Friday 7 November, 2008

आज भी हंसता हूं ख़ुद पर...

मेरा एक दोस्त है, जो अक्सर कहा करता है कि किसी पर हंसने से पहले इंसान को ख़ुद पर हंसने की आदत डालनी चाहिए। ये जुमला यकीनन उसका नहीं है। और ये बात भी वो हमेशा बेहद ईमानदारी से कुबूल करता है। लेकिन जब-जब वो अपने उम्र को पीछे छोड़ते हुए ये बात कहता है, तब-तब वो मुझे बहुत मैच्योर और सुलझा हुआ लगने लगता है। शायद इसलिए भी कि इस मामले में मैं भी उससे इत्तेफ़ाक रखता हूं। ...तो आज बात ख़ुद पर हंसने के एक वाकये की। आपको एक ऐसा क़िस्सा बताने जा रहा हूं, जिसे सुनकर आपको भी हैरानी होगी कि इंसान अपनी ज़िंदगी में जाने कैसी-कैसी नादानियां कर बैठता है।
उन दिनों मैंने मैट्रिक की परीक्षा दी थी। रिज़ल्ट का इंतज़ार था और इसी बीच पत्रकारिता का चस्का लग चुका था। मेरे एक सीनियर थे, निलय सेनगुप्ता। फ्रीलांस फ़ोटोग्राफ़र। जो अक्सर अखबार के दफ़्तरों से कुछ सांस्कृतिक कार्यक्रमों के इनविटेशन कार्ड्स कवरेज के लिए मेरे पास लेकर आते थे। इस तरह वे मेरे जर्नलिज़्म के करियर की नींव डालने में जुटे थे। एक बार वो मेरे लिए एक बड़े थिएटर ग्रुप का इनविटेशन कार्ड लेकर आए। नाटक था -- 'एक एनार्किस्ट (अराजकतावादी) की इत्तेफ़ाकिया मौत'। रवींद्र भवन के शानदार एयरकंडिशंड हाल में नाटक होना था।
मैं प्रेस गैलरी में बैठकर नाटक देखने और उसका कवरेज करने के लिए जोश से लबालब भर उठा। अपनी एटलस रिबेल साइकिल ली और नाटक शुरू होने से तकरीबन आधा घंटा पहले ही रवींद्र भवन जा पहुंचा। वहां शान से इनविटेशन कार्ड दिखाकर प्रेस गैलरी में जा बैठा। नाटक शुरू हुआ और ज़्यादातर हिस्सा मेरे सिर के ऊपर से गुज़रने लगा। नाटक की कहानी ठीक क्या थी, मुझे नहीं पता। लेकिन जैसा कि नाम से पता चलता था, नाटक किसी अराजकतावादी शख्स की मौत को लेकर रहा होगा। बहरहाल, रिपोर्टिंग तो करनी थी। इसलिए नाटक बीच में छोड़कर नहीं लौट सकता था। सो, तकरीबन आधे घंटे तक चुपचाप सबकुछ देखता रहा।
नाटक लगातार आगे बढ़ रहा था। तभी अचानक हॉल के पिछले हिस्से से एक महिला "बंद करो ये नाटक... ये सब क्या हो रहा है... जो मन में आता है, बोलने लगते हो..." कहती हुई स्टेज की ओर दौड़ी। महिला की इस हरकत से पूरे हॉल में सन्नाटा छा गया। आयोजकों ने आनन-फानन में मंचन रोक दिया और कुछ देर के लिए पर्दा भी गिरा दिया गया। बस, फिर क्या था? मेरे अंदर का रिपोर्टर जाग उठा। मैंने अपने अगल-बगल देखा दूसरे पत्रकार भी इस 'नए नाटक' को लेकर आपस में बातें करने लगे। मुझे नाटक बीच में छोड़कर दफ़्तर पहुंचने का यही सबसे सही वक़्त लगा। तुरंत हॉल से बाहर निकला और अपनी साइकिल उठाकर दफ़्तर की ओर भागा।
