Tuesday 4 August, 2009

पहलवानों का दौर है ये!

मैं मीडिया में हूं, तो लोगों को मुझसे बड़ी उम्मीदें हैं। मेरी तरह दूसरे मीडियाकर्मियों से भी होती होंगी। शायद इसी उम्मीद की बदौलत एक टैक्सी ड्राइवर ने एक रोज़ मुझे अपनी एक परेशानी बताई। उसने कहा कि गांव में अपने घर के पास एक ट्यूबवेल खुदवाने के लिए उसने किसी आदमी को साठ हजा़र रुपए दिए थे। एक साल हो गए, लेकिन उस आदमी ने ना तो ट्यूबवेल खुदवाया और ना ही उसके पैसे वापस किए। ड्राइवर ने इसी साठ हज़ार के बहाने अपनी पूरी ज़िंदगी मेरे से सामने खोल कर रख दी। उसने बताया किस तरह वो मुश्किलों से पला-बढ़ा और एक-एक पैसा जोड़ कर अब गृहस्थी चला रहा है। उसका कारुणिक चित्रण सुनकर मुझे भी उस पर दया आ गई और मैंने वादा किया कि मैं उसके साठ हज़ार रुपए दिलवा कर दम लूंगा।
सबसे पहले मैंने सोनीपत में अपने एक पत्रकार मित्र को फ़ोन किया और अपने ड्राइवर साथी के रुपए दिलवाने में मदद करने की गुज़ारिश की। ड्राइवर का गांव सोनीपत में ही है। ड्राइवर ने पत्रकार से मुलाक़ात की। पत्रकार ने भी कोशिश की। पर कोशिश नाकाम हो गई। उसने मुझे फिर टेलीफ़ोन पर पूरी कहानी सुनाई। बड़ा अफ़सोस हुआ और इस बार मैंने सोनीपत में एक पुलिसवाले से रिक्वेस्ट किया। पुलिसवाले ने चुटकियों में काम करवा देने का वायदा किया, लेकिन इस बार भी चुटकी नहीं बजी। मैं भी भूल गया और बात आई-गई हो गई।
आज तकरीबन महीने भर बाद ड्राइवर फिर मुझे मिला। दुआ-सलाम के बाद उसने मेरा धन्यवाद किया। मैंने पूछा, "क्या आपके रुपए वापस मिल गए।" जवाब था, "हां, पहलवान जी ने दिलवा दिए।" मैं हैरान... मैं सोच रहा था कि ये शायद मेरी कोशिशों का नतीजा था... सोच इसलिए भी रहा था क्योंकि उसने मुझे थैंक्स कहा। पर पहलवान की बात सुन कर मुझे हैरानी हुई। आंखों की आंखों में मैंने पूरी कहानी पूछी और उसने भी मेरे मन की बात समझ कर बताना शुरू कर दिया, "मेरे एक साढ़ू भाई हैं... पहलवानी करते हैं। छह फीट हाईट है... लंबे-तगड़े... एक रोज़ मैंने उन्हें अपनी परेशानी बताई और उन्हें अपने साथ ले गया। कमर में अपनी पिस्टल लगा कर वे देनदार के पास गए और एक हफ्ते में पैसे लौटा देने को कहा।"
"फिर?"
"पता है सर! एक हफ्ते बाद जब मैं उसके पास गया, तो उसने सारे रुपए लौटा दिए और लस्सी पिलाते हुए कहने लगा -- मैं तो दो घंटे से आपका इंतज़ार कर रहा था।"
मैं सोचने लगा, सचमुच ये दौर ही पहलवानों का है।

11 comments:

Nitish Raj said...

सुप्रतिम, तुमने अपनी कोशिश की हां ये बात अलग है कि तुम उसमें कामयाब नहीं हो पाए। वो ड्राइवर पुलिस के पास सीधे क्यों नहीं गया। जानते हो क्यों? क्योंकि उसे पुलिस पर भरोसा नहीं है। वो जानता था कि पत्रकार काम करवाने के एवज में पैसे नहीं मांगेगा पर वहीं ये पुलिसवाला पता नहीं पूरे पैसे ही ना रख ले और या आधे पैसे ही लौटाए। तो तुम तो वो काम कर रहे थे जो कि किसी और का था पर सच्ची कोशिश की ये ही काफी है।

सतीश पंचम said...

आपने कोशिश तो की, वरना यहां तो ऐसे भी लोग मिलेंगे कि कहेंगे - काम हो जायगा बस मेरा नाम ले लेना। पता चले कि याचक नाम ही लेता रह गया और काम जो होने को हो वह और रसातल में चला गया।

इस तरह की घटनाएं अक्सर देखने में आती हैं। लोगों को न चाहते हुए भी पहलवान टाईप के लोगों की सहायता लेनी पडती है।

परमजीत सिहँ बाली said...

बात तो सही है आज कल यही तो देखने को मिल रहा है....जिस की लाठी उसी की भैंस...

