Thursday 30 October, 2008

राज ठाकरे बदल देंगे आईएसआई का एजेंडा!

पाकिस्तानी ख़ुफ़िया एजेंसी आईएसआई को इन दिनों हिंदुस्तान में कौन सबसे प्यारा है? ये सवाल आपको अजीब लग सकता है... और शायद इसका जवाब आपको उससे भी अजीब लगे, लेकिन बात सोचनेवाली है। मुझे तो लगता है कि महाराष्ट्र नव निर्माण सेना के राज ठाकरे ही वो शख़्स हैं, जिन्हें आजकल आईएसआई सबसे ज्यादा पसंद करती है। आप पूछ सकते हैं, भला ऐसा क्यों? लेकिन मेरा जवाब सीधा सा है -- आईएसआई हिंदुस्तान में जो काम करोड़ों खर्च कर और अनगिनत जानों की कुर्बानियां दे कर सालों से करती आ रही है, राज ठाकरे वही काम इन दिनों बैठे-ठाले किए जा रहे हैं। ये और बात है कि ऐसा करने के पीछे दोनों का मकसद जुदा हो सकता है।
दरअसल, पाकिस्तान में सियासत की धुरी शुरू से ही हिंदुस्तान से नफ़रत की बुनियाद पर टिकी रही है। चाहे वो जनरल ज़ियाउल हक हों, बेनज़ीर भुट्टो, नवाज़ शरीफ़ या फिर परवेज़ मुशर्रफ़, अपने-अपने दौर में किसी-ना-किसी बहाने से इन सभी पाकिस्तानी सियासतदानों ने हिंदुस्तान और हिंदुस्तानियों से नफ़रत को हवा दी है। यहां जारी आतंकवाद, मुंबई के बम धमाके, दाऊद इब्राहिम को सरपरस्ती, कश्मीर के मौजूदा हालात और करगिल की लड़ाई इस बात के पुख़्ता सुबूत हैं। और यही तथ्य इस बात के भी सुबूत हैं कि किस तरह पाकिस्तानी खुफ़िया एजेंसी आईएसआई लगातार इस तरह की हरकतों को बढ़ावा देती रही है। हिंदुस्तानियों के बीच फूट, दंगा और हमारे देश को अस्थिर करने की कोशिश आईएसआई के एजेंडे में पहले से ही सबसे ऊपर रहा है... लेकिन नए दौर में खुद 'हमारे अपने' राज ठाकरे ही आईएसआई का काम हल्का किए दे रहे हैं।
मराठियों का वोट बटोरने और नफ़रत की सियासत करने वाले अपने ही चाचा बाल ठाकरे का कद छोटा करने के लिए राज ठाकरे ने मराठियों और गैरमराठियों के बीच जो खाई खोदी है, उसने आईएसआई का काम और आसान कर दिया है। या फिर यूं कहें कि जो काम अब तक आईएसआई लाख कोशिशों के बावजूद पूरी तरह नहीं कर पाई है, राज ठाकरे सत्ता की लालच में लगातार वही काम किए दे रहे हैं। अनेकता में एकता ही हिंदुस्तान की ख़ासियत रही है और लाख कोशिशों के बावजूद आईएसआई हिंदुस्तान की इस ख़ासियत को छिन्न-भिन्न करने में नाकाम रही है, लेकिन गैरमराठियों के खिलाफ़ राज ठाकरे की बयानबाज़ियों ने अब हिंदुस्तान की इसी ख़ासियत पर ख़तरा पैदा कर दिया है।
राज के उकसावे पर गुंडे उत्तर भारतीयों को पीट कर रहे हैं, मौत के घाट उतार रहे हैं... और तिस पर राजनीति का घिनौना रूप ये है कि इतना सबकुछ होने के बावजूद महाराष्ट्र की कांग्रेस सरकार को राज के ख़िलाफ़ सख़्त कार्रवाई करने के लिए सुबूत नहीं मिलते। कांग्रेस और शिव सेना के बीच छत्तीस का रिश्ता है और दुश्मन के दुश्मन को दोस्त मानने के फलसफ़े पर अमल करते हुए महाराष्ट्र सरकार राज ठाकरे की हर करतूत पर आंख मूंदे बैठी है। महाराष्ट्र की पुलिस एक भटके हुए गैर मराठी नौजवान को तो सरेआम अपनी गोलियों का निशाना बना सकती है, लेकिन लोगों को भटकानेवाले राज ठाकरे का बाल भी बांका नहीं कर सकती।
ठाकरे चाचा-भतीजे पर एक तो करैला दूजा नीम चढ़ा वाली कहावत बिल्कुल ठीक बैठती है। कमाल देखिए कि जिस पढ़ने-लिखनेवाले लेकिन भटके हुए नौजवान राहुल राज को मुंबई पुलिस गलत तरीके से मौत के घाट उतार देती है, उसे दूसरे ही दिन राज के चाचा और नफ़रत की राजनीति के 'पुरोधा' बाल ठाकरे बिहारी माफ़िया करार देते हैं। माफ़िया क्या होता है? जुर्म की दुनिया में किस हद से गुज़रने पर किसी के नाम के साथ ये बदनामी का तमगा जुड़ता है, ये कोई भी आसानी से समझ सकता है। लेकिन बाल ठाकरे को ये बात कौन समझाए, जिनसे इन बुढ़ापे में सत्तामोह और पुत्रमोह अनर्थ करवा रहा है।
राज ठाकरे की अनर्गल बयानबाज़ी का असर हिंदुस्तान में चारों को दिखने लगा है। कभी बिहार जलता है, तो कभी गोरखपुर के किसी घर में मातम पसर जाता है और कभी जमशेदपुर में टाटा मोटर्स के मराठी अधिकारी स्थानीय लोगों के निशाने पर आ जाते हैं। चंद संगदिल लोग राज के साथ आ खड़े हैं और राज उनके भरोसे कुर्सी का मज़ा लेने का ख्वाब बुन रहे हैं। लेकिन राज की इन हरकतों से देश गृहयुद्ध की ओर बढ़ने लगा है। ऐसे में वक्त रहते अगर केंद्र और महाराष्ट्र की कांग्रेस सरकार को होश नहीं आता है, तो बहुत मुमकिन है कि आईएसआई को आनेवाले दिनों में अपना एजेंडा ही बदलना पड़ जाए, क्योंकि हिंदुस्तान के बंटने के साथ ही आईएसआई का काम भी पूरा हो जाएगा।

