाज़े पर भीड़ देखी तो रहा नहीं गया। पूछा और पता किया तो जो खबर कानों तक पहुंची उस पर अभी भी पूरी तरह यकीन नहीं कर पाया हूं। प्रभाष जोशी नही रहे।

वो प्रभाष जी, जिन्हे पढ़कर पत्रकारिता का ककहरा सीखा, जिन्हें देख देखकर उन जैसा बनने के ख्वाब संजोता रहा और आज जिनके चेलों से पत्रकारिता सीख रहा हूं, वही प्रभाष जी चले गए। उनके जाने की ख़बर ने मुझे बेचैन कर दिया। सचमुच हिंदी की पत्रकारिता आज यतीम हो गई। मैं जिस हाल में था उसी हाल में प्रभाष जी के घर जा पहुंचा। देखा रामकृपाल जी, नक़वी जी, प्रदीप सिंह जी, रामबहादुर राय जी, राजदीप जी, दीपक जी जैसे ना जाने कितने बड़े-बड़े पत्रकार वहां मौजूद थे। सब के सब प्रभाष जी को गए घंटों का वक्त गुज़रने के बाद शायद ख़ुद को उनके जाने का यकीन दिलाते हुए हाथ बांधे खड़े थे।

दिन चढ़ते-चढ़ते तमाम न्यूज़ चैनल, अख़बार, वेबसाइट्स, ब्लाग्स हर जगह प्रभाष जी मौजूद थे। जब तक मैं प्रभाष जी के पड़ोस में था, तबतक उन्हें हिंदी पत्रकारिता के शलाका पुरुष और एक अभिभावक के तौर पर मानता रहा, लेकिन प्रभाष जी क्या थे, सच पूछिए तो ये मुझे उनके जाने के बाद ही पता चला। सोचता हूं मैं कितना खुशकिस्मत था, जो प्रभाष जी के घर के बिल्कुल सामने रह रहा था। लेकिन अपनी इस खुशक़िस्मती का एहसास मुझे तब हुआ जब मैं बदक़िस्मत हो गया।

Friday, 18 September 2009

बॉस हो तो ऐसा...

मेरे एक मित्र हैं राजीव किशोर। कलम घसीटू हैं। लेकिन कई बार उनकी कलम कुछ ऐसा लिख जाती है कि बस पूछिए मत। आज आपको जो पढ़ाने जा रहा हूं, वो कुछ ऐसा ही है। राजीव ने अपने बॉस की जो तस्वीर खींची है, उसे देख कर आप भी सोचने पर मजबूर हो जाएंगे। आपकी प्रतिक्रियाओं का इंतज़ार रहेगा। तो पेश-ए-ख़िदमत है... "बॉस हो तो ऐसा"
ऐसा बॉस सब को मिले। खूब डांटे। बिना मतलब के। उसकी डांट का न सिर हो, न पैर। बस हमेशा मूड खराब कर दे। उसके रहने से दफ्तर आने का मन न करे। वो जाए दो दिन होली और रात दिवाली की तरह बीते। सिंगल कॉलम की खबर छूटने पर लीड की शक्ल में डांटे। ऐसा बॉस बड़ा अच्छा होता है। आपके काम आ सकता है। कैरियर बना सकता है। हमारे एक मित्र को ऐसे ही सनकी बॉस से पाला पड़ा था। खेत खाए गदहा, मार खाए जोल्हा की तर्ज पर काम करने वाला नायाब बॉस। अपने प्रतिद्वंद्वी से थर-थर कांपने वाला बॉस। जो बस उसकी हर करतूत पर बस सज़ा देने को तैयार रहते थे। सरेआम बेइज्जत करने वाले शानदार बॉस। जिन्हें अपने पर यकीन कम और दूसरों भरोसा ज्यादा था। वो मित्र उन दिनों बड़ा परेशान रहता था। एक दिन मिला। कहा यार अब कुछ कर जाउंगा। नौकरी छोड़ दूंगा। पीआरओ बन जाउंगा। मैंने कहा- सब्र कर। बस दुआ कर कि ये बॉस बस यूं ही टिका रहे। तेरा भला हो जाएगा। उसने मुझे जी भर के गाली दी। कहा- तुझ जैसे दोस्त मिले तो दुश्मनों की दरकार ही क्या है। लेकिन मेरा ऐसा कहने के पीछे एक ख़ास मकसद था। वो ये कि वो मेहनती था और मेहनती आदमी एक जगह पर ज़्यादा दिनों तक रहे तो उसकी क़ीमत कम हो जाती है। मैं सोचता था कि वो उस सरहद को लांघ दे। बड़े बाज़ार में बड़ा बिकाऊ माल बने। लेकिन ये सब तबतक संभव नहीं था जबतक वो उस कुएं में कछुए की तरह पड़ रहता। उसे प्यार मिलता तो उसके भीतर काम बदलने की बेचैनी कभी नहीं आती। मेरा यकीन सही निकला। एक दिन बॉस से टूटकर वो नया काम ढूंढने निकला और उसकी बात बन गई। उसे वो मिला जो उसे उस बॉस से काफी दूर ले गया। आज अचानक वो मुझसे टकरा गया। काफी हैप्पी-हैप्पी दिखा। और उन दिनों को याद कर शायद उसे समझ आ गया हो कि बॉस हो तो ऐसा जो जिंदगी के नए मायने समझाए और बदलाव और तरक्की का कारण बने। लेकिन ऐसा बॉस खुद अपने लिए जरा खतरनाक हो सकता है। वो कैसे ये सोचना हमारा नहीं खुद उस बॉस का काम है। हम तो बस यही कहेंगे कि बॉस हो तो ऐसा..।

