Thursday, 25 September 2008

बटला हाउस: क्या सच, क्या झूठ

बटला हाऊस में हुए एनकाउंटर को लेकर काफी दिनों से मन में कई बातें चल रही थीं। कुछ लिखने की इच्छा भी थी। लेकिन एक बेहद संवेदनशील मामले को सही तरीके से डील करने को लेकर मन में पैदा हो रही शंकाओं के चलते ऐसा करने में देर हो गई। बटला हाऊस पर जो कुछ भी लिख रहा हूं उसका मतलब किसी को सही या ग़लत साबित करना नहीं, बल्कि पूरे वाकये को लेकर उठ रहे उन तमाम सवालों का जवाब ढूंढ़ने की कोशिश भर करना है... जिन्हें ढूंढ़े बगैर ना तो पुलिस का काम मुकम्मल होगा और ना ही उन लोगों को तसल्ली मिलेगी, जिनकी नज़र में ये एनकाउंटर किसी भी दूसरे फ़र्ज़ी एनकाउंटर से थोड़ा भी अलग नहीं है।
उस रोज़ एनकाउंटर की ख़बर मिलते ही मैं बटला हाऊस पहुंचा था। चारों तरफ़ बेहद अफ़रातफ़री का माहौल था और सच पूछिए तो किसी को कुछ समझ में ही नहीं आ रहा था कि आखिर ये सब कैसे हुआ? पुलिस ने जिन्हें मारा, वो कौन थे? जिन्हें पकड़ा, वो कौन थे? इतने दुर्दांत आतंकवादी महीनों से पूरी आबादी के बीच कैसे छिपे थे? किसी को उनके बारे में पता क्यों नहीं चला? आदि-आदि। लेकिन शाम होते-होते फ़िज़ां में इस एनकाउंटर को लेकर भी सवाल खड़े किए जाने लगे। पुलिसवाले ये कह रहे थे कि आतंकवादियों की गोली से ज़ख्मी हुए इंस्पेक्टर मोहनचंद शर्मा की हालत गंभीर है। लेकिन यकीन मानिए ज़्यादातर लोगों को तब तक इंस्पेक्टर शर्मा की हालत गंभीर होने की बात पर ज़्यादा यकीन नहीं था। वजह ये कि लोगों ने इससे पहले हुए एनकाउंटरों में ये ख़ूब देखा था कि पुलिसवाले कितना और किस तरह घायल होते हैं। मगर, रात होते-होते जैसे ही इंस्पेक्टर शर्मा के गुज़र जाने की ख़बर आई, सभी सकते में आ गए। तब एक बार फिर इस बात पर यकीन करना मुश्किल था। लेकिन सच तो सच था। जब ये ख़बर न्यूज़ चैनलों की हैडलाइन बनी और हर किसी ने कह दिया कि इंस्पेक्टर शर्मा चले गए, तब दूसरों की तरह मुझे भी यकीन हो गया कि ये ख़बर सही है। और इसके साथ ही एनकाउंटर को लेकर उठाए जा रहे तमाम सवाल भी सतही से लगने लगे... इंस्पेक्टर शर्मा की शहादत के बाद एनकाउंटर को लेकर उठ रहे सवालों को सुनने की इच्छा भी नहीं हो रही थी... लेकिन वक़्त गुज़रा और धीरे-धीरे इन सवालों को शोर तेज़ होता गया।
रात गुज़री और दूसरे दिन सुबह मैं फिर से बटला हाऊस जा पहुंचा। आज माहौल बदला हुआ था। कल की अफ़रातफ़री के बाद आज वहां के लोगों के बीच एक आम राय कायम हो चुकी थी। राय ये कि एनकाउंटर बिल्कुल फ़र्ज़ी था और पुलिस ने बेगुनाह लड़कों को मौत के घाट उतार दिया। मुझे एक पढ़े-लिखे बुज़ुर्ग मिले, जिन्होंने इंग्लिश में कहा, "यू सी... मुस्लिम आर बिइंग टार्गेटेड इन दिस मैनर।" (कुछ और भी कहा, जिन्हें लिखना शायद ठीक नहीं होगा।) यकीन मानिए बड़ा अजीब सा लगा। इसी तरह कुछ नौजवान भी मज़हब की लाइन पर मीडिया को कोसने लगे। किसी ने मीडिया को पुलिस का भोंपू कहा, तो किसी ने आरएसएस का हथियार। वहां लोग सरकार, राजनेता, पुलिस, मीडिया सभी से नाराज़ थे। इस तरह की टिप्पणियों पर तो कुछ लोगों से मेरी मामूली बहस भी हुई। मैं सोच रहा था कि एनकाउंटर फ़र्ज़ी था या नहीं, ये तो अलहदा मसला है, लेकिन अगर मुस्लिमों की एक बड़ी आबादी में आज़ादी के इतने सालों बाद भी पूरी व्यवस्था के खिलाफ़ ऐसा घोर अविश्वास है, तो ये ज़रूर विचारणीय है। कहीं ना कहीं बटला हाऊस में उठ रहे सवालों में मौजूदा राजनीति का अक्स भी दिख रहा था। उस राजनीति का, जिसने लोगों को सिवाय वोट बैंक की तरह इस्तेमाल करने के उनका और कोई भला नहीं किया।