Wednesday 29 October, 2008

बेटे, काश! मैं चिड़िया होती...

अभी लंबी छुट्टियों के बाद घर से लौटा हूं। तकरीबन 15 दिनों की। ये दिन कैसे गुज़र गए, पता ही नहीं चला। घर जाने से पहले छुट्टी पर जाने की खुशी तो थी, लेकिन साथ ही ये भी सोचकर मन उचाट हो रहा था कि ये छुट्टियां भी जल्द ख़त्म हो जाएंगी। और इसके साथ ही मां, बाबा (पिताजी), दादा (भैया) और घर के सारे लोगों से दूर चले आना होगा। कहने को कह सकते हैं कि तन से दूर हैं, मन से थोड़े ही! लेकिन इस तरह के जुमलों से मन नहीं संभलता। मैं जिस ट्रेन से अक्सर अपने घर जाता हूं, वो मुझे कोई 22 घंटे में वहां पहुंचा देती है। नौ सालों से बाहर रह रहा हूं। मेरा सफ़र 22 से 23 घंटे का तो कई बार हुआ, लेकिन इस ट्रेन ने इससे ज़्यादा लम्हे मुझसे कभी नहीं छीने। लेकिन इस बार ट्रेन ज़्यादा ही लेट हो गई। मेरा सफ़र कोई 28 घंटे में पूरा हुआ। छह घंटे पहले ही दिन पानी में चले गए।
ख़ैर...घर पहुंचा। मां के पैर छूना चाहता था, लेकिन मां ने मेरे झुकने से पहले ही मुझे खींच कर गले से लगा लिया। सच तो ये है कि मैं भी पहले गले ही लगना चाहता था और पैर बाद में छूना। लेकिन पता नहीं क्यों मां को देखा, तो अचानक ही झुक गया। इसके बाद उनसे तब तक चिपका रहा, जब तक उन्होंने मुझे दोबारा देखने के लिए खुद से अलग नहीं किया। मां ने क्या देखा, ये तो नहीं पता, लेकिन मैंने देखा कि मां पहले से भी ज़्यादा दुबली हो गई है और बाबा भी। ये उम्र का असर है या फिर मेरी फ़िक्र का, ये मैं नहीं जानता, लेकिन हर बार जब भी छुट्टियों में उन्हें देखता हूं तो लगता है जैसे वे पहले से थोड़े और कमज़ोर हो गए हैं... एक बार लगा कि उन्हें अपना ख़्याल रखने को कहूं, लेकिन अगले ही पल नामालूम क्यों, चुप हो गया। उन्होंने बचपन से ही सोच-समझ कर बातें करने की सीख दी। अब उन्हीं के साथ सोच-समझ कर बात करने लगा था।
घर पहुंचते ही खूब बातें करना चाहता था। जो बातें टेलीफ़ोन पर नहीं हो सकी और जो बातें साल भर बस एक अदद मुलाकात का इंतज़ार करती रहीं... साल भर मैंने जो दुख झेले और साल भर जो खुशियां भोगी, वो सबकुछ दिल खोल कर बताना चाहता था। लेकिन रात काफ़ी हो चुकी थी। मैंने अपनी बातचीत छोटी रखी और सोने चला गया। बिस्तर पर पड़े-पड़े काफ़ी देर तक सोचता रहा। सोचता रहा कि किस तरह मां-बाबा ने मुझे बचपन से लेकर आज तक इतने लाड़-प्यार से पाल-पोष कर बड़ा किया... और इतना बड़ा किया कि एक रोज़ उन्हीं को छोड़ कर करियर के चक्कर में हज़ारों मील दूर चला आया। मुझे याद है, जब मैं पांच-छह साल