अभी लंबी छुट्टियों के बाद घर से लौटा हूं। तकरीबन 15 दिनों की। ये दिन कैसे गुज़र गए, पता ही नहीं चला। घर जाने से पहले छुट्टी पर जाने की खुशी तो थी, लेकिन साथ ही ये भी सोचकर मन उचाट हो रहा था कि ये छुट्टियां भी जल्द ख़त्म हो जाएंगी। और इसके साथ ही मां, बाबा (पिताजी), दादा (भैया) और घर के सारे लोगों से दूर चले आना होगा। कहने को कह सकते हैं कि तन से दूर हैं, मन से थोड़े ही! लेकिन इस तरह के जुमलों से मन नहीं संभलता। मैं जिस ट्रेन से अक्सर अपने घर जाता हूं, वो मुझे कोई 22 घंटे में वहां पहुंचा देती है। नौ सालों से बाहर रह रहा हूं। मेरा सफ़र 22 से 23 घंटे का तो कई बार हुआ, लेकिन इस ट्रेन ने इससे ज़्यादा लम्हे मुझसे कभी नहीं छीने। लेकिन इस बार ट्रेन ज़्यादा ही लेट हो गई। मेरा सफ़र कोई 28 घंटे में पूरा हुआ। छह घंटे पहले ही दिन पानी में चले गए।
ख़ैर...घर पहुंचा। मां के पैर छूना चाहता था, लेकिन मां ने मेरे झुकने से पहले ही मुझे खींच कर गले से लगा लिया। सच तो ये है कि मैं भी पहले गले ही लगना चाहता था और पैर बाद में छूना। लेकिन पता नहीं क्यों मां को देखा, तो अचानक ही झुक गया। इसके बाद उनसे तब तक चिपका रहा, जब तक उन्होंने मुझे दोबारा देखने के लिए खुद से अलग नहीं किया। मां ने क्या देखा, ये तो नहीं पता, लेकिन मैंने देखा कि मां पहले से भी ज़्यादा दुबली हो गई है और बाबा भी। ये उम्र का असर है या फिर मेरी फ़िक्र का, ये मैं नहीं जानता, लेकिन हर बार जब भी छुट्टियों में उन्हें देखता हूं तो लगता है जैसे वे पहले से थोड़े और कमज़ोर हो गए हैं... एक बार लगा कि उन्हें अपना ख़्याल रखने को कहूं, लेकिन अगले ही पल नामालूम क्यों, चुप हो गया। उन्होंने बचपन से ही सोच-समझ कर बातें करने की सीख दी। अब उन्हीं के साथ सोच-समझ कर बात करने लगा था।
घर पहुंचते ही खूब बातें करना चाहता था। जो बातें टेलीफ़ोन पर नहीं हो सकी और जो बातें साल भर बस एक अदद मुलाकात का इंतज़ार करती रहीं... साल भर मैंने जो दुख झेले और साल भर जो खुशियां भोगी, वो सबकुछ दिल खोल कर बताना चाहता था। लेकिन रात काफ़ी हो चुकी थी। मैंने अपनी बातचीत छोटी रखी और सोने चला गया। बिस्तर पर पड़े-पड़े काफ़ी देर तक सोचता रहा। सोचता रहा कि किस तरह मां-बाबा ने मुझे बचपन से लेकर आज तक इतने लाड़-प्यार से पाल-पोष कर बड़ा किया... और इतना बड़ा किया कि एक रोज़ उन्हीं को छोड़ कर करियर के चक्कर में हज़ारों मील दूर चला आया। मुझे याद है, जब मैं पांच-छह साल का था तो अक्सर कहा करता था कि मैं शादी नहीं करूंगा। तब मुझे लगता था कि कहीं शादी होने के बाद मुझे ससुराल में रहने के लिए न जाना पड़े और मैं अपनी मां से दूर ना हो जाऊं। मेरे दादा मुझसे कोई डेढ़ साल बड़े हैं। लेकिन मैंने उन्हें कभी ऐसी कोई बात कहते हुए नहीं सुना। दादा कहते हैं कि मैं बचपन से ही मां के ज़्यादा करीब हूं, शायद इसलिए ऐसा कहता था। लेकिन किस्मत देखिए कि आज दादा ही मां के साथ हैं और मैं मां से दूर रहता हूं।