Monday, 17 August 2009

पांच रुपए की क़ीमत!

किराए की बात किए बगैर कभी किसी रिक्शे पर बैठ जाइए। जहां जाना हो, वहां उतरिए। किराया पूछिए... और वो जितना मांगे, उससे पांच-दस रुपए ज़्यादा दे दीजिए। फिर देखिए क्या होता है? आपकी ये छोटी सी कोशिश उस ग़रीब के चेहरे पर एक कई मिनटों तक बरकरार रहनेवाली एक अनोखी मुस्कुराहट खींच देगी। क्या आपने कभी ऐसा किया है? अगर नहीं तो कर के देखिए। हाड़तोड़ मेहनत के बाद किसी से मिला ये छोटा सा ईनाम किसी रिक्शेवाले के चेहरे पर जो मुस्कुराहट लाता है... उसकी कोई कीमत नहीं हो सकती।
क्या आपने कभी सोचा है कि आमतौर पर रिक्शेवालों के साथ लोग कैसा सुलूक करते हैं? जवाब शायद थोड़ा तल्ख लगे, लेकिन मेरे हिसाब से पूछिए तो -- बिल्कुल कुत्ते जैसा। सड़क से गुज़रनेवाला हर शख्स रिक्शेवाले को ऐसे घूरता है, गालियां देता है... जैसे वो रिक्शावाला नहीं कोई चोर-गुंडा हो। साइड मिलने में देरी हुई नहीं कि गाली। पैसेंजर के लिए रुके नहीं कि गाली। और तो और मनमाफ़िक किराए में चलने के लिए तैयार हुए नहीं कि गाली। बिना ये सोचे-समझे या जाने कि उनकी मजबूरी क्या है, दस में आठ लोग उन्हें गालियां देते ही नज़र आते हैं। सबसे ज़्यादा अफ़सोस तो तब होता है जब एक-एक रिक्शे पर चार-पांच लोग कई बार ऐसे लद लेते हैं, जैसे रिक्शा खींचनेवाला कोई इंसान नहीं बल्कि जानवर हो। (वैसे मैं जानवरों के साथ भी ऐसे सुलूक का हिमायती नहीं हूं)
सच पूछिए तो महंगाई के इस दौर में पांच-दस रुपए से कुछ भी हासिल नहीं होता। शायद इसी वजह से ठीक-ठाक तनख्वाह पानेवाले किसी भी इंसान की जेब से पांच-दस रुपए कभी-कभार ज़्यादा चले जाने से बहुत फ़र्क भी नहीं पड़ता। लेकिन इन पांच-दस रुपयों के कम या ज़्यादा होने से किसी रिक्शेवाले की ज़िंदगी पर क्या फ़र्क पड़ता है, ये आसानी से समझा जा सकता है। रिक्शेवाले को पांच-दस रुपए कम देकर तो बहुतों ने ये महसूस किया होगा कि इससे उसे क्या फ़र्क पड़ता है, लेकिन कभी ज़्यादा देकर इसे महसूस करने की कोशिश कीजिए... गारंटी देता हूं, ऐसा सुकून मिलेगा... जिसे बयान नहीं कर सकेंगे।