का था तो अक्सर कहा करता था कि मैं शादी नहीं करूंगा। तब मुझे लगता था कि कहीं शादी होने के बाद मुझे ससुराल में रहने के लिए न जाना पड़े और मैं अपनी मां से दूर ना हो जाऊं। मेरे दादा मुझसे कोई डेढ़ साल बड़े हैं। लेकिन मैंने उन्हें कभी ऐसी कोई बात कहते हुए नहीं सुना। दादा कहते हैं कि मैं बचपन से ही मां के ज़्यादा करीब हूं, शायद इसलिए ऐसा कहता था। लेकिन किस्मत देखिए कि आज दादा ही मां के साथ हैं और मैं मां से दूर रहता हूं।
इस बार छुट्टियां भी बहुत तेज़ी से गुज़र गईं। पांच से छह दिन तो घर से दूर अलग-अलग रिश्तेदारों के पास गुज़ारना पड़ा। जो दिन बचे, उन दिनों में बस मां को दिन भर चूल्हे-चौके के बीच पिसता देखता रहा। कभी वो मेरी पसंद की चीज़ें बनाने में उलझी रही, तो कभी किसी और काम में... हां, इन दिनों में मां ने रह-रह कर मुझसे जो बात कही, वो अब भी मेरे कानों में गूंज रही है। मां ने कहा, "बाबू, तोर जोन्ने खूब मोन कैमोन कॉरे। तुई कॉतो दूरे चोले गेली।" (बाबू, तुम्हारी बहुत याद आती है। तुम कितने दूर चले गए) सचमुच कभी-कभी मुझे लगता है कि मैं मां से बहुत दूर चला आया हूं।
छुट्टियों के बाद वापसी का वक्त सबसे बोझिल होता है। कुछ इतना बोझिल कि पिछली बार तक तो मैं वापसी के लिए पहले से टिकट तक कटवाने से बचता था। ऐन एक-दो रोज़ पहले टिकट लेता था। लेकिन वेटिंग से बचने के चक्कर में इस बार मैंने टिकट पहले ही कटवा रखा था। छुट्टियां ख़त्म होने से दो दिन पहले जैसे ही मैंने घर में अपने वापसी के दिन का बताया, माहौल बोझिल हो गया। मां भी सुस्त सी पड़ गई। फिर, मैंने तब तक मां को उदास देखा, जब तक मैं दिल्ली के लिए रवाना नहीं हो गया। मेरे ट्रेन में बैठते ही उनकी आंखों में आंसू डबडबाने लगे। वो खुद को संभालने की कोशिश कर रही थीं। लेकिन उनसे गले मिलते ही उनकी सब्र का बांध टूट गया। वो रोने लगी। मुझे लगा कि मैं भी एक बार ज़ोर से रो कर हल्का हो लूं, लेकिन कमबख़्त दिल की टीस दिल में ही रह गई। जाने क्यों रो नहीं सका।
ट्रेन में बैठा खिड़की से झांक रहा था... कई घंटे गुज़र चुके थे... बाहर शाम का धुंधलका था। मन अजीब सा हो रहा था... मां से जुदाई की कसक सता थी... तभी मोबाइल की घंटी ने मेरी तंद्रा तोड़ दी... देखा, मां अपनी नई मोबाइल फ़ोन से कॉल कर रही हैं... मेरे फ़ोन उठाते ही उन्होंने कहा, "बाबू तोर जोन्ने खूब मोन कैमोन कॉरछे। जोदी पाखी होताम, उड़े तोर काछे चोले आसताम..." (बाबू, तुम्हारी बहुत याद आ रही है। अगर मैं चिड़िया होती, तो उड़ कर तुम्हारे पास चली आती...)

