Wednesday, 1 October 2008

ज़िंदगी का पीछा करते हादसे

इन दिनों छुट्टी पर घर जाने की तैयारी में हूं। छुट्टी में घर जाने की खुशी क्या होती है, ये वही जानता है... जो घर से दूर रहता है। मैं ऐसे ही लोगों में हूं। सालों से अपने घर और घरवालों से दूर यायावर की तरह जी रहा हूं। और सच पूछिए तो पूरा साल ही बस इसी इतंज़ार में कट जाता है कि कब मार्च और अक्टूबर का महीना आएगा और कब घर जाऊंगा? अक्टूबर इसलिए क्योंकि इन्हीं दिनों दशहरा होता है और एक बंगाली परिवार से होने के चलते दशहरा यानि 'दुर्गा पूजो' का मेरे लिए क्या मतलब है, ये आप समझ ही सकते हैं। मार्च में भी एक बार घर जाने की कोशिश करता हूं क्योंकि अक्टूबर के बाद मार्च आने में पांच महीने का वक़्त पार हो चुका होता है और इतने वक़्त में अपने बॉस से 10-15 दिनों की छुट्टी लेने का एक हक सा बन जाता है।
लेकिन सच पूछिए तो इस बार घर जाने की वैसी खुशी नहीं है, जैसी दूसरी बार होती है। अपने चारों ओर रोज़-ब-रोज़ होते हादसों ने जैसे मेरी ख़ुशियों पर ग्रहण लगा दिया है। कभी-कभी लगता है कि पूरी ज़िंदगी ही जैसे हादसों के हवाले होकर रह गई है। और लाख कोशिश के बावजूद दिल खोलकर खुश नहीं हो पाता हूं। कभी खुश होने भी लगता हूं तो अंदर से जैसे एक दूसरा सुप्रतिम मुझे झकझोर देता है। कहता है, "इतना खुश होने की ज़रूरत नहीं है, क्योंकि तुम्हारे पास मनाने को अभी लाखों ग़म हैं।"
अगस्त के महीने में मेरे एक दूर के रिश्ते के कज़न ने खुदकुशी कर ली। वो अपनी शादी से नाखुश था। वो शादी जिसे सिर्फ़ एक ही महीने हुए थे। अभी मैं इस ग़म को पीने की कोशिश कर ही रहा था कि पिछले महीने हुए एक और बड़े हादसे ने मुझे बुरी तरह झकझोर दिया। मेरी इकलौती चचेरी बहन, जो दिल की बहुत अच्छी थीं, गुज़र गईं। पहले दिन वो बीमार हुईं और दूसरे दिन हम सभी से दूर चली गईं। उन्हें सेप्टीसीमिया हुआ था। उस रोज़ जब मेरे बड़े भाई ने मुझे टेलीफ़ोन पर ये ख़बर सुनाई तो मुझे यकीन ही नहीं हुआ। सिर्फ़ इस बात पर यकीन करने के लिए मैंने अपने भाई साहब को कम से कम पांच बार फ़ोन किया होगा। ये तो रहे वो हादसे, जो मुझ पर या मेरे घरवालों पर गुज़रे। इन्हीं चंद महीनों में कभी बम धमाके और कभी क़त्ल-ओ-गारत की शक्ल में मैंने इतना कुछ देख लिया कि ये हादसे अब भी मेरा पीछा कर रहे हैं।
धमाकों के बाद सड़क पर लहूलुहान पड़े जिस्म, चीथड़ों में तब्दील होता... रहम की भीख मांगता इंसान, चारों ओर ख़ून ही ख़ून और फ़िज़ां में घुली बारुद की गंध ने जैसे मेरी रुटीन की ज़िंदगी मुझसे छीन ली है। और इस रुटीन लाइफ़ की 'नॉर्मलसी' को गंवाना बेहद बोझिल और घुटन भरा है। अभी कल की ही तो बात है... रोज़ की तरह जब मैं दफ़्तर पहुंचा, तो एक ऑफ़िशियल मेल ने मुझे अंदर से झकझोर दिया। मेल था, सड़क हादसे में मेरी एक सहकर्मी सौम्या की मौत का। अभी सभी लोग इस हादसे को ऊपरवाले की मर्ज़ी मान ही रहे थे कि तब तक ख़बर आई कि मेरी सौम्या की मौत सड़क हादसे में नहीं, बल्कि गोली मार दिए जाने की वजह से हुई। पोस्टमार्टम में उसके सिर से एक गोली निकली थी।
मैं जिस मीडिया हाउस में काम करता हूं, वो काफ़ी बड़ा है। इसीलिए सभी लोगों से बराबर मुलाक़ात नहीं है। मेरी सौम्या से भी कोई मुलाक़ात नहीं थी। लेकिन दफ़्तर में जब भी मैं उसे देखता, तो वो हमेशा हंसती और मुस्कुराती नज़र आती थी। हमारे यहां किसी के गुज़र जाने पर उसके बारे में सिर्फ़ अच्छा-अच्छा बोलने का रिवाज़ है। चाहे वो कैसा भी क्यों ना हो? लेकिन सौम्या ऐसी थी, जिसके बारे में जितना भी अच्छा बोला जाए, कम है। शायद इसीलिए जिस सौम्या को मैंने दो दिन पहले तक दफ़्तर में देखा था, आज उसी के क़त्ल की ख़बर लिखते हुए अजीब सा महसूस हो रहा था... एक बार तो ऐसा भी लगा कि सब छोड़ कर कहीं भाग जाऊं? लेकिन फिर सोचा कि भागकर जाऊंगा कहां? हादसे शायद मेरा पीछा करते हुए वहीं पहुंच जाएंगे।

3 comments:

Nitish Raj said...

जिंदगी लड़ने और लड़कर जीतने का नाम है सुप्रा।
और तुम को ये ही करना है। इतने हताश ना हो। जाओ छुट्टियों पर और फिर आकर काम संभालो। मां से दुआ करना कि जैसे बीते चंद महीने गुजरे वैसे दुश्मन के भी ना गुजरें।

रंजन राजन said...

अब जाना कहां है। तुसी तो ब्लाग की दुनिया में छा गए हो पाजी।
अमर उजाला के ब्लाग कोना में स्थान पाने के लिए बधाई। आपकी पिछली पोस्ट अंकल जैसे लोग थे वो सचमुच काफी सराहनीय थी।

Unknown said...

कहां-कहां से भागेंगे हम सुप्रतिम। सालों पहले खुद से बनाई हुई असामान्य परिस्थितियों में हमने जमशेदपुर छोड़ने का फैसला किया। इसके बाद इतने शहर बदले और शहर बदलते के दौरान ही अब अपना पुराना एलबम भी खो गया है, जो गाहे-बगाहे जमशेदपुर की यादें ताजा कर जाती थीं। अब कभी भी मैं अपने शहर जाता हूं, तो मनहूस खबरें ही सुनने मिलती हैं, जैसे अपने राम बचन भाई नहीं रहे, नीरू दा की मौत हो, बिल्कुल स्वस्थ रामू मामा की एक घंटे के अंदर पेट दरद से मार डाला। मनहूस खबरों से घबरा कर फिर से दिल्ली भाग आता हूं। तिन-तिकड़मों व्यस्त रहकर कभी लुधियाना, तो कभी जालंधर और कभी पानीपत को भूलने की कोशिश करता हूं। फिर पस्त होकर सो जाता हूं।