जुम्मन और शकील बहुत अच्छे दोस्त थे। साथ पढ़े, साथ खेले और साथ बड़े भी हुए। किस्मत से दोनों को एक ही ऑफ़िस में नौकरी भी मिली और ज़िंदगी मज़े में गुज़रने लगी... दोनों का अक्सर एक-दूसरे के घर आना-जाना लगा रहता।
जुम्मन जब भी कभी शकील के पास जाता, शकील बड़े शान से अपना सीना फुला कर घरवालों से अपने दोस्त की तारीफ़ करता। शकील अक्सर इमोशनल होकर अपने बीवी-बच्चों से कहता, "अगर मैं कभी मर भी जाऊं तो फ़िक्र मत करना। मेरे पीछे मेरा भाई जुम्मन तुम सबका ख़्याल रखेगा। मेरे जाने के बाद अगर तुम्हें कभी किसी भी चीज़ की ज़रूरत हो, तो बेझिझक जुम्मन से कहना।" जुम्मन भी अपने दोस्त की बातों पर हामी भरता, लेकिन उसका साथ छूटने का डर उसे अंदर से हिला देता।
पर एक रोज़ वही हुआ, जो बात शकील अक्सर मज़ाक में कहता था। महज़ एक दिन की बीमारी के बाद उसकी जान चली गई। मोहल्ले में मातम पसर गया।
शकील के जाने की ख़बर जुम्मन पर बिजली बन कर गिरी। वो रोता-पिटता अपने दोस्त के घर पहुंचा। ड्राइंग रूम में शकील की लाश पड़ी थी। घर में कोहराम मचा था। उसकी बीवी सायरा हर दोस्त या रिश्तेदार को देखते ही बेहोश हो जाती।
जुम्मन ने सायरा का हाल पूछा और अचानक उसे न जाने क्या सूझी, अपने कुर्ते से पांच सौ रुपए का एक नोट निकाल कर उसने सायरा के हवाले कर दिया। कहा, "हिम्मत से काम लो, सब ठीक हो जाएगा।" अब सायरा अपने शौहर के सबसे अच्छे दोस्त के टुच्चेपन से हैरान थी...
Thursday, 22 January 2009
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10 comments:
लघुकथाओ का उद्देश्य मनोरंजन से ज्यादा मंथन करना होता है। आपने जो वाकया पेश किया है वो इस कसौटी पर खरा उतरता है। उम्दा पोस्ट
बहुत अच्छे मियां सुप्रतिम। लगता का संगत का असर होने लगा।
bhai ultimate ....kaabile tareef
आज के जमाने को देखते हुए सही लिखा है इस लघुकथा में आपने...
nihshabd kar diya aapne......
Behtareen....
अच्छी पेशकश ! आभार !
दिलचस्प !
क्या बात है। हकीकत के बहुत करीब।
क्या बात है। हकीकत के बहुत करीब।
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