Thursday 23 October, 2008

एक आतंकवादी का घर

देश भर में हुए बम धमाकों के बाद जब इसके आरोपियों में ज़्यादातर नाम आज़मगढ़ से आए, तो हर किसी के ज़ेहन में यही सवाल कौंधा कि आख़िर आज़मगढ़ ही क्यों? आख़िर क्यों आज़मगढ़ की एक पूरी नस्ल अचानक इतनी भटक गई कि फिर उनके लिए वापसी ही नामुमकिन हो गई? और इसी 'क्यों' का जवाब जानने के इरादे से जब एक क्राइम रिपोर्टर आज़मगढ़ पहुंचा तो उसने वहां एक और ही कहानी देखी। आखिर क्या है ये कहानी, आप भी जानिए। पढ़िए शम्स ताहिर ख़ान की क़लम से, एक आतंकवादी का घर...

सोचा था खुल कर लिखूंगा। पर लिखना शुरू किया तो अचानक ख्याल आया कि आखिर मैं क्यों लिखूं..और आप क्यों पढ़ें? जबकि मैं जानता हूं कि ना मेरे लिखने से कुछ फर्क पड़ने वाला है और ना आपके पढ़ने से। टेक्नोलोजी के इस दौर मे ना लिख रहा होता, तो लिखता कि मैं स्याही बर्बाद कर रहा हूं और आप बस पलटने के लिए पन्ने पलटते जाइए। पर अब तो कमबख्त सयाही भी खर्च नहीं होता और माउज़ पलटने जैसे पन्ने को पलटने भी नही देता। बस क्लिक कीजिए, स्याही गायब और हरफ़ आंखों से ओझल।
बटला हाउस एनकाउंटर के बाद मैं आजमगढ़ गया था। आतंक की ज़मीन तलाशने। नाम ले-लेकर कहा जा रहा था कि ये सभी आतंकवादी आजमगढ़ की ही मिट्टी ने उगले हैं। जब आजमगढ़ पहुंचा तो कुछ चाहने वालों ने कहा कि शम्स भाई यहां तक तो आ गए पर सराय मीर या सनजरपुर मत जाइए। वहां लोग गुस्से में हैं। दो दिन पहले ही कुछ पत्रकारों को पीट चुके हैं और कुछ को कई घंटे तक बंधक बना कर रखा। जाहिर है दिल्ली से जिस मकसद से निकला था उसके इतना नजदीक पहुंच कर उसे अधूरा छोड़ने का सवाल ही नहीं था। सो आजमगढ़ के अपने साथी राजीव कुमार को साथ लेकर निकल पड़ा।
आजमगढ़ से करीब तीस किलोमीटर दूर सरायमीर हमारा पहला पड़ाव था। गाड़ी से उतरा तो दुआ-सलाम के बाद एक भाई ने सड़क किनारे अपनी दवा की दुकान के बाहर कुर्सी दे दी। अभी हम वहां के ताजा हालात पर बात कर ही रहे थे कि तभी एक लड़का चाय और पानी ले आया। राजीव और हमारे ड्राइवर को ग्लास थमाने के बाद जैसे ही मेरी तरफ बढ़ा तभी दुकान के मालिक तिफलू भाई बोल पड़े--'अरे शम्स भाई को मत दना इनका रोजा होगा। क्यों शम्स भाई रोजे से हैं ना आप?' इतना सुनते ही जांघों पर से उठ कर ग्लास की तरफ बढ़ता मेरा हाथ वापस अपनी जगह पहंच गया।