बहरहाल, लोगों का कहना था कि अगर वाकई एनकाउंटर सही था, तो फिर दो लड़के एल-18 की चौथे मंज़िल से कैसे भाग निकले? जबकि उस इमारत में आने-जाने के लिए सिर्फ़ एक ही सीढ़ी है। एनकाउंटर को फ़र्ज़ी करार दे रहे लोगों का तो यहां तक कहना था कि इंस्पेक्टर मोहनचंद शर्मा को किसी पुलिसवाले ने ही पीछे से गोली मार दी। किसी ने तर्क दिया कि अगर उनके कमरे से एके-47 जैसा हथियार बरामद हुआ, तो फिर उन लड़कों ने पुलिस पर गोलियां एके-47 की बजाय पिस्टल से क्यों चलाई?
इन सवालों की चर्चा मैंने कुछ पुलिस अफ़सरों से की और अपने कुछ साथियों से भी। जवाबी तर्क ये था कि जो लड़के भाग निकले, वे संयोग से पहले ही इमारत के नीचे थे और जब उन्होंने माजरा समझा, तो नीचे से ही खिसक लिए। ऐसा नहीं हुआ होगा, ये कोई दावे से नहीं कह सकता। लेकिन अगर पुलिस ये कहती है कि इंस्पेक्टर मोहनचंद शर्मा को वाकई आतंकवादियों की गोलियां लगीं और वे गोलियां उनके जिस्म को चीरती हुईं बाहर निकल गईं, तो पुलिस को अपने तर्क के हक में मजबूत दलील ज़रूर देनी चाहिए। उसे बताना चाहिए कि इंस्पेक्टर शर्मा को किसकी, कहां और कितनी गोलियां लगीं और ये गोलियां कहां गईं। इन गोलियों को जांच के लिए कहां भिजवाया गया। ये ज़रूरी इसलिए भी है क्योंकि अब एनकाउंटर के साथ-साथ इंस्पेक्टर शर्मा की शहादत को लेकर भी सवाल उठाए जाने लगे हैं। अगर, पुलिस मौके से बरामद हथियारों के साथ इंस्पेक्टर शर्मा के जिस्म में उतरी गोलियों का मिलान साबित नहीं कर पाती है, तो उसकी साख पर लगा सवाल शायद कभी हल्का नहीं हो सकेगा।
वैसे मेरे ख़्याल से अगर गोलियां इंस्पेक्टर शर्मा की पीठ या जिस्म के पिछले हिस्से पर लगी हों, आतिफ़ और उसके साथी के जिस्म पर गोलियों के अलावा मारपीट के दूसरे निशान भी मौजूद हों और एके-47 से गोलियां ना भी चलीं हों, तो भी महज़ इस बिनाह पर एनकाउंटर को फ़र्ज़ी करार देना ठीक नहीं हो सकता। गरज ये कि वहां सिक्वेंस ऑफ इंसीडैंट क्या था और एनकाउंटर से पहले ठीक क्या-क्या हुआ, ये बात या तो सिर्फ़ सीन ऑफ इंसीडैंट के रिकंस्ट्रक्शन के बाद कोई एक्सपर्ट, वहां (चौथी मंज़िल पर) मौजूद पुलिसवाले या फिर वहां से गिरफ्तार हुआ सैफ़ ही सही-सही बता सकता है। क्योंकि इमारत की बाहर से पूरा मंज़र देख कर खुद के चश्मदीद होने का दावा करनेवाले और घर बैठे किसी को सही और किसी को गलत साबित करनेवाले लोगों में मेरे हिसाब से कोई ज़्यादा फ़र्क नहीं है। वैसे इस एनकाउंटर को लेकर उठे सवाल और जारी बहस से एक बात तो साफ़ हो गई है कि अब लोग पहले की तरह सिर्फ़ पुलिस की बताई कहानी पर ही आसानी से ऐतबार करने को तैयार नहीं हैं... और ये वक़्त की ज़रूरत है कि पुलिस भी अपने काम-काज में पारदर्शिता लाए। ताकि एनकाउंटरों पर सवाल तो उठे, लेकिन अगर पुलिस सही है तो उसके पास इन सवालों का सही जवाब ज़रूर हो।