Thursday, 13 August 2009

एक साबुन से इमोशनल अटैचमैंट

क्या साबुन जैसी किसी चीज़ से इमोशनल अटैचमैंट हो सकता है? सवाल अजीब है। लेकिन इसी अजीबियत में मेरे इस पोस्ट की आत्मा छिपी है। मेरे पास एक साबुन की टिकिया है, विप्रो शिकाकाई। हर दूसरे दिन उसे बालों में लगाता हूं और कुछ ऐसे धो-पोंछ कर साबुनदानी में रख देता हूं जैसे साबुन न हो सोने की टिकिया हो। हर बार ये साबुन अपने सिर में लगाते हुए इमोशनल हो जाता हूं और ये दुआ करता हूं कि ये साबुन कम से कम घिसे। इस टिकिया के हाथ लगने से पहले मैं हमेशा ही अपने बालों में शैंपू लगाता था। लेकिन विप्रो शिकाकाई की इस लाल टिकिया के मिलने के बाद से मैंने कोई शैंपू छुआ ही नहीं। पता नहीं ये मेरे लगातार कम होते बालों के लिए कितना फ़ायदेमंद है, लेकिन फिर भी ये टिकिया मुझे बाथरूम में घुसते ही भावुक बना देती है।
मैं काम-काज के सिलसिले में सालों-साल अपने मां-बाबा से दूर रहा हूं। लेकिन कुछ रोज पहले दोनों दिल्ली आए थे। मेरे साथ तकरीबन दो महीने रह कर दोनों जमशेदपुर लौट गए। जाते-जाते मेरी मां हमेशा की तरह ख़ूब रोईं... मैंने ये साबुन की टिकिया उनसे मांग कर पहले ही अपने पास रख ली थी। मेरी मां एक ख़ालिस हिंदुस्तानी घरेलू महिला हैं और चूल्हे-चौके के बाहर की दुनिया नहीं ज़्यादा जानती। शायद इसलिए आज भी शैंपू, कंडिशनर, वाइटालाइज़र और नरिसमैंट लौशन की जगह अपने बाल साबुन से धोती हैं... इस बार भी वो अपने साथ साबुन की यही एक टिकिया लेकर आई थीं। लेकिन उनकी हर चीज़ पर अपना हक़ मानते हुए मैंने उनसे ये टिकिया मांग ली। अब मां जमशेदपुर लौट गई हैं। लेकिन ये छोटी सी टिकिया मुझे बार-बार मां की याद दिलाती है, इमोशनल बनाती है। सोचता हूं कि अब कभी शैंपू नहीं लगाऊंगा... जब ये टिकिया ख़त्म हो जाएगी, तब एक और नई विप्रो शिकाकाई ले आऊंगा... लेकिन फिर ये भी सोचता हूं कि क्या उससे मां की खुशबू आएगी???

Tuesday, 4 August 2009

पहलवानों का दौर है ये!

मैं मीडिया में हूं, तो लोगों को मुझसे बड़ी उम्मीदें हैं। मेरी तरह दूसरे मीडियाकर्मियों से भी होती होंगी। शायद इसी उम्मीद की बदौलत एक टैक्सी ड्राइवर ने एक रोज़ मुझे अपनी एक परेशानी बताई। उसने कहा कि गांव में अपने घर के पास एक ट्यूबवेल खुदवाने के लिए उसने किसी आदमी को साठ हजा़र रुपए दिए थे। एक साल हो गए, लेकिन उस आदमी ने ना तो ट्यूबवेल खुदवाया और ना ही उसके पैसे वापस किए। ड्राइवर ने इसी साठ हज़ार के बहाने अपनी पूरी ज़िंदगी मेरे से सामने खोल कर रख दी। उसने बताया किस तरह वो मुश्किलों से पला-बढ़ा और एक-एक पैसा जोड़ कर अब गृहस्थी चला रहा है। उसका कारुणिक चित्रण सुनकर मुझे भी उस पर दया आ गई और मैंने वादा किया कि मैं उसके साठ हज़ार रुपए दिलवा कर दम लूंगा।
सबसे पहले मैंने सोनीपत में अपने एक पत्रकार मित्र को फ़ोन किया और अपने ड्राइवर साथी के रुपए दिलवाने में मदद करने की गुज़ारिश की। ड्राइवर का गांव सोनीपत में ही है। ड्राइवर ने पत्रकार से मुलाक़ात की। पत्रकार ने भी कोशिश की। पर कोशिश नाकाम हो गई। उसने मुझे फिर टेलीफ़ोन पर पूरी कहानी सुनाई। बड़ा अफ़सोस हुआ और इस बार मैंने सोनीपत में एक पुलिसवाले से रिक्वेस्ट किया। पुलिसवाले ने चुटकियों में काम करवा देने का वायदा किया, लेकिन इस बार भी चुटकी नहीं बजी। मैं भी भूल गया और बात आई-गई हो गई।
आज तकरीबन महीने भर बाद ड्राइवर फिर मुझे मिला। दुआ-सलाम के बाद उसने मेरा धन्यवाद किया। मैंने पूछा, "क्या आपके रुपए वापस मिल गए।" जवाब था, "हां, पहलवान जी ने दिलवा दिए।" मैं हैरान... मैं सोच रहा था कि ये शायद मेरी कोशिशों का नतीजा था... सोच इसलिए भी रहा था क्योंकि उसने मुझे थैंक्स कहा। पर पहलवान की बात सुन कर मुझे हैरानी हुई। आंखों की आंखों में मैंने पूरी कहानी पूछी और उसने भी मेरे मन की बात समझ कर बताना शुरू कर दिया, "मेरे एक साढ़ू भाई हैं... पहलवानी करते हैं। छह फीट हाईट है... लंबे-तगड़े... एक रोज़ मैंने उन्हें अपनी परेशानी बताई और उन्हें अपने साथ ले गया। कमर में अपनी पिस्टल लगा कर वे देनदार के पास गए और एक हफ्ते में पैसे लौटा देने को कहा।"
"फिर?"
"पता है सर! एक हफ्ते बाद जब मैं उसके पास गया, तो उसने सारे रुपए लौटा दिए और लस्सी पिलाते हुए कहने लगा -- मैं तो दो घंटे से आपका इंतज़ार कर रहा था।"
मैं सोचने लगा, सचमुच ये दौर ही पहलवानों का है।