तिफलू भाई का इलाके में अच्छा रौब था। और वहां के हालात को देखते हुए अब आगे के सफर में उनको अपने साथ रखना एक दानिशमंदाना फैसला था। लिहाजा उन्हें अपने साथ लिए हम सबसे पहले बीना पाड़ा गांव पहुंचे। ये गांव गुजरात बम धमाकों के मास्टरमइंड कहे जाने वाले अबू बशर का गांव है। तिफलू भाई ने पहले ही गांव के प्रधान को खबर कर दी थी। इसलिए जब हम पहुंचे तो सीधे अबू बशर के घर के दरवाजे के बाहर ही चारपाई बिछा दी गई थी। कुछ पल बाद ही हमें एक बुजुर्ग से मिलवाया गया। बताया गया कि ये बाकर साहब हैं अबू बशर के वालिद। उन्हें एक तरफ से फालिज ने मार रखा था। थोड़ी देर तक इधऱ-उधर की बात करने के बाद अबू बशर को उसके वालिद के जरिए जितना टटोल सकता था टटोलने लगा। मगर बातचीत के दरम्यान ही तभी एक ऐसा हादसा हुआ जिसे मैं अब भी जेहन से निकाल नहीं पा रहा हूं। बाकर साहब का का पीठ उनकी घऱ की तरफ था जबकि मेरा मुंह ठीक घर के सदर दरवाजे की तरफ। बातचीत के दौरान अचानक 14-15 साल का एक लड़का अबू बशर के घर का दरवाजा खोलता है और फिर बाहर निकलते ही फौरन दरवाजे के उसी तरह भिकड़ा कर बंद कर देता है। मैंने मुश्किल से बस पांच सेकेंड के लिए घर के अंदर का मंजर देखा होगा। और बस उसी मंजर ने मुझे घर के अंदर जाने को मजबूर कर दिया। लिहाजा कुछ देर तक इधऱ-उधर की बात करने के बाद मैंने इशारे से तिफलू भाई को अलग से बुलाया और अपनी ख्वाहिश जता दी- 'मैं बशर का घर अंदर से देखना चाहता हूं।'
फिर अगले ही मिनट मैं गुजरात ब्लास्ट के मास्टर माइंड और सिमी के सबसे खूंखार आतंकवादी अबू बशर के घर के अंदर था। दरवाजे से घुसते ही सामने एक ओसारा था। जिसके नीचे लकड़ी की एक चौकी पड़ी थी। चौकी के दो पांव को ईंटों से सहारा दिया गया था। चौकी के सिरहाने गुदड़ी जैसा बेहद पुराना बिस्तर पड़ा था। जबकि चौकी की बाईं तरफ बगैर गैस के खाली गैस स्टोव आठ ईंटों पर रखा हुआ था। स्टोव और ईंटों के बीच कुछ साबुत और अधजली लकड़ियां पड़ी थीं। वहीं बराबर में कालिख हो चुके पांच बर्तनों के बराबर में मिट्टी का एक घड़ा रखा था। घर में सिर्फ एक कमरा था। हम उस कमरे में भी देखना चाहते थे पर झिझक भी रहे थे कि कहीं अंदर घर की कोई लड़की ना हो। तिफलू भाई ने झिझक दूर की और कहा कि अंदर आ जाइए क्योंकि घर में सिर्फ अबू बशर की मां ही हैं। कमर या कूल्हे पर उन्हें कुछ ऐसी परेशानी है जिसकी वजह से वो चल फिर नहीं सकतीं। कमरे में एक उम्रदराज चारपाई पड़ी थी जिसपर एक मटमैला चादर बिछा था। कमरे को चारों तरफ से जब ध्यान से देखा तो लोहे के दो पुराने बक्से और एक ब्रीफकेस के अलावा अंदर कुछ नहीं था। हमें ये भी बताया गया कि घर में खाना बशर के दोनों छोटे भाई ही बनाते हैं इसके बाद हम घर से बाहर निकल आते हैं। बाहर निकलते-निकलते तिफलू भाई हमें बशर के घर के सदर दरवाजे पर लगा नीले रंग का एक निशान दिखाते हैं। ये निशान सरकार की तरफ से गांव के उन घरों के बाहर लगाया जाता है जो गरीबी की रेखा से नीचे होते हैं।
इसके बाद मैं और भी तमाम लोगों से मिला, बातें कीं.....पर ना मालूम क्यों अबू बशर का घर मेरा पीछा ही नहीं छोड़ रहा?

