Thursday 20 November, 2008

हालात से नाउम्मीद होती ज़िंदगी!

आज अपने ब्लॉग पर चंद पंक्तियां मेरे दोस्त रवीश रंजन शुक्ला की कलम से। दिल्ली में रह कर पत्रकारिता कर रहे रवीश भी मेरी तरह एक छोटे शहर से हैं। रवीश की ख़ासियत ये है कि वे एक बेहद संवदेनशील इंसान हैं और अपने आस-पास होनेवाले तमाम वाकयों से खुद को अलग नहीं रख पाते। कुछ रोज़ पहले रवीश को एक वाकये ने बुरी तरह झकझोर कर रख दिया। उन्होंने मुझसे दिल की बात कही और मैंने ही उन्हें ये सब ब्लॉग पर लिखने का सुझाव दिया। बाकी जो भी है, आपके सामने है --

अभी थोड़े दिन पहले मैं दीपावली में अपने घर गया था। घर जाते ही पुराने दोस्तों की याद आती है। इन्हीं में से एक मेरा दोस्त था राकेश साहू। दरम्याना कद, मुस्कुराता सांवला चेहरा, ब्लैक बेल्ट खिलाड़ी। जिंदगी में सफलता या असफलता से कोई लेना देना नहीं। हमेशा दूसरों के काम आना, साहित्य पढ़ना और रंगकर्म में वक्त निकालना। बीएसएसी भी झोंके में पास कर डाली थी। हाल के दिनों में संपर्क उससे कम हो गया था, क्योंकि मैं अपने काम से फ़ारिग नहीं हो पाता और वो अपनी मटरगश्ती से। राकेश साहू अजीब था। वैसा ही अजीब जैसे किसी कस्बाई शहर का आम लड़का होता है।
जीवन में शायद उसने एक गलती की थी। शादी करने की। खैर, घर पहुंचने के दो दिन बाद एक दिन अचानक मेरे पास एक दोस्त महेंद्र का फोन आया। उससे पता चला कि राकेश साहू की हत्या हो गई। पुलिस ने आदतन बिना शिनाख्त किए उसकी लाश को जला डाला। मैं और महेंद्र हैरान। हमारी आंखों के सामने उसका चेहरा घूमा। हमने बहराईच की कोतवाली में जाकर खुद शिनाख्त करने का फैसला किया। कोतवाली की ओर जाते कई बार दिमाग ने कहा कि भगवान करे राकेश साहू की फोटो न हो। लेकिन मुंह में पान दबाए कोतवाल साहब ने बड़े नखरे दिखाकर फोटो दिखाया तो वो राकेश ही था। आंखें खुली, गर्दन पर गहरा ज़ख्म, हमारी सुधबुध थोड़े समय के लिए चली गई। थोड़ी देर बाद कोतवाल साहब को याद आई कि उनके सामने खड़े दो सज्जन में से एक पत्रकार है और दूसरा अधिकारी, तब कुर्सी मंगवाई, हमें बिठाया। और फिर शुरू की हत्या को दुर्घटना का जामा पहनाने की कहानी।
दरअसल शादी के बाद राकेश की अनबन उससे ससुराल वालों से थी और राकेश की शादी का मामला कोर्ट में चल रहा था। उसने खुद भी कई बार हत्या हो जाने की आशंका जताई थी। पुलिस को भी ये बात मालूम थी, लेकिन बहराईच पुलिस ने ना तो लाश की अलग-अलग एंगेल से फोटो करवाई ना ही कोई सबूत इकट्ठा करने की कोशिश की। राकेश के शरीर पर से शर्ट गायब थी। पैरों के जूते और मोजे नदारद थे। जेब से पैसे और मोबाइल गायब थे। कुछ भी तो ढूंढने की कोशिश नहीं की। क़त्ल का मकसद मौजूद था। मौके-ए-वारदात और पास की दीवार पर छिटके खून से पहली नज़र में ही ये हत्या का मामला लग रहा था। लेकिन पुलिस का कहना था कि टैक्टर के हल से कटकर उसकी मौत हुई है।
पुलिस का यह नाकारा रवैया देखकर हम हैरान थे। हम शाम को अखबार के दफ्तर पहुंचे। कुछ एक अखबारी दोस्तों के ज़रिए ख़बर छपवाने की कोशिश की लेकिन दो अखबारों को छोड़कर किसी को भी ये खबर नहीं लगी। सभी ने रोज़ाना मिलने वाले पुलिसवालों की दोस्ती का ख्याल रखा और कुछ भी पुलिस की जांच के खिलाफ न लिखकर वही लिखा जो पुलिस ने बताया। दूसरे दिन हमें फिर निराशा मिली लेकिन फिर भी हमने बहराईच के वयोवृद्ध साहित्यकार डा. लाल के ज़रिए कैंडल मार्च निकालने का मन बनाया और वहां के एसपी चंद्र प्रकाश से भी बात की। उन्होंने ज़रूर हमें भरोसा दिलाया कि यह मर्डर है और हम जांच कर रहे हैं, लेकिन घटना के २० दिन होने को हैं, अभी तक राकेश के हत्यारों का पता नहीं चला है। इसी बीच हमारे दोस्तों को अब आसपास के लोग ही समझा रहे हैं कि जाने वाला तो चला गया अब तुम क्यों दुश्मनी ले रहे हो?
हम निराश इसलिए भी हैं कि एक प्यारे दोस्त को तो हमने खोया, लेकिन उसके लिए कुछ ही न कर पाने का मलाल ज्यादा है। छोटे शहर से लेकर बड़े शहर तक ना जाने कितने लो प्रोफाइल राकेश इसी तरह मर जाते हैं, लेकिन पुलिस की तफ्तीश कितना भरोसा पैदा करती है, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। ब्लॉग पर इस तरह का वाकया लिखने का मक़सद एक ही है कि अगर कोई इस तरह के मामलों में दिलचस्पी दिखाए और कुछ भी कर सके तो अच्छा है। साथ ही ये घटनाएं बताती है कि हम कितने लाचार हो जाते हैं। राकेश भले ही चला गया हो लेकिन हम ज़ुबानी जमाखर्च और रोज़ाना की पेशेवर कामकाज में इतने मसरुफ़ हैं कि हमसे कुछ होगा ऐसा नहीं लगता...

