नेताओं को गालियों तो सबने दे दी, लेकिन नेताओं को कैसे रास्ते पर लाया जाए इसके बारे में अब तक कम ही सोचा गया। जिसने भी सोचा उसने नेताओं को समंदर में डुबोने, गोली मारने या फिर चुनाव का बहिष्कार करने तक ही सोचा। लेकिन सवाल ये है कि क्या ऐसे देश चल सकता है? आखिर क्या हो कि नेता सही रास्ते पर आ जाएं और कुर्सीमोह त्याग कर मुल्क के बारे में सोचें? पिछले कुछ दिनों से, ख़ास कर मुंबई धमाकों के बाद से, इस बारे में लगातार चर्चाओं और विमर्श के दौर से गुज़र रहा था। लेकिन इसी बीच किसी साथी ने एक ऐसी कुंजी बताई, जो हमारे पास होने के बावजूद जानकारी के अभाव में हम अक्सर उसका इस्तेमाल नहीं कर पाते हैं। ये उपाय दरअसल हमारे सांवैधानिक अधिकारों का ही एक ऐसा हिस्सा है, जिसके बारे में हमारे देश के ज़्यादातर नागरिक जानते ही नहीं। अच्छे-भले, पढ़े-लिखे और माहिर भी नहीं।
कई बार आपने लोगों को ये भी कहते हुए सुना होगा कि सारे नेता और सारी पार्टियां तो एक जैसी हैं, आप किसे भी वोट दीजिए क्या फ़र्क पड़ता है! लेकिन नहीं, फ़र्क पड़वाने का तरीक़ा भी संविधान ने हमें दिया है। 'कंडक्ट ऑफ इलेक्शन रूल 1961' की धारा 49(0) के मुताबिक अगर आप चुनाव में खड़े किसी भी उम्मीदवार को अपना वोट देने के क़ाबिल नहीं समझते हैं, तो आप 'नो-वोटिंग' के ऑप्शन पर जा सकते हैं। इसके लिए मतदान केंद्र में मौजूद प्रेज़ाइडिंग ऑफ़िसर की मदद ली जा सकती है। आपको एक ख़ास फॉर्म भरना होगा और आपका 'नो-वोट' या फिर यूं कहें कि आपका विरोध दर्ज हो जाएगा।
अब आप ये पूछ सकते हैं कि भला इससे क्या फ़र्क पड़ता है? ये तो वोट का बहिष्कार करने जैसी बात हुई। लेकिन नहीं, ये वोट के बहिष्कार से अलग है। आपको जानकर अच्छा लगेगा कि अगर किसी चुनाव क्षेत्र में हुए मतदान में सबसे ज़्यादा वोट 'नो-वोट' की कैटेगरी में डाले गए, तो प्रावधान के मुताबिक चुनाव आयोग उस चुनाव क्षेत्र की वोटिंग ही रद्द कर देगा। यानि एक बात साफ़ हो जाएगी कि अगर इलाके की जनता को चुनाव में खड़ा कोई भी प्रत्याशी अपना नुमाइंदा बनने के क़ाबिल नहीं लगता है तो चुनाव आयोग उसे आप पर थोपेगा नहीं, बल्कि उसे दौड़ से ही बाहर कर देगा। अगली बार जब भी चुनाव होगा, तब वे प्रत्याशी चुनाव में खड़े नहीं हो सकेंगे, जो उस चुनाव क्षेत्र से पिछली बार अपनी क़िस्मत आज़मा रहे थे। मतलब साफ़ है कि नो-वोटिंग का ऑप्शन चुनकर आप ना सिर्फ़ नाक़ाबिल नेताओं को सदन तक जाने से रोक सकते हैं, बल्कि पढ़े-लिखे और समझदार लोगों की ऐसी नई पौध को भी अपना नुमाइंदा बना सकते हैं, जो आमतौर पर ईमानदार होने के बावजूद राजनीतिक पार्टियों में चमचागिरी में कमज़ोर होने की वजह से पीछे छूट जाते हैं।
Saturday, 6 December 2008
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10 comments:
बढिया जानकारी!!