Saturday 4 October, 2008

एक क्राइम रिपोर्टर की कविता

किसी क्राइम रिपोर्टर की बात चलते ही आपके ज़ेहन में कैसी तस्वीर उभरती है? शायद किसी ऐसे इंसान की, जो रोज़-ब-रोज़ होनेवाली जुर्म की वारदातों को देख-देख कर ख़ुद भी पत्थर हो चुका हो। जिसकी पूरी ज़िंदगी और पूरी शख़्सियत ऐसी ही वारदातों के इर्द-गिर्द ही सिमट कर रह गई हो। और ज़ाहिर है कि ऐसे किसी इंसान से आप कम-से-कम कविता लिखने की उम्मीद तो नहीं कर सकते। वो भी दिल को छू लेनेवाली कविता। लेकिन मेरा दावा है कि मैं यहां आपकी ख़िदमत में जो कविता पेश कर रहा हूं, उसे पढ़ कर आप यकीनन अपनी सोच पर दोबारा सोचने को मजबूर हो जाएंगे। एक ऐसी कविता, जिसे किसी और ने नहीं, बल्कि हिंदुस्तान के सबसे नामचीन क्राइम रिपोर्टरों में से एक शम्स ताहिर ख़ान ने लिखी है।


तुमको मेरी परवाह नहीं है
क्या मेरा अल्लाह नहीं है
ज्यादा महंगे ख्वाब ना देना
इतनी मेरी तनख्वाह नहीं है
थोड़ी खुशियां पाल के रखना
ग़म की कोई थाह नहीं है
दर्द में अब भी दर्द है कायम
आह में पर वो आह नहीं है
अब शम्स मुश्किल है आगे
रस्ता तो है पर राह नहीं है

Thursday 2 October, 2008

अपनी ग़लती से मारी गईं सौम्या!