Thursday 13 November, 2008

'फ़िक्सिंग' के ज़रिए 'फेस सेविंग'!

आस्ट्रेलिया के क्रिकेट फैन्स और वहां की मीडिया तिलमिला रही है। ऐसा लगता है कि जैसे किसी ने उनके बदन पर एक साथ हज़ारों चीटियां छोड़ दी हों। वे छटपटा रहे हैं और उन्हें समझ में नहीं आ रहा है कि क्या करें? कोई कहता है कि पॉटिंग को अब बाहर का रास्ता दिखाकर सायमंडस को वापस लाना चाहिए, कोई कहता है कि मैग्रा और गिलक्रिस्ट जैसी दूसरी प्रतिभाएं ढूंढ़नी चाहिए, तो कोई नागपुर टेस्ट को ही फिक्स बता कर अपनी खिसियाहट मिटाने में लगा है।
दरअसल, बॉर्डर-गावस्कर सीरीज़ पर टीम इंडिया का कब्जा सिर्फ़ हिंदुस्तान की जीत नहीं, बल्कि क्रिकेट आस्ट्रेलिया की हार भी है। और 10 नवंबर को ख़त्म हुए नागपुर टेस्ट को फिक्स करार देने में जुटी एक लॉबी ऐसा कर आस्ट्रेलिया की फेस सेविंग में जुटी है। उन्हें इसके लिए बूढ़े पॉटिंग समेत अपने ही चंद खिलाड़ियों की बलि देना तो गवारा है, लेकिन एक मुल्क के तौर पर आस्ट्रेलिया को हारते हुए देखना कुबूल नहीं।
वैसे नागपुर टेस्ट पर चाहे जितनी भी उंगलियां उठाई जाएं ये सच है कि इस हार ने आस्ट्रेलिया का गुरूर तोड़ दिया है। मैदान पर किसी भी तरीक़े से जीत हासिल करने पर यकीन रखनेवाले आस्ट्रेलियाई खिलाड़ियों को भी ये समझ में आ गया है कि अब उनका किला पहले की तरह अजेय और अभेद्य नहीं रहा। यही वजह है कि लगातार दो टेस्ट मैचों में शिकस्त खाने के बाद अब एक सोची-समझी रणनीति के तहत नागपुर टेस्ट को फिक्स करार देने की कोशिश की जा रही है।
क्रिकेट की ख़बर रखनेवाले लोग ये अच्छी तरह जानते है कि इंटरनेशनल क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड की एंटी करप्शन विंग आमतौर पर किसी भी इंटरनेशनल मैच की रिकॉर्डिंग का बारीकी से मुआयना करती है, ताकि जानबूझ कर हारने जैसी कोई बात नज़र आने पर कार्रवाई की जा सके। लेकिन अब एक लॉबी इस रुटीन अफ़ेयर को मुद्दा बना कर नागपुर मैच में टीम इंडिया की काबिलियत पर पानी फेरना चाहती है। तर्क दिये जा रहे हैं कि पहली पारी में हेडन और दूसरी पार्टी में पॉटिंग जिस तरह रन आउट हुए, आस्ट्रेलिया की ओर से मैदान पर जो फिल्डिंग सेट की गई, दूसरी पारी में जिस तरह महज़ दो रन प्रति ओवर की गति से रन बनाए गए और हरभजन जैसा पुछल्ला बल्लेबाज़ भी हाफ़ सेंचुरी लगा गया, वो सब मैच फिक्स होने का ही सुबूत था।