क्या सभी तथाकथित बुध्दीजिवी इसे अपनायेंगे?
प्रक्रिया इतनी जटिल है कि जानने के बावजूद सरकारी महकमे के लोगों के टालू रवैए के कारण उपयोग में लाना बेहद मुश्किल होता है । इस प्रक्रिया को सरल बनाने के लिए एक ज़ोरदार मुहिम चलाने की ज़रुरत है । लोग मोमबत्तियां और पुतले फ़ूंकने की बजाय राजनीति की दिशा बदलने के सार्थक प्रयास के लिए एकजुट होकर सडकों पर आएं , तो कोई बात बने ।
rightly said dear banarji ji but u must have read in newspapers that in recent polls when some people asked about it,they were replied in negative.There is urgent need to start a campaign for popularising it and being a media people you have a better chance to do so.
with best wishes
yours dr.bhoopendra
भारत निर्वाचन आयोग ने अभी-अभी कुछ 'चुनाव सुधारों के प्रस्ताव' भारत शासन को भेजे हैं । उनमें से एक है - मत-पत्र/इवीएम पर, समस्त प्रत्याशियों के नामों और चुनाव चिह्नों के बाद 'इनमें से कोई नहीं' का विकल्प उपलब्ध कराना ।
यह बहुत ही महत्वूपर्ण सुझाव है जो नेताओं को और राजनीतिक पार्टियों को नियन्त्रित करने में प्रभावी और परिणामदायी भूमिका निभाएगा ।
कृपया, भारत सरकार को खुद भी लिखें/ई-मेल करें और लिखवाएं/ई-मेल करवाएं कि यह सुझाव स्वीकार करे ।
हम, गिनती के कुछ लोग गए तीन-साढे तीन वर्षों से कुछ चुनाव-सुधारों के लिए निरन्तर लिखा-पढी कर रहे हैं । यह सुझाव उन्हीं में से एक है ।
बैरागी जी,
आपकी बातों से याद आया कि हमारे इलैक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन में 'इनमें से कोई नहीं' का ऑप्शन है ही नहीं। बड़ी हैरानी की बात है। चुनाव संबंधी कानून में इस बात प्रावधान पहले से होने के बावजूद ईवीएम में इस तरह की व्यवस्था नहीं होना अपने-आप में कई सवाल खड़े करता है। कहीं ऐसा तो नहीं कि राजनेताओं के इशारे पर ही 'इनमें से कोई नहीं' के विकल्प को ईवीएम से ग़ायब करवा दिया गया हो। भई, जो भी हो देश तो वही चला रहे हैं!
सही लिखा आपने।
यह बिडंबना है सुप्रतिम, कि बड़ी बड़ी तकरीरें देने वाला अपना प्रबुद्ध वर्ग निर्वाचन प्रक्रिया से या तो विमुख है,
या वह मतदान के समय अपने जातिगत रूझान और व्यक्तिगत स्वार्थों के चलते बहक जाता है !
फलस्वरूप देश निरक्षर भट्टाचार्यों के बल बूते चलाया जा रहा है !
जब ये जानते हैं, कि सेंसिबल मतदान ही नहीं, तो कोई नहीं का विकल्प रखने की आवश्यकता ही क्या है ?
गालियां देते रहने का मजा ही कुछ और है!
Bhai bahut achha aption hai...lakin abhi aska upyog karne ke liye waqt lagega..kyonki han baat to karte hai vote naa dena ki..lakin is par jab kayam hone ki baat aati hai..tab dharm..jaati me fans kar vote phir bhi de data hai..isko rokna chahiye...
बहुत सार्थक जानकारी दी है आपने - 49(0) का भरपूर प्रयोग होना चाहिए.
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