15 comments:

Anonymous said...

धिक्कार है आप और आप जैसे बेबकूफ लोगों पर

amar uajala said...

ब्लाग पर देख कर अच्छा लगा। उम्मीद करता हूं कि बेवाक टिप्पणी का दौर चलता रहेगा। पुलिस की विश्वसनीयता पर सवाल इसलिए उठता है कि उसकी जिंदगी का बड़ा हिस्सा सार्वजनिक स्थानों पर गुजरता है। कोई भी आदमी उसकी हरकत पर नजर रख सकता है। एयर कंडिशन्ड कमरों में अरबों के भ्रष्टाचार करने वाले नेता, नौकरशाह या कारोबारी किस कर क्या कर गुजरते हैं, किसी को पता ही नहीं चलता। असली काम तो भ्रष्ट व्यवस्था के खिलाफ जनता को जगाने की है ताकि सुरक्षा के लिए जान हथेली पर लेकर लोहा लेने वालों को सुविधाओं के अभाव में मौत के मुंह में बार - बार कूदने की जरूरत न पड़े। http://www.jaago--india--jaago.blogspot.com

Anonymous said...

क्या करना चाहिए पुलिस को ?पहले मीडिया को फोन करे की देखो आतंवादी वहां छिपे है हम जा रहे है आप भी कैमरा ले लो ?एक नियम है की छोटे बच्चे या किसी गवाह की फोटो आप टी वी पर न दिखाये,सब बच्चे की फोटो दिखा रहे है ,ये भी अमेरिका ओर दूसरे देशो में है की वहां का मीडिया लाशो ओर खून को नही दिखाता है क्यूंकि इससे दहशत ज्यादा फैलती है पर यहाँ किसे पड़ी है ?आज तक वालो को ये फ़िक्र है की जी वाला आगे न निकल जाये ओर जी वालो को दूसरे की चिंता है ,कई साल पहले एक पत्रकार भटनागर का मर्डर हुआ शक के दायरे में एक आई पी एस अफसर आये,उनकी पत्नी ने शाम को प्रेस कांफ्रेंस कर डाली की प्रमोद महजान ये है ,वो है सारे चैनलों में ब्रेकिंग न्यूज़ आ गई उसके बाद कोई सफाई नही ?अखबारों में कम से कम छोटा सा लिखा तो आ जाता है की हमें खेद है ,टी वी में तो कोई खेद भी नही करता .
क्यों भाई आप एक घंटे में फ़ैसला सुनना चाहते हो वो भी सिर्फ़ अपने चैनल पर क्यों ?ये तो कोई देश सेवा नही है ?ऐसा क्यों है जब कोई पत्रकार ब्लॉग लिखता है या अकेले में बतियाता है तो अलग सुर में होता है ओर जब चैनल में तो अलग सुर में ?क्यों ?
क्या लाश उठाकर दिखाई जाये की देख लो यहाँ गोली लगी है ?कितने जवान मरे है कश्मीर में ?कोई घर गया किसी के ?किसी ने पुछा उनके बीवी बच्चे किस हाल में है ?या उनके माँ बाप किस हाल में है ?

Anonymous said...

