किराए की बात किए बगैर कभी किसी रिक्शे पर बैठ जाइए। जहां जाना हो, वहां उतरिए। किराया पूछिए... और वो जितना मांगे, उससे पांच-दस रुपए ज़्यादा दे दीजिए। फिर देखिए क्या होता है? आपकी ये छोटी सी कोशिश उस ग़रीब के चेहरे पर एक कई मिनटों तक बरकरार रहनेवाली एक अनोखी मुस्कुराहट खींच देगी। क्या आपने कभी ऐसा किया है? अगर नहीं तो कर के देखिए। हाड़तोड़ मेहनत के बाद किसी से मिला ये छोटा सा ईनाम किसी रिक्शेवाले के चेहरे पर जो मुस्कुराहट लाता है... उसकी कोई कीमत नहीं हो सकती।
क्या आपने कभी सोचा है कि आमतौर पर रिक्शेवालों के साथ लोग कैसा सुलूक करते हैं? जवाब शायद थोड़ा तल्ख लगे, लेकिन मेरे हिसाब से पूछिए तो -- बिल्कुल कुत्ते जैसा। सड़क से गुज़रनेवाला हर शख्स रिक्शेवाले को ऐसे घूरता है, गालियां देता है... जैसे वो रिक्शावाला नहीं कोई चोर-गुंडा हो। साइड मिलने में देरी हुई नहीं कि गाली। पैसेंजर के लिए रुके नहीं कि गाली। और तो और मनमाफ़िक किराए में चलने के लिए तैयार हुए नहीं कि गाली। बिना ये सोचे-समझे या जाने कि उनकी मजबूरी क्या है, दस में आठ लोग उन्हें गालियां देते ही नज़र आते हैं। सबसे ज़्यादा अफ़सोस तो तब होता है जब एक-एक रिक्शे पर चार-पांच लोग कई बार ऐसे लद लेते हैं, जैसे रिक्शा खींचनेवाला कोई इंसान नहीं बल्कि जानवर हो। (वैसे मैं जानवरों के साथ भी ऐसे सुलूक का हिमायती नहीं हूं)
सच पूछिए तो महंगाई के इस दौर में पांच-दस रुपए से कुछ भी हासिल नहीं होता। शायद इसी वजह से ठीक-ठाक तनख्वाह पानेवाले किसी भी इंसान की जेब से पांच-दस रुपए कभी-कभार ज़्यादा चले जाने से बहुत फ़र्क भी नहीं पड़ता। लेकिन इन पांच-दस रुपयों के कम या ज़्यादा होने से किसी रिक्शेवाले की ज़िंदगी पर क्या फ़र्क पड़ता है, ये आसानी से समझा जा सकता है। रिक्शेवाले को पांच-दस रुपए कम देकर तो बहुतों ने ये महसूस किया होगा कि इससे उसे क्या फ़र्क पड़ता है, लेकिन कभी ज़्यादा देकर इसे महसूस करने की कोशिश कीजिए... गारंटी देता हूं, ऐसा सुकून मिलेगा... जिसे बयान नहीं कर सकेंगे।
Monday, 17 August 2009
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6 comments:
अगर किसी लफंडर टाइप के नौजवान ने रिक्शेवाले को पांच रुपये ज्यादा दे दिए तो रिक्शावाला जरूर मन में कहेगा कि जेबकतरा होगा तभी लुटा रहा है। और किसी सज्जन ने दे दिए तो सोचेगा कि सठिया गया है और कोई महिला तो हो ही नहीं सकती जो ज्यादा पैसे दे, वो तो पूरे भी दे दें तो गनीमत है।
अहा ! दादा बिल्कुल वाजिब और ग़ौर करने लायक बात कही आपने।
मैंने देखा है कि लोग वाकई रिक्शा चलाने वालों के साथ अच्छा व्यवहार नहीं करते। 2-2 रुपये के लिए उनके साथ गाली-गलौज करते हैं। वहीं ऑटो चालकों के आगे उनकी जुबान नहीं खुलती। ऑटो चालकों की मुंह मांगी कीमत पर जाना स्वीकार होता है उन्हें जबकि कड़ी मेहनत करने वाले साइकिल रिक्शा चालक को 2 रुपये देना स्वीकार नहीं।
रिक्शा पर बैठे-बैठ कई बार शिकंजी पीने का मन करता है तो मैं शिकंजी वाले के पास रिक्शा रुकवाता हूं। खुद भी पीता हूं और रिक्शेवाले भाई को भी पिलाता हूं। उस वक्त परम् संतोष मिलता है उनके चेहरे के भाव देखकर।
:)
I do give priority to use rickshaw, and give them more money if the efforts were more then he thought of. The smile is really beautiful ...and give satisfaction to me.
ईमानदारी से कह रहा हूँ की पता नहीं क्यों मेरे दिमाग में कभी ये बात नहीं आई... आपने आँखे खोली इसलिए धन्यवाद्... आगे से कोशिश करूँगा की आपकी सलाह का मानून और पॉँच दस रुपयों की ख़ुशी को महसूस कर सकूँ....!!!!!www.nayikalam.blogspot.com
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