Tuesday, 28 July 2009

पंचायती फ़ैसलों के निहितार्थ


हरियाणा के पंचायत एक के बाद एक जिस तरह से कहर ढा रहे हैं, उसकी रिपोर्टिंग करते हुए काफी दिनों से ब्लॉग में कुछ लिखने का मन हो रहा था। सोच रहा था कि हर वो बात लिखूं, जो अलग-अलग वजहों से या तो अपनी रिपोर्ट में शामिल नहीं सका या फिर लिखने के बावजूद उसे लोगों तक नहीं पहुंचा सका। आज वक़्त आ गया है। इस सिलसिले में सबसे पहले ज़िक्र उन दो वारदातों का, जिसमें पंच परमेश्वर की तरह नहीं, बल्कि दानव की तरह नज़र आए।
झज्जर के गांव ढराना के रविंदर नाम के एक लड़के ने पानीपत की रहनेवाली एक लड़की से शादी की। शादी के बाद से ही दोनों ढराना से दूर दिल्ली में रह रहे थे। लेकिन एक बार दोनों गांव क्या पहुंचे, उनके शादी की भेद खुल गई। दरअसल, ये लड़की जिस गोत्र की थी... उस गोत्र के लोगों की ढराना गांव में बड़ी तादाद है। बस! इन लोगों को दूसरे गोत्र के लड़के का अपनी गोत्र की लड़की को गांव ब्याह लाना नागवार गुज़रने लगा। जानते हैं क्यों? क्योंकि बात मूंछों की थी। (वैसे दुहाई परंपराओं और सगोत्र विवाह से उत्पन्न बीमारी के खतरों की दी गई।)
दरअसल, जिस गोत्र के लोग गांव में ज़्यादा हों, उस गोत्र की लड़की गांव में ब्याह लाने से वैसे लोगों का सिर नीचा हो जाता है, जो दिखावे की शान में जीते हैं। उन्हें तानाकशी का डर सताने लगता है। मसलन, "अरे तुम क्या ऊंची आवाज़ में बात कर रहे हो? तुम्हारी लड़की तो हमारे यहां बैठी है..." मतलब ये कि तुम लड़कीवाले हो। लिहाज़ा, दब कर रहो। झुक कर रहो। अब जिस गांव में जो गोत्र हावी हो, वो भला 'लड़कीवाले' बन कर चुप कैसे रहते? लिहाज़ा, उन्होंने परंपराओं की दुहाई दी और सुना दिया फ़रमान कि लड़के का पूरा परिवार ही गांव खाली कर दे, वरना कोई भी अंजाम भुगतने के लिए तैयार रहे। कोई भी अंजाम मतलब -- कोई भी। क़त्ल-ए-आम भी।
ढराना के इस परिवार के साथ आगे क्या हुआ, ये आपको बाद में बताता हूं। पहले जींद की दूसरी कहानी भी सुन लीजिए। यहां एक लड़के ने सगोत्र की लड़की से प्रेम विवाह किया। नतीजा ये हुआ कि लड़की को उसके घरवालों ने जबरन रोक लिया। जब बीवी नहीं मिली, तो थका-हारा लड़का कोर्ट की शरण में गया। कोर्ट ने पूरे लवाजमे के साथ गांव में वारंट अफ़सर को भेजा, ताकि लड़का अपनी बीवी वापस पा सके। लेकिन गांव में मौत लड़के का इंतज़ार कर रही थी। कबिलाई दौर में जी रहे गांववालों ने ससुराल के सामने ही पीट-पीट कर लड़के को मौत के घाट उतार दिया। वारंट अफ़सर की टांग टूट गई और पुलिसवालों ने हमेशा की तरह भाग निकले।
