Friday 6 November, 2009

बदक़िस्मत होकर जाना, कितना खुशक़िस्मत था!

प्रभाष जी चले गए... अब भी हमें यकीन नहीं हो रहा। ग़मगीन हूं। मेरे एक दोस्त तनसीम हैदर प्रभाष जी के पड़ोस में रहते हैं। उन्होंने प्रभाष जी के जाने को जैसा देखा, वैसा लिखा। भरे दिल से उनकी पोस्ट पेश कर रहा हूं।
प्रभाष जी चले गए। अब क्या लिखूं, कैसे लिखूं, कहां से शुरु करुं कुछ समझ में नही आता। आज सुबह 8 बजे घर का दरवाज़ा खोला, तो देखा घर के सामने भीड़ लगी है। मैं अपने दोनों बच्चों का हाथ थामे उन्हें स्कूल छोड़ने निकला था। भीड़ के चेहरे से साफ़ था कि मौका कुछ अच्छा नहीं है। मैं गाज़ियाबाद के जनसत्ता सोसायटी में हाल ही में शिफ्ट हुआ हूं। किराए का मकान है। चूंकि सोसायटी ही पत्रकारों की है, मेरे आसपास बहुत सारे पत्रकार रहते हैं। लेकिन सुबह जब पड़ोस के दरवाज़े पर भीड़ देखी तो रहा नहीं गया। पूछा और पता किया तो जो खबर कानों तक पहुंची उस पर अभी भी पूरी तरह यकीन नहीं कर पाया हूं। प्रभाष जोशी नही रहे।

वो प्रभाष जी, जिन्हे पढ़कर पत्रकारिता का ककहरा सीखा, जिन्हें देख देखकर उन जैसा बनने के ख्वाब संजोता रहा और आज जिनके चेलों से पत्रकारिता सीख रहा हूं, वही प्रभाष जी चले गए। उनके जाने की ख़बर ने मुझे बेचैन कर दिया। सचमुच हिंदी की पत्रकारिता आज यतीम हो गई। मैं जिस हाल में था उसी हाल में प्रभाष जी के घर जा पहुंचा। देखा रामकृपाल जी, नक़वी जी, प्रदीप सिंह जी, रामबहादुर राय जी, राजदीप जी, दीपक जी जैसे ना जाने कितने बड़े-बड़े पत्रकार वहां मौजूद थे। सब के सब प्रभाष जी को गए घंटों का वक्त गुज़रने के बाद शायद ख़ुद को उनके जाने का यकीन दिलाते हुए हाथ बांधे खड़े थे।

दिन चढ़ते-चढ़ते तमाम न्यूज़ चैनल, अख़बार, वेबसाइट्स, ब्लाग्स हर जगह प्रभाष जी मौजूद थे। जब तक मैं प्रभाष जी के पड़ोस में था, तबतक उन्हें हिंदी पत्रकारिता के शलाका पुरुष और एक अभिभावक के तौर पर मानता रहा, लेकिन प्रभाष जी क्या थे, सच पूछिए तो ये मुझे उनके जाने के बाद ही पता चला। सोचता हूं मैं कितना खुशकिस्मत था, जो प्रभाष जी के घर के बिल्कुल सामने रह रहा था। लेकिन अपनी इस खुशक़िस्मती का एहसास मुझे तब हुआ जब मैं बदक़िस्मत हो गया।