उन दिनों मेरे एक सीनियर रतन जोशी अख़बार में कला-संस्कृति का पन्ना संभालते थे। हांफते-हांफते मैंने उन्हें पूरी कहानी सुनाई और बताया कि किस तरह नाटक के बीच में ही बवाल हो गया और आयोजकों को मंचन रोकना पड़ा। मेरे जोश को देखते हुए उन्होंने तुरंत मुझे सबकुछ लिख डालने की हिदायत दी। बस, मैंने भी पूरे लच्छेदार तरीके से जो कुछ देखा, लिख डाला। फिर अंत में रिपोर्ट के ऊपर अपना नाम भी मोटे अक्षरों में लिखा, ताकि अगले दिन सुबह के अख़बार में बाइलाइन रिपोर्ट छपी हो।
अगले दिन उठकर मैं सबसे पहले बस स्टैंड के न्यूज़पेपर स्टॉल पर पहुंचा। ये देखने के लिए मेरी बाइलाइन रिपोर्ट अख़बार में कैसे और कहां छपी है? लेकिन जब काफ़ी ढूंढ़ने के बाद भी मुझे अपनी बाइलाइन नहीं दिखी, तो मैंने ख़बरों की हैडिंग पढ़नी शुरू की। तब अंतिम पन्ने पर मुझे अपनी ख़बर दिखाई पड़ी। तीन कॉलम की ख़बर। लेकिन मेरा नाम नहीं छपा था, लिहाज़ा मैं बहुत निराश हुआ। मन ही मन रतन जी को भी कोसने लगा। लेकिन अभी चंद घंटे गुज़रे थे कि निलय सेनगुप्ता ने मुझे बुलवा भेजा। जब उनके पास पहुंचा, तो वे लाल-पीले हो रहे थे। उन्होंने मुझे बड़ी लानत दी और कहा कि अब तुम कभी जर्नलिस्ट नहीं बन सकते। उनका रौद्र रूप देखकर मुझे उनसे इसकी वजह पूछने की भी हिम्मत नहीं हुई। चुपचाप सिर झुकाए खड़ा रहा। हारकर उन्होंने ही मुझे बताया कि मेरी ग़लती क्या है। निलय दा ने कहा, 'कल रवींद्र भवन में तुमने जिसे हंगामा समझा, वो दरअसल नाटक का ही हिस्सा था। नाटक बीच में रुकवाई नहीं गई, कलाकारों ने ही जानबूझ कर रोकी थी।' मुझे बाकी बात समझने में देर नहीं हुई। ये भयानक ग़लती थी। निलय दा ने बताया कि किस तरह आज सुबह से ही अख़बार के दफ़्तर में फ़ोन आ रहे हैं और सारे लोग मज़ाक बना रहे हैं।
मैं बेहद शर्मिंदा था... और ये भी सोच रहा था कि अगर रतन जी ने उस रोज़ ग़लती से भी ख़बर के साथ मेरा नाम छाप दिया होता, तो मेरी क्या हालत होती...? ख़ैर, एक अच्छी बात ये थी कि बाद में ख़ुद निलय दा, रतन जी और दूसरे कई सीनियरों ने इतना होने के बावजूद मेरी ख़ूब हौसला अफ़ज़ायी की।

5 comments:

Unknown said...

purani bateiney yaad aa gayi. Report chapney key dusery din tumahara hero cycle per aana aur mujhesy takrana. wo batiney-wo masti. sachmuch khud per hasta huin.

pallavi trivedi said...

shuru shuru mein aisi kaafi galtiyaan hoti hain...par baad mein yahi hasne ki wajah bhi banti hain. achcha laga aapka sansmaran.

शिवेंद्र श्रीवास्तव said...

अरे बंगाली बाबू,
मुझे आज पता चला...आप शुरआत से ही ऐसे थे।
हाहाहा...

शिवेंद्र श्रीवास्तव said...

भाई बचपन की पत्रकारिता में ऐसी गलतियां हो जाती हैं....लेकिन जवानी में तो ख्याल रखिए........

TANSEEM HAIDER said...

सुप्रतिम भाई,
बड़े अफसोस के साथ ये कहना पड़ रहा है कि आपके साथ नाटक में इतना बड़ा नाटक हो गया आइंदा ज़रा संभल के खबर लिखिएगा...हर बार जान नही बचती...