अब फिर से पहलेवाली कहानी पर। ढराना में पंचायत का गांव निकालावाली फ़रमान मिलने के बाद रविंदर के घरवाले पुलिस के पास गए। लेकिन पुलिस हाथ पर हाथ धरे बैठी रही। मैं जब इस सिलसिले में झज्जर के एसपी सौरभ सिंह के पास पहुंचा, तो उन्होंने कैमरे पर कुछ कहने से ही मना कर दिया। कैमरा और माइक डीएसपी की तरफ़ मोड़ दी। डीएसपी ने रटा-रटाया जवाब दिया, "किसी के साथ ज़्यादती नहीं होने दी जाएगी।" लेकिन रविंदर के घरवालों के साथ सबकुछ हो गया। गांव निकाले से नहीं बच पाने पर रविंदर ने ज़हर खाकर जान देने की कोशिश की और तब पुलिस ने रिपोर्ट दर्ज करने की खानापुरी की। लेकिन इसके बावजूद किसी को गिरफ्तार नहीं किया गया। रिपोर्टिंग के लिए पत्रकार पहुंचे, तो पुलिसवालों ने खड़े-खड़े गांववालों से उन्हें पिटवा दिया। इस सिलसिले में जब मैं आईजी से बात करने पहुंचा, तो उन्होंने एसपी से बात करने को कहा और एसपी ने डीएसपी से। आप समझ सकते हैं कि पुलिस का रवैया किस हद तक पलायन भरा रहा। अंजाम वही हुआ, जिसका डर था। एक तरफ़ जींद में सिर्फ़ मोहब्बत के गुनाह में लड़के का क़त्ल हो गया और दूसरी तरफ़ इसी गुनाह में एक पूरे परिवार को गांव छोड़ना पड़ा।
लेकिन असली कहानी इससे भी आगे है। क्या आप सोच सकते हैं कि जो लोग गांव में बैठे-बैठे क़ानून का मज़ाक बना रहे थे, क़त्ल-ए-आम कर रहे थे, शरीफ़ लोगों को तड़ी पार करवा रहे थे, वे कौन हैं? उनके ख़िलाफ़ कार्रवाई क्यों नहीं हो रही है? अगर आप कयास लगा सकते हैं, तो ठीक है... वरना मैं बताता हूं -- वो वोट बैंक हैं। और वोट बैंक से भला कौन सा सियासतदान और कौन सी सरकार पंगा लेगी? कुर्सी छोड़नी है क्या? फिर चाहे कोई गांव से जाए या फिर जान से... क्या फ़र्क पड़ता है!

Thursday, 28 May 2009

दुनिया और दुनियादारी

"वो दस रुपएवाली सॉस की बोतल देना..."
"क्या? दस रुपएवाली!"
"हां, हां... हर महीने तो आती है तुम्हारे यहां से..."
"लेकिन भाई साहब, दस रुपए में तो कोई भी सॉस की बोतल नहीं आती..."
"क्या बात कर रहे हो, वो तो रखी है सामने... वही तो है, दस रुपएवाली बोतल..."
"लेकिन वो सॉस तो सत्तर रुपए की है..."
"अजीब बात करते हो, अभी पिछले महीने ही दस रुपए की आई है..."

अब दुकानदार कुछ समझने की कोशिश करता है... और फिर खरीदार से पूछता है,

"कहीं आप 40 नंबरवाले शर्मा जी तो नहीं?"
"अरे हां भई, मैं ही प्रो. शर्मा हूं। चलो, अब देर मत करो मुझे कॉलेज जाने में देर हो रही है..."

अब दुकानदार जल्दी से शर्मा जी को सॉस की बोतल सौंप देता है... शर्मा जी भी दुकानदार को दस रुपए थमाकर घर की राह लेते हैं...