"सौम्या ज़रूरत से ज़्यादा एडवेंचर्स थीं। वो रात को अकेले निकलीं और इसीलिए उसका क़त्ल हो गया।" कुछ ऐसा ही कहा दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने। उस शीला दीक्षित ने, जो हर महीने-दो महीने में कोई-ना-कोई ऐसी ही अजीबोग़रीब और बेतुकी कमेंट कर विवादों की शुरुआत कर देती हैं। फिर चाहे वो दिल्ली से यूपी-बिहार वालों को बाहर भगाने की बात हो, ब्लू लाइन में सफ़र करने की बजाय पैदल चलना मुनासिब समझने की या फिर कुछ और... लगता है कि शीला जी ने अब अपनी और अपने सरकार की कामयाबियों की वजह से कम, बल्कि आपत्तिजनक बयानबाज़ी की वजह से ही ज़्यादा मशहूर होने की क़सम खा ली है।
मैं जिस मीडिया हाऊस में काम करता हूं, सौम्या भी वहीं काम करती थीं। उससे मेरी व्यक्तिगत तौर पर कोई मुलाक़ात तो नहीं थी, लेकिन जितना भी मैंने उसे जाना वो सिर्फ़ अच्छा ही अच्छा था। सौम्या घर से ऑफ़िस और ऑफ़िस से घर जानेवाली एक ऐसी सुशील लड़की थी, जिसकी चाहत हर मां-बाप को होगी। उस रात भी सौम्या ड्यूटी से वक़्त पर घर जाना चाहती थी। लेकिन मालेगांव और साबरकांठा में हुए धमाकों ने उसका रास्ता रोक लिया। उसे देर तक दफ़्तर में रुकना पड़ा और निकलते-निकलते रात के तीन बज गए। यकीनन, इतनी देर रात लड़कियों का कहीं भी बाहर निकलना बहुत ठीक नहीं होता है। अकेले में वो बदमाशों की सॉफ्ट टार्गेट होती हैं। लेकिन सौम्या की कहानी से इतना तो साफ़ है कि वो किसी एडवेंचर के लिए रात को नहीं घूम रही थी, बल्कि अपनी ड्यूटी से घर लौट रही थीं। लेकिन मुख्यमंत्री जी ने जैसा कहा उससे तो लगा मानों सौम्या देर रात किसी डिस्कोथेक से मौज-मस्ती करने के बाद लापरवाह लड़की की तरह सड़कों पर घूमने निकली थीं।
सच तो ये है कि कोई भी मां-बाप अपनी लड़की को देर रात तक बाहर रहने देना नहीं चाहता है। सौम्या के घरवाले भी उसे लेकर फ़िक्रमंद थे और इसलिए उन्होंने उसे फ़ोन भी किया था। लेकिन जो होना था, वो दिल्ली में बदमाशों के बेख़ौफ़ होने का नतीजा था। लेकिन अब शीला जी ने बात कही है... उसे सभी सकते में हैं। हो सकता है कि अब शीला जी ये तर्क दें कि उन्होंने ऐसा 'मदरली टोन' में कहा था, लेकिन अगर ऐसा भी था तो भी इस टिप्पणी के लिए ये सही वक़्त नहीं था। सोचिए, जिस घर में मातम पसरा हो, वहां मातमपुर्सी के लिए पहुंच कर अगर कोई मरनेवाले की ग़लती पर ही अपनी राय देने लगे, तो क्या होगा? शीला जी का बयान कुछ ऐसा ही था।
चलिए एक बार के लिए ये मान भी लिया जाए कि सौम्या ने देर रात अकेले निकल कर ग़लती की, तो भी क्या महज़ इस ग़लती के लिए उसका जो अंजाम हुआ, उसे जस्टिफ़ाई किया जाना चाहिए? वैसे तो हर राजनेता को अपने शासन में कभी कोई कमी या ग़लती दिखाई नहीं देती है। लेकिन शीला जी के इस बयान ने तो हद ही कर दी। फर्ज़ कीजिए कि सौम्या या उस जैसी किसी लड़की के बदले कोई मजबूत कद-काठी का मर्द ही सड़क पर अकेला जा रहा होता और हथियारबंद बदमाश उसे गोली मार देते, तो क्या वो सिर्फ़ लड़का होने की वजह से ही बच सकता था? इसका जवाब शायद शीला जी ही बेहतर दे सकती हैं।