शुक्र है कि ऐसे तर्क गढ़नेवाले इस लॉबी ने दूसरी पारी में गांगुली और लक्ष्मण के सस्ते में आउट होने, सचिन के रन आउट होने, स्लिप पर फिल्डिंग कर रहे द्रविड़ द्वारा दो कैच छोड़ने और फिल्डिंग में कई बार काहिली का मुज़ाहिरा करनेवाले भारतीय खिलाड़ियों को अपनी ज़द में नहीं लिया। वैसे भी ऐसा कर ना तो उन्हें फ़ायदा होता और ना ही हार की खीझ समाप्त होती। ऐसे में फिक्सिंग को लेकर एक तरफ़ा नज़रिया ही 'फेस सेविंग' कर सकती थी। जिसकी कोशिश जारी है।

Monday 10 November, 2008

फ़्यूचर प्लानिंग

मैं जिस रास्ते से रोज़ दफ़्तर जाता हूं वो दिल्ली की सबसे व्यस्त और तेज़ सड़कों में एक है। एक ऐसा रास्ता, जहां आप अचानक अपनी गाड़ी रोकने की सोच भी नहीं सकते। क्योंकि आपने गाड़ी रोकी नहीं कि पीछे से आपको कोई ज़ोरदार टक्कर दे मारेगा। और अगर आपकी किस्मत अच्छी रही, तो फिर हॉर्न बजा-बजाकर लोग आपका दिमाग़ ख़राब कर देंगे।
इसी रास्ते में फुटपाथ पर मैं रोज़ एक भिखारी को देखता हूं। उसकी शक्ल-सूरत तो किसी भी दूसरे भिखारी जैसी है, लेकिन उसे मैंने कभी किसी के सामने हाथ फैला कर कुछ मांगते हुए नहीं देखा। हां, फुटपाथ पर बैठा-बैठा वो रोज़ आते-जाते लोगों को सलाम ज़रूर करता है। एक रोज़ उसने मुझे भी सलाम किया। पहले मुझे लगा कि उसने किसी और को विश किया होगा... लेकिन अगले दिन जब इत्तेफ़ाक से मेरी नज़र उस पर गई, तो वो उसी अंदाज़ में मुस्कुराता हुआ मुझे सलाम कर रहा था। मुझे बड़ी हैरानी हुई। अगले रोज़ मैंने उससे मिलने का फ़ैसला किया।
चूंकि मैं पहले से तैयार था... भिखारी के पास पहुंचते ही मैंने अपनी गाड़ी धीमी कर ली। उसे कुछ रुपए दिए और लोगों को सलाम करने की वजह पूछ ली। उसने कहा, 'मालिक, मैं तो यहां कल की फ़िक्र में बैठा हूं। आज की रोटी तो ऊपरवाले के हाथ है।' मैं हैरान था... एक मैले-कुचैले कपड़े में बैठे भिखारी की 'फ़्यूचर प्लानिंग' देखकर...