शर्मा जी घर आ चुके हैं। डायनिंग टेबल पर बटर टोस्ट के साथ ऑमलेट तैयार है। वे सॉस की बोतल खोलते हुए अपनी श्रीमती जी से कहते हैं,

"जानती हो प्रिया, ये मुहल्ले का किरानावाला भी लोगों को लूटने में लगा है... अभी दस रुपएवाली इस बोतल के मुझसे सत्तर रुपए मांग रहा था... अजीब अंधेरगर्दी है... जब मैंने बताया कि यहीं 40 नंबर मकान में रहता हूं, तो उसने मुझे दस रुपए की बोतल दे दी।"

अब मिसेज शर्मा कुछ सोच कर थोड़ा मुस्कुराती हैं... फिर पतिदेव की हां में हां मिला देती हैं। शर्मा जी, नाश्ता पूरा करते हैं और कॉलेज के लिए निकल लेते हैं।

क़रीब दो घंटे बाद... अब मिसेज शर्मा किराने की दुकान पर हैं... तमाम दूसरी चीज़ों की खरीदारी के बाद दुकानदार अपने हिसाब में साठ रुपए अलग से जोड़ देता है। मिसेज शर्मा पूछती हैं,

"ये साठ रुपए किस बात के?"
"मैडम... आपको तो पता ही है। अभी कुछ देर पहले सर आए थे, सॉस की बड़ी बोतल दस रुपए में ले गए। अब साठ रुपए तो आप ही को देने होंगे ना..."
"ओ हो! चलो, ये लो तुम्हारे साठ रुपए। तुमने उन्हें बताया तो नहीं कि ये बोतल दस की नहीं सत्तर की आती है?"
"अरे नहीं... मैडम। एक बार गलती से ज़ुबान फ़िसल गई थी... लेकिन फिर मैंने ख़ुद को संभाल लिया।"

ये महज़ कहानी नहीं, बल्कि हक़ीक़त है... हक़ीक़त मेरे शर्मा अंकल की... वैसे तो शर्मा अंकल हमारे शहर के एक कॉलेज में मनोविज्ञान के प्रोफ़ेसर हैं... बीए, एमए, एम.फिल, पीएचडी और ना जाने क्या-क्या... उनके हाथों से पढ़ कर नामालूम कितने ही लड़के-लड़कियां आगे निकल गए... मगर, शर्मा अंकल हैं कि दुनियादारी से अब भी कुछ इतने बेख़बर हैं कि उन्हें 2009 भी 1990 सा लगता है... सोचता हूं, सचमुच! किसी फ़ील्ड में एक्सिलेंस के लिए कई बार हमें दुनिया और दुनियादारी से कितनी दूर होना पड़ता है...

Thursday, 21 May 2009

मूड बना है, फिर लिख रहा हूं

ब्लॉग की दुनिया में पूरे 105 दिन बाद लौटा हूं। इतने दिनों तक ना तो मैं कहीं व्यस्त था, ना बीमार था और ना ही कोई दूसरी परेशानी थी। अलबत्ता मूड नहीं था, इसलिए नहीं लिख रहा था। अब फिर से मूड बना है, तो लिख रहा हूं। ब्लॉग लिखने का ये भी एक ज़बरदस्त मज़ा है। जब चाहे ज्ञान दो और जब ज्ञान दे देकर जी भर जाए, तो चुप्पी साध लो। भई, मैंने तो ऐसा ही किया।
वैसे भी इतने दिनों तक ब्लॉगिंग की दुनिया से ग़ायब रहने के बाद मुझे इतना तो पता चल ही गया कि मैं कितने पानी में हूं। पता है, एग्रिगेटर्स पर बढ़ते पसंद और ब्लॉग पर टिप्पणियों की तादाद देखकर अक्सर खुशफ़हमी हुआ करती थी कि शायद बहुत बड़ा ब्लॉगर बन गया हूं। कुछ ऐसा, मानों मैं ब्लॉग लिखना बंद कर दूं तो मेरी पोस्ट ना पा कर मेरे पाठक दुबले हो जाएंगे। लेकिन ना तो कुछ ऐसा होना था और ना ही हुआ। हां, इतने दिनों में मुझे सिर्फ़ एक पाठक ने एक बार टेलीफ़ोन कर फिर से ब्लॉग लिखने की गुज़ारिश की... कहा, "अरे, आपने लिखना क्यों बंद कर दिया? आप तो बढ़िया लिखते हैं..." कुछ देर तक मैं भी सोचता रहा, सचमुच! क्या वाकई उसने ईमानदारी से ये बात कही या फिर यूं ही मेरी तरह मूड बना और फ़ोन उठा कर मुझसे बात कर ली! वैसे इस दौरान कई ऐसे दोस्तों ने मुझसे ब्लॉग के बारे में ज़रूर पूछा, जिनसे मैं हमेशा मिलता रहता हूं, जिनसे रेग्यूलर टच में रहता हूं। लेकिन उनके इस हाल-चाल लेने को मैं अपने ब्लॉग के लिए उनकी चाहत बिल्कुल नहीं मान सकता... असली चाहत तो शायद वही होगी, जो फ़ोन से आई थी... पता नहीं, पूरी असली थी भी या फिर सिर्फ़ मूड-मूड की बात थी... बहरहाल, अब फिर से प्रकट हुआ हूं तो अगली बार मूड बिगड़ने तक आपके साथ डटा रहूंगा...