है ईश्‍वर, इन नासमझ टिप्‍पढ़ीकर्ताओं को क्षमा करना। ये नहीं जानते कि इनमें और बटला हाउस पर खड़े होकर बकबास करने वालों में कोई फर्क नहीं हैं। इन सभी के पास एक जैसा ही चश्‍मा है, सिर्फ ब्रांड बदल गया है। सुप्रतिम ने ठीक लिखा है कि पुलिस को अपनी कार्यप्रणाली में पारदर्शिता लानी चाहिए। इसका ये मतलब नहीं कि सुप्रतिम एनकाउंटर को गलत या सही करार दे रहें हैं।

Anonymous said...

हरि जोशी, हम तो नासमझ हैं, हमें तो भगवान माफ कर देगा
लेकिन तुम सेन्सेशनल सीकर तो जरूरत से ज्यादा अक्ल वाले हो, एम्बेड जर्नलिस्ट हो, तुम्हारी जगह कहां होगी?
तुम्हें तो माफ करने का बूता भगवान में भी नहीं है

jay said...

i am agree with Supritam and Hari joshi.

Anonymous said...

अरे अनामी भैय्या,
ये ब्‍लागजगत है। यहां सब बुद्धिजीवी या मसिजीवी लेकिन कोई आतंकवादी नहीं है। इसलिए बुरका पहन कर टिप्‍पढ़ीं देने की जरूरत नहीं है। यहां तो हम आपके हर शब्‍द का स्‍वागत करेंगे। आप बिल्‍कुल नहीं डरिए। सच्‍ची। और हां, अगर अभी भी छिपके कलम चलाने का मन हे तो चिट्ठाजगत की शोभा उड़नतश्‍तरी यानी समीर लाल जी की ताजा पोस्‍ट पर तीस दोहे पढ़ कर आत्‍मा की शुद्धि कर लीजिए। उड़नतश्‍तरी आपका भला करेगी।

ओमप्रकाश तिवारी said...

सुपरतिम ने सही लिखा है। वह किसी की तरफदारी नहीं कर रहे। एक घटना कॊ लेकर कुछ लॊग सवाल उठा रहे हैं। उस पर विचार किया ही जाना चाहिए। आतंकी गलत हैं। उनकी तरफदारी नहीं की जा सकती। हॊनी भी नहीं चाहिए। लेकिन पुलिस की छवि भी तॊ सही नहीं है। इस मामले में यदि एमसी शरमा जी शहीद नहीं हुए हॊते तॊ अब तक पता नहीं कितने सवाल उठ रहे हॊते। सुपरतिम ने हालात कॊ बयां करने का साहस किया है। लॊग तॊ सीधे फैसला ही सुना देते हैं।

एस. बी. सिंह said...

सुप्रतिम जी ने बिल्कुल ठीक लिखा है। घटना के बाद जांच की वैज्ञानिक विधि न अपनाने और पारदर्शिता के अभाव के कारण ही संदेह जन्म लेते हैं। इस के लिए कुछ पुलिस का पुराना रिकार्ड भी जिम्मेदार है। संतुलित आलेख.

पुनीता said...

सुप्रतिम जी,
ब्लाग पर आपने जो हकिकत को बयां किया है वह एक आम आदमी की सोच है। हम सब हर एनकांउटर को इसी नजर से देखते हैं. हो सकता है कि हर आदमी की संवेदवशीलता का पैमाना अलग हो। कई तो मरे हुए आंतकवादी के परिवार के बारे में भी उतना ही सोचता होगा जितना की किसी पुलिसवाले के परिवार के बारे में सब सोचते हैं. इसलिए आप जैसे लोगों का सवाल उठाना काबिले तारीफ है.

"तिनका" said...

Its really pathetic Mr. Banarji. What’s wrong a common Hindu or other fellow country man has done with these Muslims?
Every one has at some point of time in his or her life, may be victimize of this system. So it means every one should take revenge in this manner or support in the manner as a common Muslim is supporting to alleged Muslim youth.

It’s a hard fact about the Muslims, that most of the Muslims have been involved in the illegal activities including the terrorism. And if they get arrested for any thing they always defend them selves as a victim of the system.