Wednesday 1 October, 2008

ज़िंदगी का पीछा करते हादसे

इन दिनों छुट्टी पर घर जाने की तैयारी में हूं। छुट्टी में घर जाने की खुशी क्या होती है, ये वही जानता है... जो घर से दूर रहता है। मैं ऐसे ही लोगों में हूं। सालों से अपने घर और घरवालों से दूर यायावर की तरह जी रहा हूं। और सच पूछिए तो पूरा साल ही बस इसी इतंज़ार में कट जाता है कि कब मार्च और अक्टूबर का महीना आएगा और कब घर जाऊंगा? अक्टूबर इसलिए क्योंकि इन्हीं दिनों दशहरा होता है और एक बंगाली परिवार से होने के चलते दशहरा यानि 'दुर्गा पूजो' का मेरे लिए क्या मतलब है, ये आप समझ ही सकते हैं। मार्च में भी एक बार घर जाने की कोशिश करता हूं क्योंकि अक्टूबर के बाद मार्च आने में पांच महीने का वक़्त पार हो चुका होता है और इतने वक़्त में अपने बॉस से 10-15 दिनों की छुट्टी लेने का एक हक सा बन जाता है।
लेकिन सच पूछिए तो इस बार घर जाने की वैसी खुशी नहीं है, जैसी दूसरी बार होती है। अपने चारों ओर रोज़-ब-रोज़ होते हादसों ने जैसे मेरी ख़ुशियों पर ग्रहण लगा दिया है। कभी-कभी लगता है कि पूरी ज़िंदगी ही जैसे हादसों के हवाले होकर रह गई है। और लाख कोशिश के बावजूद दिल खोलकर खुश नहीं हो पाता हूं। कभी खुश होने भी लगता हूं तो अंदर से जैसे एक दूसरा सुप्रतिम मुझे झकझोर देता है। कहता है, "इतना खुश होने की ज़रूरत नहीं है, क्योंकि तुम्हारे पास मनाने को अभी लाखों ग़म हैं।"
अगस्त के महीने में मेरे एक दूर के रिश्ते के कज़न ने खुदकुशी कर ली। वो अपनी शादी से नाखुश था। वो शादी जिसे सिर्फ़ एक ही महीने हुए थे। अभी मैं इस ग़म को पीने की कोशिश कर ही रहा था कि पिछले महीने हुए एक और बड़े हादसे ने मुझे बुरी तरह झकझोर दिया। मेरी इकलौती चचेरी बहन, जो दिल की बहुत अच्छी थीं, गुज़र गईं। पहले दिन वो बीमार हुईं और दूसरे दिन हम सभी से दूर चली गईं। उन्हें सेप्टीसीमिया हुआ था। उस रोज़ जब मेरे बड़े भाई ने मुझे टेलीफ़ोन पर ये ख़बर सुनाई तो मुझे यकीन ही नहीं हुआ। सिर्फ़ इस बात पर यकीन करने के लिए मैंने अपने भाई साहब को कम से कम पांच बार फ़ोन किया होगा। ये तो रहे वो हादसे, जो मुझ पर या मेरे घरवालों पर गुज़रे। इन्हीं चंद महीनों में कभी बम धमाके और कभी क़त्ल-ओ-गारत की शक्ल में मैंने इतना कुछ देख लिया कि ये हादसे अब भी मेरा पीछा कर रहे हैं।
धमाकों के बाद सड़क पर लहूलुहान पड़े जिस्म, चीथड़ों में तब्दील होता... रहम की भीख मांगता इंसान, चारों ओर ख़ून ही ख़ून और फ़िज़ां में घुली बारुद की गंध ने जैसे मेरी रुटीन की ज़िंदगी मुझसे छीन ली है। और इस रुटीन लाइफ़ की 'नॉर्मलसी' को गंवाना बेहद बोझिल और घुटन भरा है। अभी कल की ही तो बात है... रोज़ की तरह जब मैं दफ़्तर पहुंचा, तो एक ऑफ़िशियल मेल ने मुझे अंदर से झकझोर दिया। मेल था, सड़क हादसे में मेरी एक सहकर्मी सौम्या की मौत का। अभी सभी लोग इस हादसे को ऊपरवाले की मर्ज़ी मान ही रहे थे कि तब तक ख़बर आई कि मेरी सौम्या की मौत सड़क हादसे में नहीं, बल्कि गोली मार दिए जाने की वजह से हुई। पोस्टमार्टम में उसके सिर से एक गोली निकली थी।
मैं जिस मीडिया हाउस में काम करता हूं, वो काफ़ी बड़ा है। इसीलिए सभी लोगों से बराबर मुलाक़ात नहीं है। मेरी सौम्या से भी कोई मुलाक़ात नहीं थी। लेकिन दफ़्तर में जब भी मैं उसे देखता, तो वो हमेशा हंसती और मुस्कुराती नज़र आती थी। हमारे यहां किसी के गुज़र जाने पर उसके बारे में सिर्फ़ अच्छा-अच्छा बोलने का रिवाज़ है। चाहे वो कैसा भी क्यों ना हो? लेकिन सौम्या ऐसी थी, जिसके बारे में जितना भी अच्छा बोला जाए, कम है। शायद इसीलिए जिस सौम्या को मैंने दो दिन पहले तक दफ़्तर में देखा था, आज उसी के क़त्ल की ख़बर लिखते हुए अजीब सा महसूस हो रहा था... एक बार तो ऐसा भी लगा कि सब छोड़ कर कहीं भाग जाऊं? लेकिन फिर सोचा कि भागकर जाऊंगा कहां? हादसे शायद मेरा पीछा करते हुए वहीं पहुंच जाएंगे।