इस बार छुट्टियां भी बहुत तेज़ी से गुज़र गईं। पांच से छह दिन तो घर से दूर अलग-अलग रिश्तेदारों के पास गुज़ारना पड़ा। जो दिन बचे, उन दिनों में बस मां को दिन भर चूल्हे-चौके के बीच पिसता देखता रहा। कभी वो मेरी पसंद की चीज़ें बनाने में उलझी रही, तो कभी किसी और काम में... हां, इन दिनों में मां ने रह-रह कर मुझसे जो बात कही, वो अब भी मेरे कानों में गूंज रही है। मां ने कहा, "बाबू, तोर जोन्ने खूब मोन कैमोन कॉरे। तुई कॉतो दूरे चोले गेली।" (बाबू, तुम्हारी बहुत याद आती है। तुम कितने दूर चले गए) सचमुच कभी-कभी मुझे लगता है कि मैं मां से बहुत दूर चला आया हूं।
छुट्टियों के बाद वापसी का वक्त सबसे बोझिल होता है। कुछ इतना बोझिल कि पिछली बार तक तो मैं वापसी के लिए पहले से टिकट तक कटवाने से बचता था। ऐन एक-दो रोज़ पहले टिकट लेता था। लेकिन वेटिंग से बचने के चक्कर में इस बार मैंने टिकट पहले ही कटवा रखा था। छुट्टियां ख़त्म होने से दो दिन पहले जैसे ही मैंने घर में अपने वापसी के दिन का बताया, माहौल बोझिल हो गया। मां भी सुस्त सी पड़ गई। फिर, मैंने तब तक मां को उदास देखा, जब तक मैं दिल्ली के लिए रवाना नहीं हो गया। मेरे ट्रेन में बैठते ही उनकी आंखों में आंसू डबडबाने लगे। वो खुद को संभालने की कोशिश कर रही थीं। लेकिन उनसे गले मिलते ही उनकी सब्र का बांध टूट गया। वो रोने लगी। मुझे लगा कि मैं भी एक बार ज़ोर से रो कर हल्का हो लूं, लेकिन कमबख़्त दिल की टीस दिल में ही रह गई। जाने क्यों रो नहीं सका।
ट्रेन में बैठा खिड़की से झांक रहा था... कई घंटे गुज़र चुके थे... बाहर शाम का धुंधलका था। मन अजीब सा हो रहा था... मां से जुदाई की कसक सता थी... तभी मोबाइल की घंटी ने मेरी तंद्रा तोड़ दी... देखा, मां अपनी नई मोबाइल फ़ोन से कॉल कर रही हैं... मेरे फ़ोन उठाते ही उन्होंने कहा, "बाबू तोर जोन्ने खूब मोन कैमोन कॉरछे। जोदी पाखी होताम, उड़े तोर काछे चोले आसताम..." (बाबू, तुम्हारी बहुत याद आ रही है। अगर मैं चिड़िया होती, तो उड़ कर तुम्हारे पास चली आती...)
Wednesday, 29 October 2008
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6 comments:
भावनापूर्ण संस्मरण। मन भर आया!
भाई हर बार होता है यही एहसास। आपने हम में से अनेकों के मन की बात लिखी है। फैज़ का एक शेर याद याद आ रहा है-
मेरे महबूब तू वो पहले सी मोहब्बत न मांग
तुझसे भी दिलफरेब हैं गम रोज़गार के।
माँ का विकल्प क्या बने,पूछो तो सब मौन.
माँ से यह संसार है,माँ से बढकर कौन.
माँ से बढकर कौन,सृष्टि की दौलत छोटी.
पकवानों से बढकर है माँ के हाथ की रोटी.
कह साधक कवि, भारत है माता हम सबकी.
दुनियाँ मे सबसे अच्छी माता हम सबकी.
सुप्रतिम, तुमने रुला दिया...अब तो मेरे हाथ सिफर है. अग्र चिड़िया होता तो उड़ के उस जग में माँ के पास चला जाता...मगर क्या करुँ...
बहुत भावुक लेख..अपना मुरीद कर लिया आपने हमें.!!
बहुत खूब संवेदनशील लेखनी है,..बनाये रखो..हम आते रहेंगे.
माँ ! भगवान् का एक रूप...कितने अभागे पहचान पाते हैं....
ग़ज़ब..............
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