Wednesday, 4 February 2009

ये मंदी भी बड़ी 'भूतिया चीज़' है!

ये मंदी भी बड़ी अजीब शय है। कहीं-कहीं बहुत बुरी तरह छाई हुई है, तो कहीं दूर-दूर तक इसका नामों-निशान नहीं दिखता। कहीं मंदी की वजह से लोगों की नौकरियां जा रही है। सैलरी रुक रही है, इन्क्रीमैंट बंद कर दिए गए हैं और कहीं शिल्पा शेट्टी और राज कुंद्रा सरीखे लोग आईपीएल में करोड़ों रुपए इनवेस्ट कर रहे हैं, होंडा से लेकर फ़िएट तक अपने नए और लक्ज़री मॉडल्स बाज़ार में लॉंन्च कर रहे हैं और दिल्ली में शाहरुख ख़ान टैग ह्यूअर की तीन लाख रुपए की घड़ी प्रमोट कर रहे हैं।

समझ में नहीं आता है कि मंदी है भी या नहीं! है, तो ठीक कहां-कहां है और नहीं है तो कहां नहीं है? जहां है वहां क्यों है और जहां नहीं है वहां क्यों नहीं है? बाज़ार की समझ रखनेवाले लोग शायद इस अजीबोग़रीब मंदी को समझ भी लें, लेकिन मुझ जैसे आम आदमी के लिए तो ये किसी पहेली से कम नहीं है। सिर्फ़ मैं ही नहीं, मुझे अपने आस-पास भी ज़्यादातर ऐसे ही लोग नज़र आते हैं, जो मंदी से डरे हुए हैं लेकिन ये मंदी कहां, क्यों, कैसे और कब (से और तक) है, ये नहीं जानते। पूछने पर कोई इसे इकोनॉमिक टेररिज़्म बताने लगता है, तो कोई अमेरिका समेत दुनिया के तमाम पूंजीपतियों की साज़िश समझाने लगता है। कोई कहता है कि आज ये मंदी इसलिए आई है, क्योंकि कल तक दुनिया की बड़ी-बड़ी कंपनियों और बैंकों ने कृत्रिम तरीक़े से अपने बाज़ार को बढ़ाने की कोशिश की थी। समझ में नहीं आता कि आख़िर अब अचानक क्या हो गया कि इस बनावटी बाज़ार का राज़ दुनिया के सामने खुल गया और घनघोर मंदी पसर गई? इसी से जुड़ा सवाल एक ये भी है कि आख़िर ये दूर कब तक होगी और होगी भी या नहीं?

वैसे ये मंदी कहीं और हो या ना हो, न्यूज़ इंडस्ट्री को इसने ज़रूर अपनी ज़द में ले लिया है। न्यूज़ और मीडिया के लोग हर रोज़ ना सिर्फ़ अपने आस-पास मंदी-मंदी सुन रहे हैं, बल्कि बंद होते अख़बार के एडिशनों और चैनलों के सिकुड़ते खर्च-तंत्रों में इसे देख भी रहे हैं। लेकिन हैरानी तब होती है कि जब शॉपिंग मॉल्स में पहले की तरह ही भीड़ भी नज़र आती है और ख़रीदार भी। मकान मालिक पहले से भी बढ़ कर दस फ़ीसदी से ज़्यादा किराया बढ़ाने की ज़िद करता है और होंडा की नई मॉडल सररर्र से निकल जाती है... मुझे तो ये मंदी बड़ी भूतिया लगती है। आपके सामने अगर इस मंदी के राज़ खुले हों, ज़रूर बताएं। शुक्रगुज़ार रहूंगा।

Monday, 26 January 2009

सीने में जलती मैंगलोर की आग!