Saturday 8 November, 2008

आप ब्लॉग क्यों लिखते हैं?

कोई ब्लॉग क्यों लिखता है? आप क्यों लिखते हैं? या फिर मैं ही ब्लॉग क्यों लिखता हूं?
मैं अक्सर इन सवालों के बारे में सोचता हूं। और मेरा दावा है कि आप भी ज़रूर सोचते होंगे। ये सवाल बेशक एक ही हैं। लेकिन इन चंद सवालों में कुछ इतने जबाव छिपे हैं कि बस पूछिए मत!
मन में उमड़ते-घुमड़ते ख्यालात को आकार देने के लिए, विरोध प्रकट करने के लिए, अपनी रचनात्मकता को अंजाम तक पहुंचाने के लिए, शेखी बघारने के लिए, पॉपुलर होने के लिए, दूसरों की बराबरी करने या फिर उनसे आगे निकलने के लिए, विवादित मसलों पर एक शिगूफ़ा छोड़ कर मज़ा लेने के लिए, जो बात दिल में ही घुट कर रह गई हो उसे उगलने के लिए, टाइम पास करने के लिए, ब्लॉगर कहलाने के लिए या फिर सिर्फ़ और सिर्फ़ लिखने के लिए? और शायद इन्हीं अनगिनत जवाबों में ब्लॉगिंग की दुनिया का अनोखापन भी छिपा है।
सच तो ये है कि अपना ब्लॉग शुरू करने से पहले भी मैं काफ़ी दिनों तक इस मसले पर सोचता रहा। ये भी सोचता रहा कि आख़िर मैं ब्लॉगिंग क्यों करूं? मेरे दोस्त अक्सर कहते थे कि सुप्रतिम तुम अच्छा लिख लेते हो, अपना कोई ब्लॉग क्यों नहीं शुरू करते? लेकिन दोस्तों से ऐसी बातें सुनते हुए तकरीबन साल भर का वक़्त गुज़ार देने के बाद जाकर ही मैं अपना ब्लॉग शुरू कर सका। हो सकता है कि दूसरों को इतना वक़्त ना लगता हो। वैसे भी हर शख्स के काम करने का अपना तरीक़ा होता है और हर काम का अपना वक़्त। शायद यही वजह है कि मुझे भी अपना ब्लॉग शुरू करने में इतना वक़्त लग गया। और 11 सितंबर 2008 को ब्लॉग शुरू करने के बाद इस मसले पर लिखने में और इतना...
अब तकरीबन दो महीने से ब्लॉग की दुनिया को नज़दीक से देख रहा हूं। इन दिनों में मैंने काफी कुछ देखा और सीखा है। माहिर ब्लॉगरों के कलम की धार देखी है और कोरी बकवास भी। सिर्फ़ लिखने के लिए लिखने वालों को भी देखा है और लोगों की नब्ज़ पर हाथ रखनेवालों को भी। कुछ मिशनरियों को भी देखा है और कुछ कनफ्यूज़्ड लोगों को भी। सच पूछिए तो हर शख्स, हर ब्लॉग और हर पोस्ट अपने-आप में अनोखापन लिए है। कहने को कोई ये भी कह सकता है कि वो अपना ब्लॉग स्वांत: सुखाय लिखता है, लेकिन ज़रा सोचिए कि ऐसी रचना या फिर ऐसा ब्लॉग, जिसे ना तो कभी किसी ने देखा हो और ना ही पढ़ा हो, वो किस काम का?
लेकिन इतना देखने और समझने के बावजूद मैं अपनी कैटेगरी अब तक तय नहीं कर पाया हूं। बहरहाल, मैं तो अपना ब्लॉग लिखने की वजह जानने की कोशिश में हूं... लेकिन अगर आप अपने बारे में हंड्रैड परसेंट श्योर हैं, तो मुझे ज़रूर बताएं...