Mr. Benarji you seem to be well aware about the working style of the police. Do you ever have not heard that any other religions fellow including Hindu has never been victimize by the police or system? And I know your answer would be affirmative but that time you will never say that police or system has made Hindu victimized, on that time you would say Mr. so and so has been victimized by the system than this time why do you say that a Muslim has been alleged why not Mr. So and So.

One more thing which I would like to assert, which I wrote some where else on this blogg only, that there are strong need to change in the perception of the Muslim Intellectuals. And they should really try to understand the social, economical, and religious, problems of the Common Muslim. They should stop negative thinking about the country or system. Every one , every where, faces the problem in their day to day life and Muslims are not the exception of it, They should give the thought on the freedom which they have got in this country which even they can not enjoy in Muslim countries like UAE, PAK and Afghan.
I request all Muslim Intellectuals to come up and understand the real problem of their community and they should dare enough to change the mind set of Muslim Brothers.
Vivek Shrivastava –(epatra2vivek@yahoo.com)

रंजन राजन said...

हिंदी ब्लाग की बढ़ती लोकप्रियता के बीच यह सवाल बहस का विषय बनता जा रहा है कि अनाम टिप्पणीकारों को कितनी आजादी दी जाए? सुलझे ब्लागर अपनी पोस्ट पर पक्ष-विपक्ष में की गई तमाम टिप्पणियों का तहेदिल से स्वागत करने को हमेशा उत्सुक रहते हैं। लेकिन पहचान छिपाकर की गई अनाम टिप्पणियां अकसर ब्लागरों की भावनाओं का फर्जी एनकाउंटर करती दिख रही हैं।

अपने से बाहर... said...

दादा, आपकी चिंताएँ-आपके सवाल बिल्कुल वाज़िब हैं, दिक़्क़त यही है कि सबको अपनी ही बात सत्य लग रही है, जबकि सत्य केवल एक है कि जो भी हमारे सामने है वो अर्धसत्य है।

Anonymous said...

आपका ब्लॉग पढ़ा अच्छा लगा क्योकि जो आपके भावनाएं या कहे द्वंद जो आपके मन मे है । वो लगभग हर किसी रिपोर्टर के मन मे भी है । पुलिस को अपनी कार्यप्रणाली मे पारदर्शिता लानी चाहिए इसमें शायद ही किसी की दो राय हो ... लेकिन भाई जब आंतक और देश की सुरक्षा से जुड़ा मामला हो तो पुलिस की पूरी तफ्तीश होने तक थोड़ा तो हमें इंतज़ार करना ही पड़ेगा...उसके बाद सारे सवालों के जवाब हम ढूढ ही लेगे और दुनिया के समाने सच्चाई लाने मे कामयाब होगें ।

नितिन जैन, आजतक

क्षितिज said...

सुप्रतिम जी भावनाओं में बहकर बेहद संजीदा तरीके से आपने हालाते-एनकाउंटर बयां किया है....काबिले-तारीफ है. ..आपके सवाल भी वाजिब है...जब भी कोई ऐसी घटना होती है तो आम लोगों के ज़हन में इस तरह के सवाल उठना लाजिमी हैं.....आतंक का कोई भी चेहरा हो लोगों को खौफज़दा कर ही जाता है...इस आतंक के यज्ञ में जिसके रिश्तों की आहुति चदती है उसके दिल की आह अन्दर तक चीर जाती है.. ऐसे में लगता है कि वास्तव में इस आतंक कि ज़रूरत ही क्या है.....मज़हब से आतंक का कोई लेना देना नही है...ये तो दिमागी खेल है....और वास्तव में एनकाउंटर सच था या झूठ...ये तो वक्त की परतों में दफ़न है..लेकिन हाँ इतना ज़रूर है कि इसने लोगों को ये सोचने के लिए मजबूर कर दिया कि आतिफ, जीशान..और उनके जैसे ही मासूम चेहरे भी आतंक का पर्याय हो सकते हैं....ज़ाहिर है. लोगों के ज़हन में खौफ पैबस्त हो चुका हैं....शायद एक रोज़ फ़िर कोई डस्टबिन न फट जाए ...किसी त्यौहार की शोपिंग स्वर्ग के रस्ते पे न ले जाए.......और फ़िर एक रोज़ मेरी आँखें टीवी पर चल रही गोलियों की आवाज़ से खुले.....