मेरे एक दोस्त ने कुछ रोज़ पहले मुझे एक फ़ोन किया। मेरे हैलो कहते ही वो शुरू हो गया। एक सांस में कह गया, "यार! आज हमारे मोहल्ले में एक बड़ी बात हो गई... मेरे घर के ठीक सामने एक लड़के को उस बाप ने सरेआम दो चांटे रसीद डाले। लड़का काफ़ी देर से गली में मोटरसाइकिल पर स्टंट दिखा रहा था। और उसके बाप को ग़ुस्सा आ गया।"
मैंने पूछा, "इसमें बड़ी बात क्या है?"
तो उसने कहा, "क्या बात करते हो, तुमने सुना नहीं! उसके फ़ादर ने उसे सरेआम दो थप्पड़ मारे।"
'बड़ी बात' तो मेरे समझ में नहीं आई, लेकिन मुझे अपना बचपन ज़रूर याद आ गया... वो बचपन, जिसमें ना तो हमारी शैतानियों का कोई हिसाब था और ना ही पिटने-पिटाने का... कई बार तो गलतफ़हमी में ही पीट दिए जाते थे और बात आई-गई हो जाती थी... आज मेरे दोस्त के बहाने एक किस्सा मेरे बचपन के दिनों का...
तभी मेरी उम्र कोई छह-सात साल रही होगी। शाम को अपने दोस्तों के साथ गली में खेल रहा था... खेल क्या था, किसी भी नई चीज़ को देख कर उसे अपना बताने की होड़ चल रही थी... मसलन, जैसे ही कोई कार गुज़री, तो मैंने झट से कह दिया, "ये मेरी कार है।" फिर कोई बाइक सवार गुज़रा तो किसी दोस्त ने कह दिया कि ये उसकी बाइक है... बस, कुछ ऐसा ही खेल था। सीधा-साधा... बिल्कुल बचपन जैसा। खेल अभी चल ही रहा था कि मोहल्ले में रहनेवाले एक अंकल वहां से गुज़रे। आंखों में मोटी काली ऐनक, गंजा सिर, सफ़ेद धोती-कुर्ता और मोटी काली मूंछों वाले वैद्यनाथ अंकल।
अंकल जैसे ही साइकिल से पास आए, मैंने चिल्ला कर कहा, "हमारा साइकिल", और खुशी के मारे उछल पड़ा। ख़ुशी इस बात की कि वैद्यनाथ अंकल के साइकिल पर इससे पहले कि किसी और दोस्त की नज़र पड़ती, मैंने उसे अपना कह दिया। बस इसी क़ामयाबी से कुछ इतना ख़ुश था, जैसे साइकिल सचमुच अपनी हो गई हो। लेकिन मेरी ये ख़ुशी तब काफ़ूर हो गई, जब गुस्से से तमतमाए अंकल अपनी साइकिल से उतर आए और मेरी कान उमेठ कर मुझसे पूछा, "बताओ तुमने कहा ये?" मैं बुरी तरह सहम गया। समझ में नहीं आया कि आख़िर मेरी गलती क्या है? फिर भी अंकल ने पूछा था, तो जवाब देना ही था। मैंने भी घबराते हुए 'हां' में सिर हिला दिया। अब अंकल आगबबूला हो गए। उनका गुस्सा सातवें आसमान पर जा पहुंचा... कहा, "ठीक है। अभी दफ़्तर जाकर तुम्हारे पिताजी को बताता हूं कि तुम यहां क्या कर रहे हो?" इसके बाद कुछ देर तक तो अंकल का ख़ौफ़ दिलो-दिमाग़ पर छाया रहा, लेकिन फिर बचपन की मस्ती ने सबकुछ भुला दिया।
शाम हुई और पिताजी घर लौटे। अक्सर, मिठाई लेकर आते थे। और हम भी उनके आने की ख़ुशी में मचलने लगते। लेकिन उस दिन पिताजी का मूड उखड़ा हुआ था। मैं जैसे ही उनके पास पहुंचा, उन्होंने मेरी ताबड़तोड़ पिटाई शुरू कर दी। पिताजी कुछ इतने ग़ुस्से में थे कि बीच-बचाव के लिए मां को आना पड़ा। किसी तरह जान बची। मां तो इस पिटाई का सबब पूछ ही रही थी कि हिम्मत जुटा कर मैंने भी पूछ लिया कि आख़िर मुझे क्यों पीटा गया? बस फिर क्या था, पिताजी एक बार फिर ग़ुस्सा हो गए। उन्होंने मां से कहा, "तुम्हें पता है, ये आजकल सड़क पर खड़े हो कर आते-जाते लोगों को गालियां बक रहे हैं!" मैं हैरान... इस बार पिताजी से तो नहीं, लेकिन रोते-रोते मैंने मां से पूछा, "मैंने कब गाली दी?" मां ने यही सवाल पिताजी की तरफ़ उछाल दिया... अबकी पिताजी ने मुझसे पूछा, "तुम बताओ, क्या आज तुमने अपने वैद्यनाथ अंकल को 'अंधरा-शक्ल' नहीं कहा था?" कुछ देर सोच कर मैंने सारी बातें याद की और कहा, "नहीं।" अब पिताजी ने पूछा, "फिर क्या कहा था? अगर तुमने गाली नहीं दी, तो फिर वैद्यानाथ ने जब तुम्हारी कान उमेठी, तो तुमने हां क्यों कहा?" मैंने उन्हें पूरी कहानी सुनाई... और ये भी बताया कि वैद्यनाथ अंकल ने तब मेरे कान पकड़ कर सिर्फ़ इतना पूछा था, "बताओ तुमने कहा ये?" अब मैंने 'हमारा साइकिल' कहा था, सो डरते-डरते हां कह दिया था। फिर मैंने अपनी सफ़ाई में 'अंधरा-शक्ल' जैसी कोई गाली जानने से भी इनकार कर दिया। सचमुच, मुझे तब तक इस गाली का पता भी नहीं था... लेकिन अब सफ़ाई देकर भी क्या होता, जो होना था हो गया। मुझे याद है, अगले दिन सुबह पिताजी के साथ-साथ वैद्यनाथ अंकल ने भी मुझे सॉरी कहा...