Friday 7 November, 2008

आज भी हंसता हूं ख़ुद पर...

मेरा एक दोस्त है, जो अक्सर कहा करता है कि किसी पर हंसने से पहले इंसान को ख़ुद पर हंसने की आदत डालनी चाहिए। ये जुमला यकीनन उसका नहीं है। और ये बात भी वो हमेशा बेहद ईमानदारी से कुबूल करता है। लेकिन जब-जब वो अपने उम्र को पीछे छोड़ते हुए ये बात कहता है, तब-तब वो मुझे बहुत मैच्योर और सुलझा हुआ लगने लगता है। शायद इसलिए भी कि इस मामले में मैं भी उससे इत्तेफ़ाक रखता हूं। ...तो आज बात ख़ुद पर हंसने के एक वाकये की। आपको एक ऐसा क़िस्सा बताने जा रहा हूं, जिसे सुनकर आपको भी हैरानी होगी कि इंसान अपनी ज़िंदगी में जाने कैसी-कैसी नादानियां कर बैठता है।
उन दिनों मैंने मैट्रिक की परीक्षा दी थी। रिज़ल्ट का इंतज़ार था और इसी बीच पत्रकारिता का चस्का लग चुका था। मेरे एक सीनियर थे, निलय सेनगुप्ता। फ्रीलांस फ़ोटोग्राफ़र। जो अक्सर अखबार के दफ़्तरों से कुछ सांस्कृतिक कार्यक्रमों के इनविटेशन कार्ड्स कवरेज के लिए मेरे पास लेकर आते थे। इस तरह वे मेरे जर्नलिज़्म के करियर की नींव डालने में जुटे थे। एक बार वो मेरे लिए एक बड़े थिएटर ग्रुप का इनविटेशन कार्ड लेकर आए। नाटक था -- 'एक एनार्किस्ट (अराजकतावादी) की इत्तेफ़ाकिया मौत'। रवींद्र भवन के शानदार एयरकंडिशंड हाल में नाटक होना था।
मैं प्रेस गैलरी में बैठकर नाटक देखने और उसका कवरेज करने के लिए जोश से लबालब भर उठा। अपनी एटलस रिबेल साइकिल ली और नाटक शुरू होने से तकरीबन आधा घंटा पहले ही रवींद्र भवन जा पहुंचा। वहां शान से इनविटेशन कार्ड दिखाकर प्रेस गैलरी में जा बैठा। नाटक शुरू हुआ और ज़्यादातर हिस्सा मेरे सिर के ऊपर से गुज़रने लगा। नाटक की कहानी ठीक क्या थी, मुझे नहीं पता। लेकिन जैसा कि नाम से पता चलता था, नाटक किसी अराजकतावादी शख्स की मौत को लेकर रहा होगा। बहरहाल, रिपोर्टिंग तो करनी थी। इसलिए नाटक बीच में छोड़कर नहीं लौट सकता था। सो, तकरीबन आधे घंटे तक चुपचाप सबकुछ देखता रहा।
नाटक लगातार आगे बढ़ रहा था। तभी अचानक हॉल के पिछले हिस्से से एक महिला "बंद करो ये नाटक... ये सब क्या हो रहा है... जो मन में आता है, बोलने लगते हो..." कहती हुई स्टेज की ओर दौड़ी। महिला की इस हरकत से पूरे हॉल में सन्नाटा छा गया। आयोजकों ने आनन-फानन में मंचन रोक दिया और कुछ देर के लिए पर्दा भी गिरा दिया गया। बस, फिर क्या था? मेरे अंदर का रिपोर्टर जाग उठा। मैंने अपने अगल-बगल देखा दूसरे पत्रकार भी इस 'नए नाटक' को लेकर आपस में बातें करने लगे। मुझे नाटक बीच में छोड़कर दफ़्तर पहुंचने का यही सबसे सही वक़्त लगा। तुरंत हॉल से बाहर निकला और अपनी साइकिल उठाकर दफ़्तर की ओर भागा।
