"वो दस रुपएवाली सॉस की बोतल देना..."
"क्या? दस रुपएवाली!"
"हां, हां... हर महीने तो आती है तुम्हारे यहां से..."
"लेकिन भाई साहब, दस रुपए में तो कोई भी सॉस की बोतल नहीं आती..."
"क्या बात कर रहे हो, वो तो रखी है सामने... वही तो है, दस रुपएवाली बोतल..."
"लेकिन वो सॉस तो सत्तर रुपए की है..."
"अजीब बात करते हो, अभी पिछले महीने ही दस रुपए की आई है..."
अब दुकानदार कुछ समझने की कोशिश करता है... और फिर खरीदार से पूछता है,
"कहीं आप 40 नंबरवाले शर्मा जी तो नहीं?"
"अरे हां भई, मैं ही प्रो. शर्मा हूं। चलो, अब देर मत करो मुझे कॉलेज जाने में देर हो रही है..."
अब दुकानदार जल्दी से शर्मा जी को सॉस की बोतल सौंप देता है... शर्मा जी भी दुकानदार को दस रुपए थमाकर घर की राह लेते हैं...
शर्मा जी घर आ चुके हैं। डायनिंग टेबल पर बटर टोस्ट के साथ ऑमलेट तैयार है। वे सॉस की बोतल खोलते हुए अपनी श्रीमती जी से कहते हैं,
"जानती हो प्रिया, ये मुहल्ले का किरानावाला भी लोगों को लूटने में लगा है... अभी दस रुपएवाली इस बोतल के मुझसे सत्तर रुपए मांग रहा था... अजीब अंधेरगर्दी है... जब मैंने बताया कि यहीं 40 नंबर मकान में रहता हूं, तो उसने मुझे दस रुपए की बोतल दे दी।"
अब मिसेज शर्मा कुछ सोच कर थोड़ा मुस्कुराती हैं... फिर पतिदेव की हां में हां मिला देती हैं। शर्मा जी, नाश्ता पूरा करते हैं और कॉलेज के लिए निकल लेते हैं।
क़रीब दो घंटे बाद... अब मिसेज शर्मा किराने की दुकान पर हैं... तमाम दूसरी चीज़ों की खरीदारी के बाद दुकानदार अपने हिसाब में साठ रुपए अलग से जोड़ देता है। मिसेज शर्मा पूछती हैं,
"ये साठ रुपए किस बात के?"
"मैडम... आपको तो पता ही है। अभी कुछ देर पहले सर आए थे, सॉस की बड़ी बोतल दस रुपए में ले गए। अब साठ रुपए तो आप ही को देने होंगे ना..."
"ओ हो! चलो, ये लो तुम्हारे साठ रुपए। तुमने उन्हें बताया तो नहीं कि ये बोतल दस की नहीं सत्तर की आती है?"
"अरे नहीं... मैडम। एक बार गलती से ज़ुबान फ़िसल गई थी... लेकिन फिर मैंने ख़ुद को संभाल लिया।"
ये महज़ कहानी नहीं, बल्कि हक़ीक़त है... हक़ीक़त मेरे शर्मा अंकल की... वैसे तो शर्मा अंकल हमारे शहर के एक कॉलेज में मनोविज्ञान के प्रोफ़ेसर हैं... बीए, एमए, एम.फिल, पीएचडी और ना जाने क्या-क्या... उनके हाथों से पढ़ कर नामालूम कितने ही लड़के-लड़कियां आगे निकल गए... मगर, शर्मा अंकल हैं कि दुनियादारी से अब भी कुछ इतने बेख़बर हैं कि उन्हें 2009 भी 1990 सा लगता है... सोचता हूं, सचमुच! किसी फ़ील्ड में एक्सिलेंस के लिए कई बार हमें दुनिया और दुनियादारी से कितनी दूर होना पड़ता है...
Thursday, 28 May 2009
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10 comments:
आलेख के माध्यम से एक अच्छा संस्मरण सुप्रतिम जी। वाह।।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
शार्मा जी जैसे बहुतेरे हैं जिन्हें दुनियादारी से कोई साबका नहीं. अच्छा लगा आपका संस्मरण.
शर्मा जी जैसे लोगों की ज़रूरत है क्योंकि दुनियादारी के ज्ञाता तो भरे पड़े हैं। समाज को ऐसे लोगों की ज़रूरत है जो दूसरे गंभीर विषयों में पारंगत हों......भले ही दुनियादारी की थोड़ी कम समझ हो।
धन्यवाद सुप्रतिम जी।
इस प्रस्तुति में लघु कथा का स्वाद भी है। लेकिन दुनियादारी की समझ भी ज़रूरी है...
Rochak katha/sansmaran.....
भाई सुप्रतिम जी मैं भी अभी तक शर्मा जी वाली कैटेगरी में हूँ !
हालाँकि बहुत बार महसूस करता हूँ कि दुनियादारी बेहद आवश्यक है .........
लेकिन फक्कड़पना भी कहीं ऐसे जाता है ?
बाजार कभी-कभार जाना भी होता है तो दूकानदार के लिए कुछ रेट-रटाये शब्द जमा कर रखे हैं,
जो बोल देता हूँ - " लूट मची है क्या" या "यार देने वाले दाम बताओ" या फिर "फलानी जगह तो इतने के मिल रहे थे" !
रिक्सा वाले से झिकझिक मुझे नापसंद है !
bhut rochak alekh.
लगता है इन दिनों ज्यादा ही व्यस्त हैं
सुप्रतिम जी, इतने दिनों के बाद ब्लॉग जगत में दर्शन दिए, और फिर नदारद। आप लगातार लिखें, आपके लिखे को पढ़ना अच्छा लगता है।
सर कहां हैं?
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