तालिबान ने हाल ही में अपने दबदबे वाले इलाकों में कई गैरइंसानी फ़रमान जारी किए हैं। इनमें लड़कियों के नेल पॉलिश लगाने पर ऊंगलियां काट लेने, बिना बुर्के के बाहर निकलने के पर संगसार कर मौत के घाट उतारने और ज़ोर से हंसने पर सरेआम सज़ा देने की बात कही गई है। वैसे तालिबान इससे दो कदम आगे बढ़ कर एक ऐसे टीचर की जान भी ले चुका है, जिसने उनके छोटे पायजामे पहनने के फ़रमान की अनसुनी कर दी थी... जब-जब ऐसी ख़बरें टीवी पर देखता हूं या अख़बारों में पढ़ता हूं, तो मन कड़वाहट से भर उठता है। सोचता हूं कि कोई इंसान भला किसी दूसरे इंसान की ज़िंदगी के कायदे-कानून कैसे तय कर सकता है? वो भी गैरइंसानी तरीके से! वो कैसा समाज है, जहां मज़हब के नाम पर किसी के हंसने पर भी रोक लगा दी जाए और हंसते ही जान चली जाए! जितनी बार सोचता हूं, हैरान हो जाता हूं।
लेकिन उससे भी ज़्यादा हैरानी तब होती है, जब श्रीराम सेना को मैंगलोर के पब में गुंडागर्दी करते देखता हूं। टीवी के फुटेज बताते हैं कि श्रीराम सेना के गुंडों ने पब में धावा बोलकर लड़के-लड़कियों को बेतरह पीटा और कहा कि जब-जब हिंदुस्तानी संस्कृति पर कोई हमला होगा, वे ऐसे ही कार्रवाई करेंगे। तालिबान की हालत पर तो सिर्फ़ अफ़सोस ही हो रहा था, लेकिन मंगलूर की हालत देख कर ख़ून खौल उठा। फर्ज़ कीजिए आप अपने दोस्तों के साथ कहीं इत्मीनान से बैठे चाय-कॉफी पी रहे हों या फिर शराब से ही हलक तर कर रहे हों, समाज के ऐसे पहरेदार वहां पहुंचकर बिना किसी बात के आपको बुरी तरह पीटने लगें, तो कैसा लगेगा? या फिर पिटती हुई लड़कियों में कोई आपकी बहन या बेटी हो, तो फिर तकलीफ़ कितनी बढ़ जाएगी? तस्वीरों में पिटते नौजवानों को देख कर लगा जैसे श्रीराम सेना के हाथों मैं भी घिर गया हूं और समाज के ऐसे ही ठेकेदार मुझे भी बुरी तरह पीट रहे हैं। गुस्से के मारे गर्मी लगने लगी और लगा ऐसे ठेकेदारों के साथ मैं भी कुछ वैसा ही करूं, जैसा उन्होंने बेगुनाहों के साथ किया है। लेकिन अफ़सोस... क़ानून पर भरोसा करनेवाले ऐसा कुछ नहीं कर सकते।
ऐसा नहीं है कि सभ्यता संस्कृति के नाम पर ऐसा पहली बार हुआ है। इस बार तो ये फुटेज टीवी पर दिखा, सालों-साल रिपोर्टिंग के दौरान कभी वैलेंटाइन डे के मौके पर, तो कभी किसी और दिन, ऐसा मंज़र अपनी आंखों से लाइव देखा है, लेकिन ऐसे गुंडों को सिर्फ़ रोकने की कोशिश करने या फिर उन्हें अच्छा-बुरा समझाने के और कुछ भी नहीं कर सका हूं। अक्सर अपनी इस लाचारगी पर बड़ी कोफ़्त होती है। अपनी हैसियत के छुटपन का अहसास भी सताने लगता है। लेकिन... बस यहीं तक। इसके आगे और कुछ नहीं होता। या फिर यूं कहिए कि हो नहीं सकता...
मुझे यकीन है कि ऐसी गुंडागर्दी देख कर आपकी हालत भी ऐसी ही होती होगी। ज़रूरत है कि हम घर के तालिबान से सबसे पहले निबटें और हमारे चुने हुए नुमाइंदों पर क़ानून की हद में रहते हुए ऐसे गुंडों के साथ कुछ ऐसी सख्ती के लिए दबाव बनाएं कि फिर कोई गुंडा पैदा होने से पहले दस बार सोचे... एक बेहतर कल की उम्मीद के साथ...
(चित्र सौजन्य- www.daijiworld.com)