उन दिनों मेरे एक सीनियर रतन जोशी अख़बार में कला-संस्कृति का पन्ना संभालते थे। हांफते-हांफते मैंने उन्हें पूरी कहानी सुनाई और बताया कि किस तरह नाटक के बीच में ही बवाल हो गया और आयोजकों को मंचन रोकना पड़ा। मेरे जोश को देखते हुए उन्होंने तुरंत मुझे सबकुछ लिख डालने की हिदायत दी। बस, मैंने भी पूरे लच्छेदार तरीके से जो कुछ देखा, लिख डाला। फिर अंत में रिपोर्ट के ऊपर अपना नाम भी मोटे अक्षरों में लिखा, ताकि अगले दिन सुबह के अख़बार में बाइलाइन रिपोर्ट छपी हो।
अगले दिन उठकर मैं सबसे पहले बस स्टैंड के न्यूज़पेपर स्टॉल पर पहुंचा। ये देखने के लिए मेरी बाइलाइन रिपोर्ट अख़बार में कैसे और कहां छपी है? लेकिन जब काफ़ी ढूंढ़ने के बाद भी मुझे अपनी बाइलाइन नहीं दिखी, तो मैंने ख़बरों की हैडिंग पढ़नी शुरू की। तब अंतिम पन्ने पर मुझे अपनी ख़बर दिखाई पड़ी। तीन कॉलम की ख़बर। लेकिन मेरा नाम नहीं छपा था, लिहाज़ा मैं बहुत निराश हुआ। मन ही मन रतन जी को भी कोसने लगा। लेकिन अभी चंद घंटे गुज़रे थे कि निलय सेनगुप्ता ने मुझे बुलवा भेजा। जब उनके पास पहुंचा, तो वे लाल-पीले हो रहे थे। उन्होंने मुझे बड़ी लानत दी और कहा कि अब तुम कभी जर्नलिस्ट नहीं बन सकते। उनका रौद्र रूप देखकर मुझे उनसे इसकी वजह पूछने की भी हिम्मत नहीं हुई। चुपचाप सिर झुकाए खड़ा रहा। हारकर उन्होंने ही मुझे बताया कि मेरी ग़लती क्या है। निलय दा ने कहा, 'कल रवींद्र भवन में तुमने जिसे हंगामा समझा, वो दरअसल नाटक का ही हिस्सा था। नाटक बीच में रुकवाई नहीं गई, कलाकारों ने ही जानबूझ कर रोकी थी।' मुझे बाकी बात समझने में देर नहीं हुई। ये भयानक ग़लती थी। निलय दा ने बताया कि किस तरह आज सुबह से ही अख़बार के दफ़्तर में फ़ोन आ रहे हैं और सारे लोग मज़ाक बना रहे हैं।
मैं बेहद शर्मिंदा था... और ये भी सोच रहा था कि अगर रतन जी ने उस रोज़ ग़लती से भी ख़बर के साथ मेरा नाम छाप दिया होता, तो मेरी क्या हालत होती...? ख़ैर, एक अच्छी बात ये थी कि बाद में ख़ुद निलय दा, रतन जी और दूसरे कई सीनियरों ने इतना होने के बावजूद मेरी ख़ूब हौसला अफ़ज़ायी की।

