Wednesday, 7 January 2009

...पर 'हिंदुस्तानी क़साबों' का क्या होगा?

जब से मुंबई हमले में पाकिस्तान का हाथ होने की बात सामने आई है, पाकिस्तान को कोसने का सिलसिला शुरू हो गया है। कोसना बनता भी है। पाकिस्तान सालों से गलथेथरई कर रहा है। लिहाज़ा, क़साब के पकड़े जाने के बाद इस बार सरकार अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पाकिस्तान को बेनक़ाब करने की कोशिश में लग गई है। लेकिन इस कोशिश के बीच एक सवाल ऐसा है, जो अक्सर मुझे परेशान करता है... वो ये कि एक मुल्क के तौर पर तो हम शायद पाकिस्तान और वहां से प्रायोजित होनेवाले आतंकवाद से निपट भी लें, लेकिन हिंदुस्तान में पलनेवाले उन 'पाकिस्तानियों' का क्या होगा, जो लगातार उसी थाली में छेद कर रहे हैं, जिसमें ख़ाते हैं।
मुंबई हमले में पाकिस्तान का हाथ अब ज़माने के सामने साबित हो चुका है। लेकिन हाल के दिनों में हिंदुस्तान के सीने पर ऐसे दसियों हमले हुए हैं, जिन्हें अंजाम देनेवाले कोई विदेशी नहीं, बल्कि इसी हिंदुस्तान की मिट्टी में पले-बढ़े लोग हैं। फिर चाहे वो हमले जयपुर के हों, बेंगलुरू के, गुवाहाटी के, मालेगांव के, हैदराबाद के, अहमदाबाद के या फिर राजधानी दिल्ली के। तक़रीबन सभी हमलों और धमाकों में हिंदुस्तानियों के शामिल होने की बात सामने आई है। अफ़जल, दाऊद, टाइगर, हाकिम, सैफ़, बशर, ज़ीशान जैसे क़साबों की हमारे पास कोई कमी नहीं है।
संसद पर हमला करने के मुख्य आरोपी अफ़ज़ल गुरू को हम अब भी फांसी के फंदे तक नहीं पहुंचा सके हैं। ऊपर से ऐसे 'मीर ज़ाफ़रों' और 'जयचंदों' की वकालत करनेवाले भी हमारे यहां मौजूद हैं। कई संगठन जहां शुरू से ही अफ़ज़ल गुरू की सज़ा का विरोध कर रहे हैं, वहीं अरुंधति राय और प्रफुल्ल बिदवई सरीखे लोग तो अफ़ज़ल को लेकर न्यायालय के रुख पर ही सवाल खड़ा कर चुके हैं। इनका कहना है कि अफ़ज़ल के मामले में तो सरकार ने इंसान को हासिल कुदरती इंसाफ़ की भी अनदेखी कर दी। दिल्ली धमाकों के आरोपियों के साथ पुलिस के एनकाउंटर के बाद शुरू हुई सियासत की तपिश अब भी कम नहीं हुई है। ऐसे में सिर्फ़ एक क़साब को पकड़ कर पाकिस्तान से निपटने से पहले हमें बहुत कुछ सोचने की ज़रूरत है।

6 comments:

Shiv said...

बड़ा लफड़ा है. सरकार को पहले तो स्वीकार करना पड़ेगा कि अपने देश में भी आतंकवादी हैं. अब ये स्वीकारोक्ति जबतक नहीं होगी तबतक ऐसे लोगों के ख़िलाफ़ कार्यवाई करने की बात शुरू भी नहीं होगी. पकिस्तान से आतंकवादी आए. लेकिन यहाँ उन्हें जिस तरह से सपोर्ट दिया गया उसके बारे में कोई बात नहीं करता. मैंने सुना कि एक आतंकवादी के पास बंगलूरू के एक पते का पहचान पत्र था. मजे की बात ये कि जो प्लाट नंबर (२५६) का पता था वो खाली था. उस प्लाट के दोनों तरफ़ मकान हैं लेकिन वो प्लाट खाली. अब इतनी बारीक जानकारी कोई पकिस्तान में बैठे-बैठे कैसे इकठ्ठा कर सकता है?

सागर नाहर said...

इसी बात का तो दुख है, कि देश में छुपे गद्दारों से कैसे निबटा जाये?
वैसे यह चिन्ता आपकी- हमारी है सरकारों की नहीं, उसके लिये तो देशद्रोही भी एक वोटर है जिसे वह गंवाना नहीं चाहेगी।

sarita argarey said...

नए साल में संकल्प लेळ कि जो हो रहा है उसे बस देखेंगे चुप रहेंगे । क्योंकि जब तक देश में हर बात राजनीतिक चश्मे से देखी जाएगी कुछ बदलने वाला नहीं । चिल्लाते चिल्लाते थक हार जाने से बेहतर है , या तो हालात को बदल डालने की ज़िद पकडें या फ़िर धारा केसाथ बह चलें ।

Dileepraaj Nagpal said...

ghar m chora, ganv m dhindoora. aapne bahut sateek vishaya per sochne ko vivash kiya hai. badhayi

जितेन्द़ भगत said...

सही कहा आपने।

Anonymous said...

sagar nahar ki tippani ki deshdrohi bhi vote bank hai sedhe muslim varg ke upar deshdroh ka aarop hai is tarah ki sankirn vichaar dhara hi desh me Ajmalon ko janm deti hai shayad hume svyam aatmanthan ki avyasakta hai