Monday, 15 December 2008
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12 comments:
किस्सा बहुत मजेदार लगा। बचपन की शैतानीयां जीवन भर नही भूलती।
ग़लतफहमी में एक बार मेरे दादाजी ने भी बांस की पतली छड़ी से पिटाई की थी, मेरे दाहिने हाथ में अब भी उसके निशान हैं.
ITNA SAMAY NAHI HAI, CHHOTA LIKHO, BURA MAN GAYE TO AAPKI MARJI. NARAYAN NARAYAN
बचपन याद दिला दिया साब आपने। हमारा तो इस मामले मे ज़बरदस्त रिकार्ड था।मुहल्ले मे या आस-पडोस मे कुछ गडबड हो हमारे हिस्से मे कुटाई तय होती थी। छोटे भाई रोते नज़र आये तो उन्से बिना पूछे कई तमाचे हम पर बरस जाते थे। हालत ये थे छोटे भाई रोना शुरू करते थे और हम खेलना कूदना छोड उन्को चुप कराते थे।मज़ा आ गया,वाकई बचपन से अच्छा कुछ भी नही है हमारे पास याद रखने को।बढिया लिखा आपने।
-७ साल की उम्र में तो कई बार पिटे है पर बीच बाजार में १३ की उम्र में जब हम पिता जी का स्कूटर लेकर चले ये सोच कर की वे समान तुलवा रहे है एक चक्कर लगा आये ....पूरे बाजार ने वो आवाज सुनी थी.
आपकी पोस्ट के माध्यम से दिमाग में
मेरा अपना बचपन चलचित्र की तरह
कौंध गया ! बचपन में पडी मार ...चाहे
वो घर पर पडी हो या चाहे स्कूल में ,,,,, अविस्मरणीय यादें बन कर रह जाती हैं !
मम्मी का पापा से शिकायत करना....फिर
पापा का मारना और फिर मम्मी द्बारा बचाव करना ! भुलाए नहीं भूलती वो घटनाएं !
आजकल के पापा लोग बदल गए हैं ! तभी तो आज के बच्चे समय से आगे दिखायी देते हैं !
हम लोग अर्जुन नहीं बन पाये ! हमें सब कुछ देखना भाता था ! लेकिन 150 चैनल के साए में बड़े हो रहे आज के बच्चे अर्जुन बन रहे हैं ....इनको अपने लक्ष्य मालूम है .....
आगे बढो... तेज बढो...किसी भी शर्त पर बढो ! कुछ मत देखो सिर्फ अपना लक्ष्य देखो !
Bachpan mai to maine bhi shaitaniyo pe bahut maar khayi hai.
aapne to bachpan ki kai yaado ko taza kar diya
बहुत खूब, सर आपने बचपन की यादें ताजा कर दी। सर आपके बारे में काफी सुना है, आप जोधपुर में दैनिक भास्कर में थे..मेरी जानकारी सही है ना ???
हैदर भाई,
क़िस्मत भी क्या खेल दिखाती है! इतने दिनों तक जोधपुर में रहा, लेकिन कभी आपसे मिलने का मौक़ा नहीं मिला। अब जोधपुर से बाहर हूं, तो मिलना हो रहा है। वो भी ब्लॉग के ज़रिए... बहरहाल, आपसे मिलना बहुत अच्छा लगा। मिलने-मिलाने का सिलसिला यूं ही चलता रहे, इन्हीं दुआओं के साथ...
आपके रोचक संस्मरण ने हमें भी आनंदित किया.....आभार.
यह ब्लॉग प्रतिक्रिया नहीं है अतः इसे प्रकाशित न करें !
आपका ई मेल पता न होने के कारण आपसे इस तरह संपर्क कर रहा हूँ ! मैं आपका ध्यान एक अत्यन्त अमानवीय घटना की तरफ खींचना चाहता हूँ ! काफी असरदार व सत्ताधारी लोगों का मामला होने के कारण लोग चुप्पी साधे हुए हैं ! क्या आप इस मामले में कुछ कर सकते हैं ? कृपया घटना का विवरण जानने के लिए इस लिंक पर जाएँ - http://bhadas.blogspot.com/2008/12/blog-post_277.html !
मुझे पूरी उम्मीद है कि आप जरूर इस दिल को झकझोर देने वाली घटना के खिलाफ सार्थक प्रयास करेंगे !
ऐसा सौभाग्य सिर्फ भारतीयों को ही मिलता है।
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