Wednesday 5 November, 2008

दुनिया की नाभी - उज्जैन

कुछ रोज़ पहले उज्जैन गया था। कोई पांच हज़ार साल पुराना उज्जैन। आज ही लौटा हूं। तकरीबन पांच साल पहले भी एक बार उज्जैन गया था लेकिन तब जल्दबाज़ी की वजह से बस स्टैंड से ही लौटना पड़ा था। जिस शहर का ऐतिहासिक और आध्यात्मिक स्तर पर पूरी दुनिया में एक अलग मुकाम हो, उस शहर को सालों से देखने की इच्छा थी। जो इस बार पूरी हो गई। काम के बाद जो वक्त बचा, वो उज्जैन देखने में कुछ ऐसा गुज़रा जैसे कोई खुशनुमा वक्त महज़ लम्हों में गुज़र जाता है।
दुनिया की नाभी
कहते हैं कि उज्जैन ही वो जगह है, जो इस दुनिया के बिल्कुल बीचों-बीच स्थित है। और इसी वजह से इस शहर को दुनिया की नाभी भी कहते हैं। वैसे तो हमारे देश में तकरीबन सभी जगहों पर साल में एक दिन ऐसा ज़रूर आता है, जब कुछ मिनटों के लिए परछाई कदमों के बिल्कुल नीचे आ जाती है। लेकिन शायद दुनिया के बीचों-बीच मौजूद होने की वजह से उज्जैन में ये दिन सबसे ज़्यादा अजीब होता है। कुछ इतना अजीब कि उस रोज़ साया भी कुछ वक्त के लिए इंसान का साथ छोड़ जाता है।
महाकाल
उज्जैन में दुनिया का इकलौता पौराणिक महत्व वाला महाकाल मंदिर है। कहते हैं कि इस मंदिर में मौजूद शिवलिंग को किसी भक्त ने स्थापित नहीं किया, बल्कि स्वयंभू भगवान शंकर यहां खुद ही स्वयंभू हुए थे। बाद में राजा-महाराजाओं ने इस मंदिर को संवारने का काम किया। हिंदुओं के 12 ज्योर्तिलिंगों में से एक इस महाकाल मंदिर के साथ ही एक ऐसा सरोवर भी है, जिसे ब्रह्माजी ने खुद अपने हाथों से बनाया था। महाकाल को उज्जैन का राजा भी कहा जाता है। और शायद यही वजह है कि महाकाल मंदिर के सिवाय यहां कोई और राजमहल नहीं है। जबकि यहां महा प्रतापी सम्राट विक्रमादित्य समेत कई राजाओं ने शासन किया। यहां सिंहासन बत्तीसी का वो मशहूर टीला (अब अतिक्रमित) भी है, जिसके साथ कई लोककथाएं जुड़ी हैं। कहते हैं कि इस सिंहासन पर बैठनेवाले किसी भी सम्राट से 32 अलग-अलग मूर्तियां कर्तव्यपराणयता का वचन लेती थी और इस तरह कोई भी अपनी प्रजा से नाइंसाफ़ी नहीं कर सकता था।
काल भैरव
उज्जैन में ही भगवान शंकर के एक दूसरे रूप यानि काल-भैरव का मंदिर भी मौजूद है। इस मंदिर के साथ जुड़ी कहानी तो और भी चौंकानेवाली है। कहते हैं कि ब्रह्माजी ने जब चार वेदों की रचना कर ली थी, तो उन्हें भी कुछ वक्त के लिए खुद पर घमंड हो गया था और वे पांचवें वेद की रचना करना चाहते थे। लेकिन देवताओं ने इसे सृष्टि के लिए ठीक नहीं मानते हुए उनसे ऐसा नहीं करने का आग्रह किया। पर ब्रह्माजी जब अपनी बात पर अड़े रहे, तो सभी देव भगवान शंकर के द्वारस्थ हुए। लेकिन ब्रह्मा अडिग रहे। और तब भगवान शंकर ने अपना तीसरा नेत्र खोला और इसी नेत्र से काल-भैरव का जन्म हुआ। काल-भैरव को ब्रह्माजी को रोकने की जिम्मेदारी दी गई, लेकिन उन्होंने ब्रह्माजी को रोकने के लिए उनके एक अवतार की ही हत्या कर डाली। ये बड़ी भयानक बात थी। उन पर ब्रह्म हत्या का पाप लगा और वे अभिशप्त हो गए। लेकिन तभी शंकर जी ने उन्हें शिप्रा नदी के किनारे श्मशान पर बैठ कर कठोर तप करने और इस तरह शापमुक्त होने की युक्ति बताई। तब से काल-भैरव यहीं स्थापित हो गए। उन्होंने यहां बैठ कर कठोर तपस्या की और उनका जीवन शापमुक्त हुआ। इस मंदिर का ज़िक्र शास्त्रों में भी मिलता है।