Kaushal Kishore Shukla said...

सुप्रतीम जी,
क्या आपको किसी पहलवान जी ने पत्रकारिता में भर्ती कराया था? पहलवान जी लोग काम निकलवा देते हैं, यह सही है, मगर आप अपने प्रयासों से यह काम नहीं निकलवा पाये, इसका अफसोस तो आपको होना ही चाहिए। होना चाहिए कि नही? और ऐसी बकवास बातें अपने ब्लाग पर पढ़वाकर आप क्या साबित करना चाहते हैं, यह समझ में नहीं आया।

Unknown said...

यह लेख आपकी कायरता को तो दर्शाती ही है, यह भी बताती है कि पत्रकारिता में इतने लंबे सफर के बाद भी आप पत्रकारिता की एबीसीडी नहीं जान पाये। आप की बातों को मान लूं तो आप क्या कहना चाहते हैं, यह आपके दूसरे लेख से जानना चाहूंगा। आखिर संदेश क्या है? क्या सभी पहलवान जी बन जायें?

Aadarsh Rathore said...

लगता है कौशल जी अपने व्यक्तिगत संपर्क और संबंधों से काम निकालने के बजाए पत्रकारिता की धौंस दिखाकर काम करवाने में ज्यादा यकीन रखते हैं। यही वजह है कि वो इस लेख के मूल भाव को समझने के बजाए प्रलाप कर रहे हैं। अब अगर किसी की क्षुद्र बुद्धि में इस लेख के पीछे की मूलभावना ही समझ न आए तो उसे लेखक की नीयत पर सवाल उठाने के बजाए पढ़ना-लिखना ही छोड़ देना चाहिए, कुंठा से भरी टिप्पणी नहीं करनी चाहिए...। और सुप्रतिम जी, ये जो चन्द्रा नाम के टिप्पणीकार हैं, ये खुद कौशल जी ही हैं। इस बात की पुष्टि मैंने उनके ब्लॉग पर जाकर की है। विस्तार से बताऊंगा जब फोन पर आपसे बात होगी...

Nikhil said...

baithak.hindyugm.com
hindyugm.com

संजय व्यास said...

Sahi kaha Adarsh
Kaushal ji ka comment unki manskita ko darshata ha, apni samajh mein kuch na aye to lekhak ko hi gariya do.

सुप्रतिम बनर्जी said...

पोस्ट पढ़ने के लिए सभी साथियों का शुक्रिया। कौशल जी, मेरे मित्र हैं... उनके कमेंट पर मैं कोई कमेंट नहीं करना चाहता हूं। लेकिन जिन साथियों में मेरे पोस्ट का मर्म समझा और 'मोर्चा संभाला' उनका तहे दिल से शुक्रिया।

Unknown said...

भाई दौर ये वाला रहा हो या वो वाला... ईस्ट वाला रहा हो या वेस्ट वाला... हर दौर में जीतता वही है जिसके पास बल हो... इतिहास भी यही बताता है...
अब ये बात दूसरी है कि बल कैसा...पैसे वाला, ताकत वाला या जुगाड़ वाला... तो ये वक्त औऱ समझ पर निर्भर कर सकता है...
हां पत्रकार होने के नाते मैं सिर पकड़ कर ये तो जरूर सोच रहा हूं कि क्या मैं या हम सब इस काबिल भी नहीं कि किसी एक गरीब को लाख जतन करके भी न्याय दिला सकें... दुनिया को बदलने औऱ सुधारने की बातें बेमानी लग रही हैं...
www.nayikalam.blogspot.com

सुप्रतिम बनर्जी said...

जयंत भाई,
मैंने अपना हाल-ए-दिल बयां किया, तब जाकर आपको ये बात समझ में आई कि पत्रकार कितने पानी में हैं? ये बात कुछ हज़म नहीं हुई। वैसे हर आदमी की ताक़त और काबिलियत अलग-अलग है। कोई पत्रकार ना हो कर भी पत्रकार होने का दावा करता है और हर वो कुछ करता है, जिसके बारे हमारे-आपके जैसे सचमुच के पत्रकार सोच भी नहीं सकते। कोई पत्रकार शायद मेरी तरह बेबस भी होता है। रही बात, न्याय दिलाने की... तो इसके भी निहितार्थ हो सकते हैं। हम पत्रकार ज़रूर हैं, पर हमारे पास कोई असीम ताक़त नहीं है... ना ही हम लाट-गर्वनर हैं कि हमारी बात कोई टाल नहीं सकता। हां, मेरी कोशिश में कमी ज़रूर रही होगी। जिसके चलते मेरे ड्राइवर दोस्त ने मुझसे उम्मीद छोड़कर पहलवान जी की दामन थाम लिया। अगली बार कोशिश करूंगा कि किसी को नाउम्मीद ना करूं। ब्लॉग में पधारने का शुक्रिया। शुभकामनाएं।