नवग्रह धाम
उज्जैन में पौराणिक काल का मशहूर शनिदेव मंदिर और नवग्रह धाम भी मौजूद हैं। इस परिसर में शनिदेव की मूर्ति के अलावा सभी के सभी नौ देवताओं की अलग-अलग मंदिर भी मौजूद हैं। खास बात ये है कि ये सभी देव इन मंदिरों में भगवान शंकर यानि शिवलिंग के तौर पर ही स्थापित हैं। मान्यता है कि नवग्रह मंदिर में पूजा करने से, इंसान पर सभी ग्रहों की चाल ठीक रहती है।
छोटा शहर
तकरीबन आठ लाख की आबादीवाला उज्जैन एक ख़ूबसूरत और 'कूल' शहर है। दिन में चाहे कितनी भी गर्मी क्यों ना हो, उज्जैन की रात खुशनुमा होती है। ऐसा मैंने भी महसूस किया। उज्जैन में बोहरा समुदाय का एक प्रसिद्ध धार्मिक स्थल और कई जैन मंदिर भी हैं। महज़ तीन किलोमीटर के वृत में बसा उज्जैन कुछ इतना ही छोटा है कि पूरब, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण किसी भी दिशा में तीन किलोमीटर का सफ़र तय करते ही आप शहर से बाहर पहुंच जाते हैं। उज्जैन के ज्यादातर लोग धार्मिक प्रवृति के हैं। सिंहस्थ कुंभ का यहां लोगों के जीवन में बड़ा महत्व है और उनका वक्त पूजा-पाठ में गुज़रता है। (रात को फ्रीगंज में गरमा-गरम दूध मिलता है। कभी आप उज्जैन जाएं तो इसका ज़रूर मज़ा लें) यहां हॉट ड्रिंक्स का चलन अब भी कम ही है।
विक्रमादित्य भवन
पुराने शहर से बाहर एक राजमहल है। जिसे सरकार ने विक्रमादित्य भवन का नाम दिया है। ये महल स्थापत्य कला का एक बेजोड़ नमूना है। वैसे तो इस महल को ग्वालियर घराने के राजाओं ने बनाया था, लेकिन जब राजशाही ख़त्म हुई तब सरकार ने इसका नामकरण विक्रमादित्य भवन कर दिया। अब यहां से प्रशासनिक काम-काज निपटाए जाते हैं।
बदहाल शिप्रा
हिंदुस्तान की दूसरी अहम नदियों की तरह पौराणिक महत्व की नदी शिप्रा भी बदहाल है। पानी नहीं है। जहां है, वहां घेर कर पानी जमा किया गया है। जो बेहद प्रदूषित है। लेकिन आस्था के आगे कुछ नहीं चलता। सभी सानंद इसमें नहाते हैं। शिप्रा शुद्धिकरण की बात चल रही है। देखिए क्या होता है?
चिड़ियों का रेलवे स्टेशन
उज्जैन एक मायने में तो बेहद अजीब है। वैसे तो शाम होते ही पेड़ों के इर्द-गिर्द चिड़ियों का चहचहाना शुरू हो जाता है। लेकिन उज्जैन का रेलवे स्टेशन शाम को किसी विशाल पेड़ से कम नहीं होता। यहां लाखों चिड़ियों का डेरा होता है और ठीक शाम के वक्त अगर आप प्लेटफॉर्म पर खड़ें हो, तो चिड़ियों का शोर कुछ इतना ज्यादा होता है कि आपको चिल्ला कर बात करनी पड़ती है। पूरा स्टेशन चिड़ियों से पटा होता है। ऐसा क्यों है, नहीं पता।